काथलिक कलीसिया के धर्मशिक्षा ग्रन्थ (1471-1473) के अनुसार, हमारे पापों के दो परिणाम होते हैं। पहला, गंभीर पाप के कारण ईश्वर के साथ सहभागिता तथा अनन्त जीवन से हम वंचित रह जाते हैं। इसे हम अनन्त दण्ड (eternal punishment) कहते हैं।
दूसरा, पाप के कारण हमारे अन्दर सृष्ट वस्तुओं के प्रति एक प्रकार का अस्वास्थ्यकर लगाव (unhealthy attachment) पैदा होता है जिसका शुध्दीकरण या तो इस लोक में या मृत्यु के बाद शोधक स्थल में होना चाहिए। इस शुध्दीकरण के द्वारा एक व्यक्ति अपने “लौकिक दण्ड” (temporal punishment) से मुक्त होता है। इस दण्ड को ईश्वर की ओर से क्रोध या प्रतिकार के रूप नहीं देखा जाना चाहिए, बल्कि यह पाप के स्वभाव से ही जुडा हुआ है।
पापस्वीकार संस्कार के द्वारा हम अनन्त दण्ड से मुक्ति पाते हैं। हमारे दुख-तकलीफ़ों को झेल कर, उपवास, भिक्षादान तथा अन्य प्रायश्चित के कार्यों के द्वारा हम लैकिक दण्ड से छुटकारा पाते हैं। इस संदर्भ में, कुछ विशेष अवसरों पर कलीसिया को जो “निषेध और अनुमति” का अधिकार (मत्ती 16:19; 18:18) दिया गया है, उस अधिकार का उपयोग करते हुए, वह येसु ख्रीस्त तथा संतों के पुण्य के खातिर प्रदत्त आध्यात्मक खजाना हम लोगों के लिए खोल देती है और हमें दंड-मोचन (indulgence) देती है। पूर्ण दंड-मोचन (plenary indulgence) से हमें हमारे सभी लौकिक दंड से छुटकारा मिलता है। अपूर्ण दंड-मोचन (partial indulgence) से हमें हमारे लौकिक दंड से आंशिक छुटकारा मिलता है।