ख्रीस्तीय जीवन को मानवीय समुदाय से अलग नहीं किया जा सकता। हर ख्रीस्तीय विश्वासी अन्य व्यक्तियों के साथ समुदाय में ही रहता और सामुदायिक जीवन बिताता है। सन्त योहन का कहना है, “हम प्रेम का मर्म इसी से पहचान गये कि ईसा ने हमारे लिए अपना जीवन अर्पित किया और हमें भी अपने भाइयों के लिए अपना जीवन अर्पित करना चाहिए” (1 योहन 3:16)। हर ख्रीस्तीय विश्वासी को अपने समुदाय के अन्य सदस्यों के प्रति कुछ जिम्मेदारियाँ निभानी पड़ती है। इसी कारण ’गौदिउम एत स्पेस’ (आधुनिक युग में कलीसिया) नामक दस्तावेज में द्वितीय वतिकान महासभा कहती है, “इस युग के मनुष्यों की, विशेषतः गरीबों तथा दीन-दुखियों की खुशियाँ और आशाएं, वेदनाएं तथा आशंकाएं ख्रीस्त के अनुयायियों की भी खुशियाँ और आशाएं, वेदनाएं तथा आशंकाएं हैं।”
कलीसिया हर युग में मानव से जुड़ी रहती है। वह मुक्ति का सार्वत्रिक संस्कार है। वह मनुष्य को न केवल मुक्ति का ज्ञान देती है या मुक्ति की ओर इंगित करती है, वरन् मुक्ति का एहसास भी कराती है। जहाँ कहीं भी कलीसिया कार्यरत है वहाँ लोग कलीसियाई कार्यकलापों द्वारा मुक्ति का अनुभव करने लगते हैं। यह कार्य कलीसिया, जहाँ तक संभव हो, स्थानीय शासन के साथ अच्छे संबंध रखते हुए निभाती है। आज कलीसिया हर देश में उपस्थित है। ख्रीस्तीय विश्वासी पृथ्वी का नमक तथा संसार की ज्योति है (पढ़िए मत्ती 5:13-16)। किसी भी वस्तु को सड़ने या खराब होने से बचाना और खाने को स्वादिष्ट बनाना नमक के गुण हैं। ख्रीस्तीय विश्वासी इस दुनिया में यही कार्य करता है। वह समुदाय को अनैतिकता, दुष्टता तथा कुकर्मों से बचाकर नैतिकता, ईमानदारी तथा सतकर्मों का समर्थन करता है। नमक के समान वह अपने सदाचरण से समुदाय को वास्तविक शांति तथा खुशी का एहसास कराता है। इस प्रकार वह इस दुनिया के जीवन को भी स्वादिष्ट बनाता है। वह दुनिया के लोगों के लिए ज्योति बन जाता है। वह प्रभु येसु रूपी ज्योति से प्रज्वलित होकर लोगों को अच्छा मार्ग दिखाता है। ख्रीस्तीय विश्वासी का कार्यक्षेत्र जहाँ कहीं भी हो, उसका सेवाकार्य जो कुछ भी हो, उसके जीवन का वातावरण जिस प्रकार का भी हो, उसे यह सुनिष्चित करना चाहिये कि वह अपने व्यवहार तथा बातों से पृथ्वी का नमक तथा संसार की ज्योति होने का प्रमाण दे। उसे समाज को प्रदूषित करने वाली सभी ताकतों से दूर रहना चाहिये।
सच्चा ख्रीस्तीय जीवन बिताने वाले व्यक्ति के अन्तकरण की आवाज का प्रभाव न केवल उस व्यक्ति पर पड़ता है, बल्कि दूसरों पर भी। वह दूसरों के लिए प्रेरणा-स्रोत बन जाता है। जिन मूल्यों को येसु ने अपने षिष्यों के सामने रखा, उनको कार्य रूप में लाने से हमारे समाज में उनका बहुत ही बड़ा प्रभाव पड़ता है। ख्रीस्तीयों का विश्वास है कि ख्रीस्तीय मूल्यों के पालन से दुनिया तथा समुदाय को असली खुशी प्राप्त होती है।
हमारे देश में प्रभु येसु ख्रीस्त के चेले सन्त थॉमस ने कलीसिया की स्थापना की। सन्त थॉमस ईसवी सन् 52 में भारत आये। उस समय से लेकर आज तक कलीसिया देश तथा देशवासियों की उन्नति के लिए प्रयत्न करती आ रही है। प्रभु ने ही ईश्वर प्रेम और पड़ोसी प्रेम को दो नयी प्रमुख आज्ञाओं के रूप में प्रस्तुत किया। भारत में ख्रीस्तीय विश्वासी अपना पड़ोसी प्रेम का कर्त्तव्य हमारे देशवासियों के साथ मिलकर देश की एकता तथा प्रगति में अपना योगदान देते हुए निभाता है।
देश की सेवा का मतलब है देशवासियों की सेवा। देश मिट्टी से नहीं बनता, बल्कि नागरिकों से। प्रभु येसु का सुसमाचार हमें हमारे देश के नागरिकों की सेवा में लगे रहने के लिए बाध्य करता है। यह हमें गरीबों तथा बेसहारों का विशेष ध्यान रखने की प्रेरणा देता है। हमें इस देश से गरीबी, बेरोज़गारी, निरक्षरता, आतंकवाद, भ्रष्टाचार, महिला-शोषण, बाल-शोषण आदि बुराईयों को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए स्थानीय तथा देषीय सरकारों की मदद करते रहना चाहिए। ख्रीस्तीय विश्वासियों को हर प्रकार के शोषण, जाति तथा वर्ग के नाम पर भेदभाव एवं धर्म के नाम पर अत्याचार आदि के विरुद्ध आवाज़ उठाना चाहिए।
कलीसिया हमारे देश में शिक्षा, स्वास्थ्य तथा समाज कल्याण के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान देती आ रही है। वर्तमान में भारत में कलीसिया करीब 15000 शिक्षा संस्थाएं चला रही है। इन में करीब 9000 संस्थाएं गाँवों में हैं। इनके अलावा कलीसिया करीब 30 स्वास्थ्य महाविद्यालय तथा नर्सिंग कॉलेज, 15 इंजीनियरिंग कॉलेज, 1600 तकनीकी षिक्षण संस्थाएं, 2000 छात्रावास, 1100 अनाथालय, 3000 स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने वाली संस्थाएं, 125 कुष्ठरोगी सेवा केन्द्र तथा करीब 500 विकलांग सेवा केन्द्र चला रही हैं। दलितों तथा निम्न जाति के लोगों का उद्धार करना, गरीबों को न्याय दिलाना, षोषित लोगों को मुक्ति दिलाना आदि स्वर्गराज्य की घोषणा का हिस्सा है। प्रभु येसु का सुसमाचार सबसे पहले गरीबों को सुनाया जाना चाहिए। हमें अपने सेवाकार्य के द्वारा लोगों को इस दुनिया में ही स्वर्गराज्य का अनुभव कराना चाहिए। कई ख्रीस्तीय विश्वासियों ने भारतीय भाषाओं के विकास के लिए महत्वपूर्ण योगदान दिया है।
हमें सच्चे तथा ईमानदार नागरिकों के समान व्यवहार करना चाहिए। सबसे पहले हमें हमारे देश पर गर्व करना चाहिए। देशवासियों के कल्याण के लिए हमें भी अपना योगदान देना चाहिए। नियमित रीति से कर देना इसी कर्त्तव्य का हिस्सा है। सन्त पौलुस कहते हैं, “आप सबों के प्रति अपना कर्त्तव्य पूरा करें। जिसे राजकर देना चाहिए, उसे राजकर दिया करें। जिसे चुंगी देनी चाहिए, उसे चुंगी दिया करें। जिस पर श्रद्धा रखनी चाहिए, उस पर श्रद्धा रखें और जिसे सम्मान देना चाहिए, उसे सम्मान दें।” (रोमियों 13:7)
भ्रष्टाचार आज के समुदाय की पहचान बन चुका है। यह मानवजाति की प्रगति को रोकता है। राजनीति और भ्रष्टाचार को एक दूसरे से अलग करना कठिन महसूस हो रहा है। भ्रष्टाचार के कारण कई योजनाएं असफल हो जाती हैं। ख्रीस्तीय विश्वासियों को चाहिए कि वे इस बुराई को हमारे समुदाय से मिटाने के लिए हर संभव प्रयत्न करें। उन्हें गरीबी तथा बेरोज़गारी जैसी बुराइयों से हमारे समाज को छुड़ाने के लिए सभी लोगों के साथ मिलकर काम करना चाहिए।
संत पौलुस हमें याद दिलाते हैं कि हमें सभी मनुष्यों के लिए, विशेषरूप से राजाओं और अधिकारियों के लिए अनुनय विनय और प्रार्थना करते रहना चाहिए (1 तिमथी 2:1-2)। कलीसिया में शासकों तथा नेताओं के लिये सामुदायिक रीति से ईश्वर के समक्ष आषिष मांगते हुये प्रार्थना करने की परंपरा हमेषा रही है। इस दुनिया में हम लगभग 70-80 साल का जीवन बिताकर मर मिटते हैं, परन्तु हमारे शारीरिक जीवन का हमारी मृत्यु के समय अन्त नहीं होता, वरन् परिवर्तन होता है। हमारा नश्वर शरीर खत्म होता है; ईश्वर हमें अनश्वर शरीर प्रदान करते हैं। जब हम इस दुनिया में नश्वर जीवन बिताते हैं, हम किसी न किसी समुदाय या राष्ट्र के सदस्य होते ही हैं और उस समुदाय या राष्ट्र के कुछ नेता और शासक अवष्य होते हैं। इस समुदाय या राष्ट्र के कुछ कानून और अनुशासन भी होते हैं। इन सब का सभी मनुष्यों को आदर करना चाहिए। लेकिन इन नेताओं तथा शासकों को ईश्वर के अधीन रहना चाहिए। अगर इस दुनिया का कोई भी कानून या अनुशासन ईश्वरीय योजना तथा आज्ञाओं के विरुद्ध कुछ माँग रखता है, तो हमारी यह ज़िम्मेदारी बनती है कि हम उसका विरोध करें। ऐसे सब अवसरों पर हमें ईश्वरीय योजना तथा आज्ञा को ही प्राथमिकता देनी चाहिए। हरेक ख्रीस्तीय विश्वासी दो देषों का नागरिक है- इस देश का तथा परलोक का। इसलिए उसे इन दोनों देषों के नियमों तथा अनुशासन का ख्याल करना पड़ता है। परन्तु जब उसे इस देश के नियमों तथा परलोक के नियमों के बीच में चयन करना पडता है तो उसे परलोक की प्राथमिकता को भली भाँति समझना चाहिए। इस दुनिया में ख्रीस्तीयों के लिए उत्तम वातावरण तभी बना रहता है जब इस दुनियावी राज्य और स्वर्गराज्य के मूल्यों में अच्छा तालमेल होता है।
ईश्वर की योजना के अनुसार मानवीय जीवन का एक अनंत लक्ष्य है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए ईश्वर ने एक रूपरेखा तैयार की है। कलीसिया मनुष्य के सामने इसी रूपरेखा को प्रस्तुत करती है। जब हम इस रूपरेखा के अनुसार जीवन बिताते हैं तब हम मुक्ति प्राप्त करते हैं। जब संसार के शासक इस रूपरेखा से दूर हो जाते हैं तो कलीसिया उन्हें याद दिलाती है कि ऐसे कार्यों से मानवता की हानि होगी। कलीसिया सिखाती है कि ईश्वर ने मनुष्य को अपने प्रतिरूप बनाया है। उसी कारण कलीसिया मनुष्य की प्रतिष्ठा को हानि पहुँचाने वाले सभी तत्वों से दूर रहती है तथा उनसे दूर रहने के लिए समाज तथा देश को प्रेरित करती है। कलीसिया निस्सहायों तथा गरीबों की आवाज़ बनकर अन्याय के खिलाफ समाज को सचेत करती है।
हमारा देश तेजी से प्रगति और विकास की ओर बढ़ रहा है। कलीसिया की यह सुनिष्चित करने की चुनौती है कि पैसा तथा नाम कमाने की भाग-दौड़ में मनुष्य अपने सृष्टिकर्त्ता को न भूले। जो ईश्वर को भूल जाते हैं, वे अन्य मनुष्यों को भी भूलने लगते हैं और सृष्ट वस्तुओं का दुरुपयोग करने लगते हैं। मानवीय तथा सुसमाचारीय मूल्यों को हमारे देश में बढावा देने के लिए लोकधर्मियों को राजनीति तथा सामाजिक सेवा के क्षेत्रों में अपना अमूल्य योगदान प्रदान करना चाहिए।
भारत देश में विभिन्न धर्मावलंबी रहते हैं। कलीसिया यह मानती है कि अन्य धर्मों में भी सत्य की किरणें मौज़ूद हैं। कलीसिया सत्य को स्वीकारती है, भले वह कहीं भी क्यों न हो। प्रभु येसु हम विश्वासियों से आशा करते हैं कि हम दुनिया के कौने-कौने में जाकर सुसमाचार सुनायें। कलीसिया इस निमंत्रण को स्वीकार करते हुए इस देश के कौने-कौने में अपनी संतानों के द्वारा सुसमाचार सुनाती है। यह जानते हुए भी कि वह अनंत सत्य को प्रस्तुत कर रही है, कलीसिया किसी व्यक्ति पर दबाव नहीं डालती कि वह इस सत्य को ग्रहण करे। सुसमाचार सुनाते समय वह प्रभु की मनोभावना को अपनाती है जिन्होंने कहा, “जिसके सुनने के कान हो, वह सुन ले! (मारकुस 4:9)”। उसका विश्वास है कि जो स्वतंत्रता से तथा हृदय से पश्चात्ताप करते हुए प्रभु के पास आता है, वही मुक्ति प्राप्त कर सकता है।
हमारे देश की संस्कृति को बनाए रखना हर नागरिक का कर्त्तव्य है। संस्कृति सभ्यता का वह रूप है जो आध्यात्मिक तथा मानसिक वैषिष्ट्य का द्योतक है। कलीसिया को अपनी धर्मविधियों को हमारे देश की संस्कृति के मुताबिक ढालना चाहिए। सच्चा ख्रीस्तीय विश्वासी असहिष्णु नहीं बन सकता। वह सत्य की खोज करने वाले सभी मानवों के साथ मिलकर अनन्त सत्य के विभिन्न पहलुओं की खोज करता है। वह भलाई करने वाले सभी मनुष्यों के साथ मिलकर दीन-दुखियों के दुख-दर्द को मिटाने का प्रयास करता है। ख्रीस्तीय विश्वासी के लिए कोई भी व्यक्ति अछूत नहीं है। वह हर मानव प्राणी का आदर करता है तथा उसकी सेवा में अपना जीवन व्यतीत करता है।
प्रश्न:-
1. पृथ्वी के नमक तथा संसार की ज्योति बनने की बुलाहट को ख्रीस्तीय विश्वासी किस प्रकार निभा सकते हैं?
2. अन्य धर्मों के प्रति ख्रीस्तीय विश्वासियों को किस प्रकार का व्यवहार अपनाना चाहिए?
3. जब विश्वासी को इस दुनिया के शासकों के नियम तथा ईश्वरीय नियमों के बीच चयन करना पड़ता है तो उसे क्या करना चाहिए?
4. हमारे देश की संस्कृति के प्रति हमारी क्या ज़िम्मेदारियाँ हैं?