काथलिक धर्मशिक्षा

मनुष्य - सृष्टि का मुकुट

निम्न घटनाओं को समूहों में पढ़कर चर्चा कीजिए

एडोल्फ हिट्लर यहूदियों को गैस-कक्षों में भेज कर मार डाला करते थे। जब किसी ने उससे पूछा कि वह उन लोगों को बन्दूक से क्यों नहीं मार डालते तो उसने उत्तर दिया कि वह बन्दूक की गोली बर्बाद नहीं करना चाहता। हिट्लर मनुष्य को अपनी बन्दूक की गोली के बराबर मूल्यवान भी नहीं समझता था। सन्त लूई मरी द मोन्ट फॉर्ट एक बार देर रात को किसी यात्रा से वापस आकर अपने धर्मसंघीय भवन के मुख्य दरवाज़े के सामने खडे होकर चिल्ला रहे थे, “दरवाज़ा जल्दी खोलो, येसु आये हैं!” एक भाई ने आकर दरवाज़ा खोला तो देखा कि सन्त लूई मरी रास्ते के किनारे पडे एक गरीब मरीज़ को अपने भवन में आश्रय देने के लिए ले आये थे। उस गरीब में सन्त ने प्रभु येसु का अनुभव किया था।

प्रश्न:-
1. एडोल्फ हिट्लर तथा सन्त लूई मरी द मोन्ट फॉर्ट की विचारधाराओं में आप क्या-क्या समानताएँ एवं असमानताएँ देखते हैं?
2. इनमें से किस की विचारधारा मानवता के हित में है? व्याख्या कीजिए।
बाइबिल के अनुसार ईश्वर ने अपना सृष्टि-कार्य छः दिनों में पूरा किया। छठवें दिन सृष्टि-कार्य को पूर्णता तक पहुँचाते हुए ईश्वर ने मनुष्य की सृष्टि की। ईश्वर ने मनुष्य को अपना प्रतिरूप और अपने सदृष बनाया तथा उसे समुद्र की मछलियों, आकाश के पक्षियों, घरेलू और जंगली जानवरों और जमीन पर रेंगने वाले सब जीव-जन्तुओं पर शासन करने का अधिकार दिया। (देखिए उत्पत्ति 1:26; 9:2) एक बात ध्यान देने योग्य है कि सभी अन्य वस्तुओें की सृष्टि के समय प्रभु कहते हैं, “... हो जाये“, परन्तु मनुष्य की सृष्टि के समय भाषा-षैली बदल जाती है - “हम मनुष्य को अपना प्रतिरूप बनायें“। मनुष्य की विशेषता तथा प्राथमिकता उसकी सृष्टि में ही हमें देखने को मिलती है। मनुष्य की सृष्टि के पहले ईश्वर ने जिन वस्तुओं की सृष्टि की थी, उन सभी वस्तुओें की सृष्टि ईश्वर ने मनुष्य की ज़रूरतों तथा खुशी को ध्यान में रखते हुए की थी। वह सब मनुष्य के जगत की व्यापक तैयारी थी।

मनुष्य सृष्टि का मुकुट माना जाता है। मनुष्य ईश्वर द्वारा रचित प्राणियों में सबसे बड़ा प्राणी नहीं है। हाथी जैसे बड़े जानवरों से हम परिचित हैं। नीला तिमिंगल इस विश्व का सबसे बड़ा जानवर माना जाता है। जब हमें यह ज्ञात होता है कि एक बड़ा तिमिंगल प्रति दिन करीब 3600 किलो खाद्यपदार्थ खाता है, तब हम अन्दाज़ा लगा सकते हैं कि यह जानवर कितना बडा हो सकता हैं। इसकी लम्बाई करीब 100 फिट तक होती है और वजन करीब 150 टन। लेकिन वैज्ञानिकों के मुताबिक यह जानवर मनुष्य के लिए खतरनाक नहीं है। मनुष्य का इन जीव-जन्तुओं पर आधिपत्य है। मनुष्य बुद्धि और इच्छा से युक्त भौतिक शरीर और आध्यात्मिक आत्मा को धारण करने वाला जीवंत व्यक्ति है। मनुष्य ईश्वर की अन्य सभी सृष्टियों से श्रेष्ठ है। ईश्वर ने “उसे स्वर्गदूतों से कुछ ही छोटा बनाया और उसे महिमा और सम्मान का मुकुट पहनाया। . . . उसे अपनी सृष्टि पर अधिकार दिया और उसके पैरों तले सब कुछ डाल दिया- सब भेड़-बकरियों, गाय-बैलों और जंगल के बनैले पशुओं को; आकाश के पक्षियों, समुद्र की मछलियों और सारे जलचरी जन्तुओं को।“ (स्तोत्र 8:6-9) प्रभु येसु का यह कहना है कि हमारे सिर का बाल-बाल गिना हुआ है और हम आकाश के पक्षियों से, बहुतेरी गौरैयों से, भेड़ों से कहीं बढ़ कर हैं (देखिए मत्ती 6:26; 10:30; 12:12)।

मनुष्य विवेकी है। उसमें सोचने-समझने तथा निर्णय लेने की अपूर्व शक्ति है। अन्य प्राणियों से हटकर वह ईश्वर तथा अन्य मनुष्यों से संबंध जोड़ने तथा उनके साथ विचार-विमर्श करने में सक्षम है। वह विकल्पों का अवलोकन करके अपनी इच्छा के अनुसार किसी भी विकल्प का चयन कर सकता है। वह विभिन्न प्रकार की भावनाओं को महसूस करता है तथा विभिन्न भावों को व्यक्त कर सकता है। उसमें एक अन्तकरण मौजूद है जिसके माध्यम से वह भले-बुरे को पहचान सकता है। अन्तकरण उसके भले कार्यों का समर्थन करता तथा बुरे कर्मों को अनुचित ठहराता है। मनुष्य की आत्मा ईश्वर की ओर उन्मुख है तथा ईश्वर में लीन होने की कामना रखती है।

कलीसिया मानव-प्राणी की गरिमा तथा भव्यता का आधार इस सच्चाई में पाती है कि ईश्वर ने मनुष्य को अपने प्रतिरूप और अपने सदृष बनाया। ईश्वर ने मनुष्य के अलावा किसी भी अन्य प्राणी को अपने प्रतिरूप और अपने सदृष नहीं बनाया था। किसी भी अन्य प्राणी में ईश्वर की छबि इस प्रकार विद्यमान नहीं है जिस प्रकार मानव में है। ईश्वर ने इस प्रकार मनुष्य को अपनी ईश्वरीयता में सहभागी बनाया। यह सत्य मनुष्य को यह ज्ञात कराता है कि वह ईश्वर की उत्कृष्ट सृष्टि है। हम ईश्वर का सर्वोत्तम प्रतिरूप और उनका उत्कृष्ट सदृष प्रभु येसु में पाते हैं। येसु हमें सिखाते हैं कि हमें किस तरह का जीवन बिताना चाहिए। येसु में ईश्वर हमारे साथ एक मानवीय संबंध स्थापित करते हैं। प्रभु येसु सच्चे ईश्वर तथा सच्चे मनुष्य है। उनमें ईश्वर मानुषिक रीति से अपने आप को प्रकट करके अपने प्यार का अहसास कराते हैं। इसी प्रभु में मनुष्य अपने आप को ईश्वर के समक्ष ईश्वरीय रीति से प्रकट करता है तथा अपने को आज्ञाकारी बनाता है।

ईश्वर ने हमें सृष्ट-वस्तुओं तथा जीव-जन्तुओं के प्रति तथा उनकी ओर से कई बड़ी जिम्मेदारियाँ सौंपी हैं। मनुष्य को ईश्वर ने एक करिन्दे की भूमिका सौंपी है। मनुष्य को ईश्वर की ओर से इस दुनिया में उनकी सृष्ट-वस्तुओं तथा जीव-जन्तुओं की देखभाल तथा उनके अनुरक्षण का प्रबन्ध करना चाहिए। उत्पत्ति ग्रंथ 7 में हम पढ़ते हैं कि ईश्वर ने नूह को यह आदेश दिया था कि वह अपने सारे परिवार के साथ पोत में चढ़ते समय समस्त शुद्ध पशुओं में से नर-मादा के सात-सात जोड़े, समस्त अशुद्ध पशुओं के दो-दो जोड़े तथा आकाश के पक्षियों के सात-सात जोड़े अपने साथ ले जाये। नूह ने जल प्रलय के समय इन जानवरों की देख-रेख की तथा उनकी जाति बनाये रखने में मदद की। स्तोत्रकार हमें निरंतर याद दिलाता है, “प्रभु ही ईश्वर है, उसी ने हमें बनाया है- हम उसी के हैं। हम उसकी प्रजा, उसके चरागाह की भेड़ें हैं।“ (स्तोत्र 100:3) ईश्वर के प्रतिरूप और उनके सदृष बनाये जाने का यह अर्थ है कि ईश्वर मनुष्य के साथ एक विशेष संबंध बनाये रखना चाहते हैं जो ईश्वर के अन्य जीव-जन्तुओं के साथ संबंधों से भिन्न है। इस का यह भी अर्थ है कि हम अपने व्यक्तित्व तथा जीवन शैली में ईश्वरीयता की झलक प्रस्तुत करें।

सिर्फ मनुष्य में ईश्वर के प्यार के सामने अपनी प्रतिक्रिया प्रकट करने की क्षमता है। मनुष्य का एक व्यक्तित्व है जो अन्य जीव-जन्तुओं में देखने को नहीं मिलता है। सृष्टि का मुकुट बनाये जाने पर सारी सृष्टि की ओर से हमारी कुछ जिम्मेदारियाँ बनती है। सृष्ट वस्तुओं के लिए ईश्वर की कुछ योजना है, इस योजना को मनुष्य ही परख सकता है। इसी कारण मनुष्य को चाहिए कि वह यह सुनिष्चित करे कि ईश्वर की योजना के अनुसार ही सृष्ट वस्तुओं का उपयोग किया जाये। उदाहरणतः जिस उद्देश्य से ईश्वर ने पेड़-पौधों की सृष्टि की उसी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए मनुष्य को पर्यावरण की रक्षा करनी चाहिए। ईश्वर ने इस पृथ्वी को रहने लायक बनाया तथा उसमें मनुष्य तथा अन्य प्राणियों के अच्छे जीवन के अनुकूल परिस्थितियाँ प्रदान की। मनुष्य को अपनी लापरवाही के कारण इस जगत को प्रदूषित नहीं करना चाहिये।

इस धरती तथा सभी सृष्ट वस्तुओं पर प्रत्येक मनुष्य का अधिकार है क्योंकि ईश्वर ने उन्हें कुछ गिने चुने मनुष्यों के लिए नहीं, बल्कि सम्पूर्ण मानवजाति के लिए बनाया है। मनुष्य को यह सुनिष्चित करना चाहिए कि सृष्ट वस्तुओं पर इस दुनिया के कुछ ही लोग अधिकार जमाकर अन्य मनुष्यों को उनसे वंचित न रखें। वास्तव में इस दुनिया की गरीबी, बेरोज़गारी, भूखमरी, निरक्षरता, बाल-षोषण जैसी समस्याओं का कारण कुछ मनुष्यों की संकुचित विचारधारा तथा लालच ही है। ईश्वर ने सारी मानव जाति को न कि किसी एक व्यक्ति या कुछ व्यक्तियों को सृष्टि का मुकुट बनाया है। अगर कोई व्यक्ति स्वार्थता से प्रेरित होकर किसी दूसरे व्यक्ति को दुनिया की वस्तुओं से वंचित रखता है, तो वह ईश्वर की योजना के विरुद्ध कार्य करता है।

हालाँकि सब सृष्ट-वस्तुयें मनुष्य के लिये हैं, लेकिन मनुष्य को अपने पसीने की रोटी खाना चाहिये। उसे मेहनत कर खेत में अनाज पैदा करना तथा उस अनाज से रोटी बनाना चाहिये। कहा जाता है कि ईश्वर सब पक्षियों को खिलाते हैं परन्तु वे पक्षियों का खाना उनके घोसलों में प्रदान नहीं करते हैं। संत पौलुस विश्वासियों से अनुरोध करते हैं कि वे आलस्य का जीवन न बिताएं, बल्कि अपनी कमाई की रोटी खायें (देखिए 2 थेसलनीकियों 3:11-12)। पवित्र ग्रन्थ कहता है, “जो अपनी भूमि जोतता, उसे रोटी की कमी नहीं होगी; किन्तु जो व्यर्थ के कामों में लगा रहता, वह नासमझ है“ (सूक्ति-ग्रन्थ 12:11)।

ईश्वर ने आदम को अपना प्रतिरूप और अपने सदृष बनाया (देखिए उत्पत्ति 1:26; 5:1)। उत्पत्ति 5:3 में हम पढ़ते हैं कि जब आदम एक सौ तीस वर्ष का हुआ तब उसे अपने अनुरूप, अपने सदृष एक पुत्र हुआ। इस प्रकार मनुष्य ईश्वर का प्रतिरूप और सदृष है। उत्पत्ति 9:6 में प्रभु कहते हैं, “जो मनुष्य का रक्त बहाता है, उसी का रक्त भी मनुष्य द्वारा बहाया जायेगा क्योंकि ईश्वर ने मनुष्य को अपना प्रतिरूप बनाया है।” ईश्वर हमें यह शिक्षा देना चाहते हैं कि हम एक-दूसरे के जीवन तथा व्यक्त्तिव का आदर करें।

उत्पत्ति ग्रंथ के मुताबिक हालाँकि ईश्वर ने सारी सृष्टि के मुकुट के रूप में नर को बनाया, फिर भी ईश्वर को अपनी सृष्टि में कुछ कमी महसूस हुई। प्रभु ने कहा, “अकेला रहना मनुष्य के लिए अच्छा नहीं। इसलिए मैं उसके लिए एक उपयुक्त सहयोगी बनाऊँगा।” (उत्पत्ति 2:18) तब ईश्वर ने नारी को बनाया। इसी के साथ ईश्वर का सृष्टि-कार्य पूर्ण होता है। बाइबिल के अनुसार नारी की सृष्टि करते समय ईश्वर ने मनुष्य को गहरी नींद में सुला दिया (देखिए उत्पत्ति 2:21)। तब नारी की सृष्टि में नर का कोई हाथ नहीं था। परन्तु बाइबिल कहती है कि नारी को रचने के लिए ईश्वर ने नर की एक पसली निकाल ली थी। इसका यह अर्थ है कि नर और नारी एक ही स्वभाव के हैं। कई मानवीय समुदायों में स्त्रियों के विरुद्ध भेदभाव किया जाता है। जब ईश्वर ने मानवजाति की सृष्टि की तो उन्होंने नर और नारी को एक-दूसरे का पूरक बनाया। इसी कारण नर और नारी को एक दूसरे का सम्मान करना तथा एक साथ मिलकर ईश्वर का आदर करना चाहिये।

इस प्रकार जब मनुष्य समुदाय में सृष्ट वस्तुओं तथा जीव-जन्तुओं की ओर अपनी जिम्मेदारियों को निभाकर और उन सब की ओर से ईश्वर के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को निभाकर आगे बढ़ता है, तभी उसका जीवन सफल हो सकता है।

प्रश्न:-
1. “मनुष्य सृष्टि का मुकुट है।” इससे क्या तात्पर्य है?
2. सृष्ट वस्तुओं तथा जीव जन्तुओं के प्रति ईश्वर ने मनुष्य को कौन-कौन सी जिम्मेदारियाँ सौंपी हैं?
3. सारी सृष्टि की ओर से ईश्वर के प्रति मनुष्य की कौन-कौन सी जिम्मेदारियाँ हैं?
4. स्त्रियों के विरुद्ध भेदभाव को ख्रीस्तीय दृष्टिकोण से आप कैसे देखेंगे? वर्णन कीजिये।

दलों में चर्चा कीजिए
प्रश्न: इस जगत के प्रति हमारी ज़िम्मेदारियों को समझते हुए, पर्यावरण की रक्षा के लिए हम क्या-क्या व्यावहारिक कदम उठा सकते हैं?


Copyright © www.jayesu.com
Praise the Lord!