योहन अपने को ’येसु का प्यारा’ शिष्य कहते हैं। बारहों में से तीन शिष्यों का एक विशेष स्थान था। वे थे पेत्रुस, योहन और याकूब। वे येसु के जीवन के कुछ महत्वपूर्ण घटनाओं के समय उनके साथ थे और वे उन घटनाओं के साक्षी थे। इन में येसु का रूपान्तरण, सभागृह के अधिकारी की बेटी को जीवनदान और बारी में प्राणपीड़ा आदि शामिल हैं। इन शिष्यों को दूसरे शिष्यों की अपेक्षा ज़्यादा अनुभव और शिक्षा मिलती थी। फ़िर भी इस में से सिर्फ़ योहन कलवारी पहाड़ी की ओर येसु की यात्रा में शामिल होते हैं और येसु के क्रूसमरण का साक्षी बनते हैं। क्रूस के नीचे योहन इस दुनिया के इतिहास की सबसे दुखद घटना के साक्षी थे। येसु के साथ होने तथा येसु का समर्थन करने का आरोप लगने की संभावना और उसके फलस्वरूप आने वाली कठिनाईयों को नज़रअंदाज करते हुए वे येसु के क्रूस-रास्ते के समय भी उनका अनुसरण करते हैं।
गलीलिया के समुद्र के किनारे से हो कर जाते हुए येसु ने उन्हें बुलाते हुए कहा था: “मेरे पीछे चले आओ”। शायद उन्हें लगातार वह आवाज सुनायी दे रही थी। उन्हें मालूम था कि मुझे हमेशा येसु के पीछे चलना है – न केवल ताबोर पर्वत चढ़ते समय या येरूसालेम में प्रवेश करते समय, बल्कि कलवारी पहाड़ी की चोटी तक येसु का अनुसरण करना है। उन्हीं के सामने येसु को पकडा गया, कोडों से मारा गया, काँटों का मुकुट पहनाया गया उनके कंधे पर एक भारी क्रूस रखा गया, उनके कपडे उतारे गये और उनके हाथों में कीले ठोंके गये। जीवन और मृत्यु के बीच के येसु के संघर्ष को उन्होंने अपनी आँखों से देखा। टूटे दिल और टूटी आशा के साथ क्रूस के नीचे खडे उस शिष्य को दिलासा देने के लिए कोई नहीं था। पीड़ा की तीव्रता में उन्हें लग रहा था कि मेरा कलेजा टूट रहा है। अचानक क्रूस पर टंगे येसु के मुँह से एक आवाज निकल आती है। येसु आँसु और रक्त के सम्मिश्रण से भरी आँखें खोल कर अपनी माँ से कहते हैं, “भद्रे, यह तेरा पुत्र है”। योहन को आश्चर्य हुआ कि गुरुजी अपने अकथनीय और असीम दुख को भी भूल कर मेरे प्रति सहानुभूति दिखा रहे हैं। योहन दंग रह गये। येसु की आवाज़ मेघों को चीर कर फिर आती है। अब योहन ने देखा कि येसु मुझ से कुछ कह रहे हैं, “यह तुम्हारी माता है”।
जिन्होंने उन से कहा था “मेरा अनुसरण करो”, अब वह उन से उसी आवाज में मरियम को अपनी माँ बनाने को कहते हैं। मरियम का दिल भी टूट गया था, पर उनकी आशा नहीं टूटी थी। वह नहीं टूटेगी क्योंकि ईश्वर उन्हें आशाहीनों का आसरा बना चुका था। मरियम की संगति में योहन की आशा टूटते-टूटते बच गयी।
मरियम और योहन येसु की मृत्यु के साक्षी बनते हैं। अरिमथिया के यूसुफ़ और निकोदेमुस की सहायता से वे येसु की लाश को कब्र में रख कर दोनों शोकाकुल हो घर जाते हैं। समय बीत नहीं रहा था। आँखें सूख गयी थी। क्रूस-रास्ते की दर्दनाक घटनाएं अब भी उन्हें दिखायी दे रही थी। घंटें बीत गये। जो शिष्य भाग गये थे, वे एक-एक कर के वापस आने लगे। उनमें सामने के दरवाजे से अंदर घुसने का मनोबल नहीं था। पीछे के दरवाजे से अन्दर घुसते समय वे माता मरियम और योहन की ओर देखने में संकोच महसूस करते थे। वे शर्मिन्दा थे। पेत्रुस तो फूट-फूट कर रो रहे थे। परन्तु माता-मरियम ने स्वयं के दर्द को अपने विशाल हृदय में छिपाकर उन्हें सान्त्वना दी होगी। विनाश के पुत्र को छोड, पूरे ग्यारह शिष्य आ गये। माता मरियम और योहन के साथ सब घटनाओं के साक्षी बन कर पहले से ही कुछ महिलाएं सम्मिलित थी। योहन ने अन्य प्रेरितों को सब कुछ बताया; वे सब अपने व्यवहार के लिए शर्मिन्दा थे। लेकिन माता मरियम ने सबों को ढ़ाढ़स बँधाया और आशा दिलायी।
रविवार की सुबह की रोशनी ने वातावरण को पूरी तरह बदल दिया। ईश्वर के पुत्र के मनुष्य बन कर इस दुनिया में आने का अनुभव सब से पहले माता मरियम को ही प्राप्त हुआ था। पुनर्जीवित प्रभु का अनुभव भी, मैं समझता हूँ, उन्हें हीं प्राप्त हुआ होगा। परन्तु मरियम पहले से ही सब कुछ अपने हृदय में संचित रखती थी और हृदय भर जाने पर शब्द नहीं निकल पाते। खबर मिलते ही योहन पेत्रुस के साथ कब्र की ओर दौड़ लगाते हैं। योहन पेत्रुस को पीछे धकेल कर पहले कब्र पहुँचते हैं। वास्तविकता ने उनकी आशाओं को भी पार किया था। उन्हें विश्वास हुआ कि येसु जीवित हैं और येसु मृत्यु को भी पराजित कर चुके थे। “मृत्यु कहाँ है तेरी विजय? मृत्यु, कहाँ है तेरा दंश?” (1 कुरिन्थियों 15:55) कई सालों के बाद योहन ने अपने अनुभव को संक्षेप में लिखा, “जो तुम में हैं, वह उस से भी महान हैं, जो संसार में हैं” (1 योहन 4:4)।
हमारे जीवन को भी पास्का त्योहार एक नई दिशा और नई चेतना प्रदान कर सकता है। हो सकता है कि हम भी दस प्रेरितों के समान देर से आने वाले होंगे। परन्तु कभी नहीं से देर भली। -फा. फ्रांसिस स्करिया