काथलिक धर्मशिक्षा

प्रत्येक व्यक्ति की विलक्षणता

इस दुनिया में करोड़ों लोग रहते हैं। वे विभिन्न रंगों तथा प्रजातियों के होते हैं। लेकिन ईश्वर ने हरेक व्यक्ति को अनोखा बनाया है। उनके सृष्टिकार्य में किसी भी व्यक्ति की पुनरावृत्ति नहीं हुई। हरेक व्यक्ति को ईश्वर ने एक नए रूप में बनाया। जुड़वे भाइओं में बहुत समानताएं होती हैं, फिर भी उनमें कई भिन्नताएं देखने को मिलती हैं। हम जानते हैं कि पुलिस लोगों के अँगूठे के निषान से अपराधी को पहचानने की कोषिष करती है। यह इस बात की पुष्टि करता है कि हरेक व्यक्ति का अँगूठा-निषान अलग है। यह एक आष्चर्यजनक बात है कि ईश्वर ने किस प्रकार इस दुनिया के करोड़ों लोगों को अलग-अलग बनाया। हमें हमारे इस अनोखेपन को न केवल समझना चाहिए बल्कि इसे स्वीकार करना भी चाहिए। इसका यह मतलब है कि मैं दूसरों से भिन्न हूँ। ईश्वर ने बिलकुल मेरे जैसे किसी की भी सृष्टि नहीं की है। इसी कारण मेरा रंग, मेरा व्यवहार, मेरी सोच - ये सब दूसरे व्यक्तियों से भिन्न तो अवष्य होंगे। मेरे सोचने का ढंग अलग होने के कारण मैं जो विचार प्रस्तुत कर सकता हूँ वे दूसरों के विचारों से भिन्न होंगे। इसी कारण मेरे विचार को प्रस्तुत करना ज़रूरी हो जाता है। किसी भी बात या व्यवहार में दूसरों की नकल करना हम मनुष्यों के लिये उचित नहीं है।

बचपन में हम भाषा तथा व्यवहार का तरीका, बड़ों की बोलचाल एवं चालचलन की नकल करते हुए सीखते हैं। यह एक नींव मात्र है। जैसे-जैसे हम जीवन में आगे बढ़ते हैं, युवावस्था पार कर बुजुर्ग बन जाते हैं। इस प्रक्रिया के साथ-साथ हमारा अपना व्यक्तित्व, स्वभाव व तरीका विकसित होते हैं। इस प्रकार स्वयं के संरक्षण तथा विचारधारा में हम अपने पैरों पर खड़े होने लगते हैं। सोच-विचार तथा कार्य करने के तरीके में स्वतंत्रता हमारी उन्नति के लिये अति आवष्यक है। बचपन में हमारे विचार हमारे माता-पिता तथा संबंधियों के विचारों से प्रभावित होते हैं। छोटी-छोटी बातों में भी हम उनकी राय मालूम करते हैं और उनसे परामर्श करते हैं। जैसे-जैसे हम आगे बढ़ते हैं हम अपने आप को दूसरों की विचारधाराओें तथा तरीकों से स्वतंत्र बनाते जाते हैं। इसका अर्थ यह नहीं है कि दूसरों से परामर्श करना या उनकी सलाह लेना गलत है। अनुभवी लोगों की राय तथा सलाह हमें निर्णय लेने में मदद अवष्य कर सकती है।

किसी भी विषय में अपनी राय बनाना तथा उसे अभिव्यक्त करना हमारी स्वतंत्रता को दर्शाता है। कुछ लोग दूसरों की विचाराधाओं के भ्रम में आकर एक प्रकार के गुलाम बन जाते हैं। कुछ लोग किसी गुट या दल से अपने को अलग नहीं कर पाते हैं। कुछ लोग ’हाँ’ या ’न’ करने में असमर्थ हो जाते हैं। कुछ लोग निर्णय लेने के डर से या सहमति बनाने के भय से निर्णयों को टालते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि अपने अनोखेपन को बनाये रखना मामूली बात नहीं है। ख्रीस्तीय विश्वासी निरन्तर सत्य का साक्ष्य देने के लिए बुलाए गये हैं।

जो व्यक्ति अपने अनोखेपन का अहसास करता है उसे यह ज्ञात होता है कि ईश्वर ने इस दुनिया में उसे एक ऐसा कार्य सौंपा है जिसे ईश्वर ने दूसरे किसी व्यक्ति को नहीं सौंपा है। उसे परिपूर्ण करने से ही वह अपने जीवन में सफल बन सकता है।

ईश्वर परम सत्य है और साथ ही परम रहस्य भी। मनुष्य अपने जीवन में ईश्वर, दुनिया तथा अन्य मनुष्यों के सम्पर्क में आता है। ईश्वर, दुनिया और मनुष्य अवर्णनीय तथा असीम रहस्य हैं और ये तीनों रहस्य दार्शनिकों तथा मनोवैज्ञानिकों के मुख्य विषय भी रहे हैं। इन रहस्यों को एक व्यक्ति के विचारों या किसी एक समाज की विचारधाराओं तक सीमित रखना असंभव है। लेकिन जब बहुत से लोग इन रहस्यों पर मनन कर अपने विचारों का एक दूसरे के साथ आदान-प्रदान करते हैं तब हम इन रहस्यों को एक स्तर तक समझने में कामयाब होते हैं।

मुझे मेरे और दूसरों के अनोखेपन को समझना चाहिए। मैं अनोखा हूँ और इसी कारण मेरे विचार को गंभीरता से लिया जाना ज़रूरी है। इसी प्रकार दूसरे लोग भी अनोखे हैं। फलस्वरूप उनके विचारों तथा रायों का भी आदर किया जाना चाहिए। हम विभिन्न संदर्भों में कई बार सुनते हैं - जीओ और जीने दो। वास्तव में हमें न केवल जीना और जीने देना चाहिए, परन्तु पनपना और दूसरों को पनपने देना चाहिए। इस प्रकार हरेक व्यक्ति उत्कृष्ट बन सकता है। प्रभु कहते हैं, “तुम पूर्ण बनो, जैसा तुम्हारा स्वर्गिक पिता पूर्ण है” (मत्ती 5:48)। ये सब हमारे अनोखे सामाजिक प्राणी होने की अपेक्षाएं हैं। हमारे अनोखेपन को समझना एक बात है परन्तु उसे स्वीकारना एक अलग बात है। कई लोग किसी सत्य को सत्य मानने से इंकार नहीं करते हैं, लेकिन उस सत्य को अपने वास्तविक जीवन में स्वीकारने से वे हिचकिचाते हैं। तात्विक दृष्टि से हम आसानी से यह मान लेते हैं कि हर व्यक्ति अद्धितीय है परन्तु, उस अद्धितीयता को पहचान कर अपनी उत्कृष्टता प्रकट करने वाले कार्य करना सबके लिये मुमकिन नहीं है।

इस संदर्भ में, हमें एकता तथा एकरूपता के बीच का अन्तर जानना ज़रूरी है। हमें एकता पर ज़ोर देना चाहिये न कि एकरूपता पर। अगर हम एकरूपता पर ज़्यादा ज़ोर देते हैं तो हम व्यक्ति के अनोखेपन को नकारने लगते हैं। जो व्यक्ति अनोखेपन को सही ढ़ंग से समझता है वह विभिन्नता का समर्थन करेगा तथा विभिन्नता में एकता लाने की कोषिष करेगा। मगर जो अनोखेपन को नकारता है, वह अनुशासन के नाम पर एकरूपता पर ज़रूरत से ज़्यादा ज़ोर देगा तथा विभिन्नता को बर्दाश्त नहीं कर पायेगा। इस प्रकार वह अपने सामाजिक संबंध को बनाये रखने में कठिनाई महसूस करेगा। इसी कारण एक दूसरे के अनोखेपन को समझना संबंधों को बनाये रखने के लिये अनिवार्य है।

अपने अनोखेपन को पहचानना तथा अपने अनोखे दायिŸव को निभाना ख्रीस्तीयों का कर्त्तव्य है। हम प्रभु येसु के जीवन में देखते हैं कि वे बार-बार अपने अनोखे दायित्व को स्वीकारने तथा उसे पूरा करने की कृपा मांगने के लिये एकंात में अपने पिता के साथ वार्तालाप करते हैं। इसी प्रकार हम भी प्रभु से अपने अनोखेपन को पहचानने की कृपा प्राप्त कर सकते हैं।

अनोखेपन की स्वीकृति हमें सहिष्णुता प्रदान करती है। हमारी राय दूसरों की रायों से हमेषा मेल नहीं खाती। लेकिन जब हम दूसरों की किसी राय को स्वीकार नहीं कर पाते हैं तब भी हमें उस व्यक्ति को उसकी राय प्रकट करने के अधिकार से वंचित नहीं रखना चाहिए। वही व्यक्ति अपने अनोखेपन को पहचानने का दावा कर सकता है जो दूसरों की विभिन्नताओं को स्वीकार करता तथा उस विभिन्नता का आदर करता है। यही है व्यक्ति के अनोखेपन एवं सहिष्णुता के बीच का संबंध।

प्रत्येक व्यक्ति के अनोखेपन की स्वीकृति का हमारे जीवन में बड़ा प्रभाव पड़ता है। जब प्रत्येक व्यक्ति के सोचने का तरीका अलग होता है, तब हम किसी व्यक्ति पर कोई दोष कैसे लगा सकते हैं? कुछ कार्य निस्सन्देह गलत हैं। यह तो सभी जानते और मानते हैं। लेकिन किसी गलत कार्य में किसी व्यक्ति की आरोप्यता कुछ अलग ही बात है। इस संदर्भ में प्रभु की शिक्षा और उनका उदाहरण यह है कि हम पाप से घृणा करें न कि पापी से। प्रत्येक व्यक्ति के अनोखेपन को स्वीकारने से हम दूसरों की आलोचना करने के हमारे झुकाव को नियन्त्रित करेंगे।

अनोखेपन की पहचान हमारे आत्मविश्वास को बढ़ाती है। जो अपने तथा अन्यों के अनोखेपन को स्वीकारते हैं, वे अपने व्यवहार तथा विचारों की तुलना दूसरे व्यक्तियों के व्यवहार तथा विचारों से नहीं करते हैं। वे इस बात पर ध्यान देते हैं कि ईश्वर, कलीसिया तथा समुदाय की उनसे क्या-क्या अपेक्षाएं हैं। फिर उन अपेक्षाओं को जहाँ तक हो सके पूरा करने की कोषिष करते हैं। वे न ही दूसरों के व्यवहार तथा विचारों से अपने व्यवहार तथा विचारों की तुलना में स्वयं को बड़े मानकर घमण्डी बनते हैं और न ही कुछ कार्य दूसरों के बराबर या उनसे बढ़ कर न कर सकने पर या ठीक से न सकने पर अपने को तुच्छ मानकर हताष हो जाते हैं।

ईश्वर प्रत्येक व्यक्ति को एक व्यक्तिगत बुलाहट भी प्रदान करते हैं। इसी कारण हरेक को अपनी बुलाहट को पहचानना होगा। प्रभु येसु को अपनी बुलाहट का पूरा-पूरा ज्ञान था। इसी कारण मंदिर में पाये जाने पर वे अपने माता-पिता से पूछते हैं, “मुझे ढँूढने की क्या जरूरत थी? क्या आप यह नहीं जानते थे कि मैं निष्चय ही अपने पिता के घर होऊँगा?“(लूकस 2:49)। गिरफ़्तारी के समय प्रभु पूछते हैं, “जो प्याला पिता ने मुझे दिया है क्या मैं उसे नहीं पीऊँ?“ (योहन 18:11)। संत योहन बपतिस्ता के जीवन में भी यह बात स्पष्ट है। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में यह स्वीकार किया कि वह मसीह, एलियस या नबी नहीं है। उन्होंने ने अपनी पहचान “निर्जन प्रदेश में पुकारने वाले की आवाज“ बतायी। (देखिये योहन 1:19-23) जिस प्रकार पौधा जहाँ लगाया जाता है उसके लिए यही अच्छा है कि वह उसी जगह पर फले-फूले, न कि दूसरी जगहों की आशा या तलाष में जीना ही भूल जाये या जीने का मौका ही गंवा दे। कहा जाता है यह दुनिया एक बगीचे के समान है, कुछ लोग उस बगीचे के किनारे से निकल तो जाते हैं, परन्तु उन्हें बगीचा दिखाई नहीं देता क्योंकि उनका मन-मस्तिष्क दूसरी बातों से भरा है। कुछ लोग बगीचे में प्रवेश कर फूलों की सुन्दरता तथा सुगंध की तारीफ करके निकल जाते हैं। लेकिन दुनिया ऐसे लोगों की याद रखती है जो उस बगीचे में प्रवेश कर वहाँ की घास उखाड कर फेंक देते हैं, पौधों को खाद और पानी प्रदान करते हैं तथा डालियों को छाँटते हैं ताकि वे और भी अधिक फल उत्पन्न करें। यह सब वही कर पायेगा जो अपने अनोखेपन को भली भाँति समझता है।

प्रश्न:-
1. प्रत्येक मनुष्य के अनोखेपन से क्या तात्पर्य है?
2. व्यक्ति के अनोखेपन का उसकी सहिष्णुता से क्या संबंध है?
3. एक दूसरे के अनोखेपन को समझना संबंधों को बनाये रखने के लिये अनिवार्य क्यों माना जाता है?
4. अपने अनोखेपन की स्वीकृति से मनुष्य को क्या-क्या लाभ हैं?
5. निम्न अंग्रेजी अनुच्छेद को ध्यान से पढें तथा विचार-विमर्श करें कि यह अनुच्छेद हमें क्या शिक्षा देता है?
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