काथलिक धर्मशिक्षा

कलीसिया के चार अंक

अंक वह चिह्न होता है जिससे किसी भी व्यक्ति या वस्तु विशेष की पहचान होती है। हम अंको के द्वारा लोगों या वस्तुओं को पहचानते हैं। कलीसिया के भी चार अंक हैं जिनके द्वारा हम काथलिक कलीसिया को पहचान सकते हैं। इनके बारे में हम कलीसियाई परंपरा के अनुसार सीखते तथा पढ़ते आ रहे हैं। ये चार अंक यह बताते हैं कि कलीसिया एक (One), पवित्र (Holy), सार्वत्रिक (Universal) एवं प्रेरितिक (Apostolic) है।

कलीसिया की एकता

संत पौलुस लिखते हैं, ’’जिस प्रकार हमारे एक शरीर में अनेक अंग होते हैं और सब अंगों का कार्य एक नहीं होता, उसी प्रकार हम अनेक होते हुए भी मसीह में एक ही शरीर और एक दूसरे के अंग होते हैं।’’ (रोमियों 12:4-5) जब कुरिन्थ की कलीसिया में दलबंदी की भावना बढ रही थी तथा वे अलग-अलग कलीसियाई समुदायों की स्थापना करने वालों के नाम पर लड़ रहे थे तो संत पौलुस उन्हें एक कलीसिया के सिद्धांत को समझाते हुए कहते हैं, ’’आप लोगों में प्रत्येक अपना-अपना राग अलापता है: ’’मैं पौलुस का हूँ’’: ’’मैं अपोल्लोस का हूँ’’; ’’मैं केफस का हूँ’’ और ’’मैं मसीह का हूँ’’; क्या मसीह खण्ड-खण्ड हो गये हैं? क्या पौलुस आप लोगों के लिए क्रूस पर मर गये हैं? क्या आप लोगों को पौलुस के नाम पर बपतिस्मा मिला है? (देखिये 1 कुरिन्थियों 1:13) सभी ख्रीस्तीयों को एक कलीसिया बताने का अन्य कारण दर्शाते हुए संत पौलुस कहते हैं कि मसीह तो सब के लिये क्रूसित हुए एवं सभी ने समान रूप से ख्रीस्त में बपतिस्मा लिया है। जो नींव डाली गयी है, उसे छोड़कर कोई दूसरी नहीं डाल सकता, और वह नींव है ईसा मसीह। (देखिये 1 कुरिन्थियों 3:9-11)। ख्रीस्तीयों का समूह जो स्वयं कलीसिया है वह जहाँ कहीं भी रहे एक ही कलीसिया से संयुक्त रहता है। ख्रीस्तीय विश्वासीगण एक ही त्रिएक ईश्वर, एक ही आशा, एक ही बुलाहट, एक ही विश्वास एवं एक ही बपतिस्मा के सहभागी है।

कलीसिया प्रभु येसु ख्रीस्त का संस्कार मानी जाती है। इसे संसार की मुक्ति का संस्कार भी कहा जाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि कलीसिया त्रिएक ईश्वर को मानव जाति के समक्ष प्रस्तुत करती है। जिस प्रकार ईश्वर में तीन जन है तथा तीनों जन मिलकर एक ईश्वर बनते हैं इसी प्रकार विश्वासीगण अलग-अलग होने के बावजूद भी, कलीसियाई समूह अलग-अलग होने के बावजूद भी कलीसिया एक है। ख्रीस्तीय विश्वासी प्रभु येसु के शरीर के अंग हैं। अंग अलग-अलग होते हैं और उनकी भूमिका भिन्न-भिन्न हैं फिर भी वे सब एक साथ एक शरीर हैं। कलीसिया के सदस्यों को प्रभु येसु ही उनके बीच में उपस्थित रहकर एक बनाते हैं। जब हरेक विश्वासी ख्रीस्त के शरीर का अंग है तो उसे ख्रीस्त का शरीर बने रहने के लिए अन्य सभी विश्वासियों के साथ ख्रीस्त में जुडे़ रहना चाहिये। ख्रीस्तीयों को ख्रीस्तीय बने रहने के लिये सभी विश्वासी भाई-बहनों के साथ एक बनना ज़रूरी है। क्योंकि दूसरे विश्वासियों के साथ एक होकर ही वह ख्रीस्त के शरीर का अंग बने रह सकते हैं। कलीसिया के एक होने का व्यावहारिक अर्थ यह भी निकलता है कि विश्वासियों के बीच सहभागिता, प्रेम तथा सेवा कायम रहंे। हर विश्वासी को यह महसूस करना चाहिये कि दूसरे विश्वासियों से जुड़े बिना वह सच्चा ख्रीस्तीय विश्वासी नहीं बन सकता।

कलीसिया की पवित्रता

’’पवित्र बनो, क्योंकि मैं प्रभु तुम्हारा ईश्वर पवित्र हूँ’’।(लेवी 19:2) इसी पवित्र वचन को दोहराते हुये संत पेत्रुस कहते हैं, ’’आपको जिसने बुलाया वह पवित्र है। आप भी उसके सदृश्य अपने समस्त आचरण में पवित्र बनें’’ (1 पेत्रुस 1:16)। प्रभु ईश्वर में विश्वास करते हुये येसु ख्रीस्त के चेले बन कर कलीसियाई समुदाय के सदस्य बनने वाले व्यक्ति को ईश्वर पवित्र बनने का यह निमंत्रण देते हैं। कलीसिया का अंग बनने का अर्थ ईश्वरीय जीवन में सहभागी बनना है। जिस प्रकार अंधकार को प्रकाश से जोड़ा नहीं जा सकता, इसी प्रकार बुराई को ईश्वर रूपी भलाई से जोड़ा नहीं जा सकता। ईश्वर के साथ सहभागिता महसूस करने के लिये हमें पवित्र बनना ज़रूरी है। पवित्रता को अपनाये बिना कोई भी ईश्वर के पास नहीं आ सकता। ख्रीस्तीय बनने की बुलाहट इसी कारण पवित्र बनने की बुलाहट है। कलीसिया, ख्रीस्तीयों का समुदाय पवित्र बनने के लिये बुलाये गये लोगों का समुदाय है। कलीसिया के सदस्य प्रभु येसु ख्रीस्त के पवित्र लहू से पवित्र किये गये हैं (देखिए प्रेरित-चरित 20:28; 1 पेत्रुस 1:2,9)। संत पौलुस कलीसिया को पवित्र आत्मा का मंदिर कहते हैं (देखिए 1कुरिन्थियों 6:19)। संत पेत्रुस कलीसिया को आध्यात्मिक भवन कहते हैं (देखिये 1 पेत्रुस 2:5)। वे ख्रीस्तीयों को ’’पिता परमेश्वर के विधान के अनुसार बुलाये और आत्मा के द्वारा पवित्र किये गये’’ (1 पेत्रुस 1:2) मानते है। आदिम कलीसिया में ख्रीस्तीयों को ’संत’ कहकर भी सम्बोधित किया जाता था (देखिए प्रेरित-चरित 9:13; 26:10)।

कलीसिया में अपरिपक्वता या अपवित्रता भी है। कलीसिया में दो प्रकार के तत्व है- ईश्वरीय एवं मानवीय। कलीसिया इस दुनिया से अपने गन्तव्य स्थान ’स्वर्ग’ की ओर यात्रा पर है। अपनी इसी यात्रा के दौरान कलीसिया मनुष्य की अपरिपक्वता को परिपक्वता में बदलने की कोशिश करती है। पापी मनुष्य को सही मार्ग पर लाने का कार्य कलीसिया निरंतर करती रहती है। कलीसिया के सात संस्कार पवित्र बनने के माध्यम हैं। वे पवित्रीकरण के साधन हैं।

द्वितीय वतिकान महासभा ने कलीसिया पर अपने दस्तावेज ’लूमन जेनसिमय’ में कलीसिया को ’त्रुटिहीन पवित्र’ (indefectibly holy) बताया है। कलीसिया की पवित्रता इसी बात से समझी जा सकती है कि कलीसिया येसु का रहस्यमय शरीर है तथा वह परम पावन ईश्वर के साथ सहभागिता के लिये बुलायी गयी है।

कलीसिया के पवित्र होने का व्यावहारिक अर्थ हमें यह निकालना चाहिये कि कलीसिया के हर सदस्य को बुराई के विरुद्ध तथा बुराई की सभी ताकतों के विरुद्ध कार्य करते रहना चाहिये। ख्रीस्तीयों का आचरण तथा सोच-विचार पवित्र होना चाहिये।

कलीसिया की सार्वत्रिकता

योहन 3:16 में पवित्र वचन कहता है, ’’ईश्वर ने संसार को इतना प्यार किया कि उसने उसके लिये अपने एकलौते पुत्र को अर्पित कर दिया, जिससे जो उसमें विश्वास करता है उसका सर्वनाश न हो बल्कि अनंत जीवन प्राप्त करे।’’ ईश्वर की यह इच्छा है कि सारी मानव जाति को मुक्ति प्राप्त हो। प्रभु येसु ने अपने शिष्यों को संसार के कौने-कौने में जाकर सुसमाचार सुनाने का आदेश दिया (देखिये मारकुस 16:15)। कलीसिया मानवजाति के लिये मुक्ति का संस्कार है क्योंकि वह प्रभु येसु के मुक्ति कार्य को जारी रखती है। वह विश्व भर में फैली हुयी है तथा दुनिया भर के लोगों को वह प्रभु का सुसमाचार सुनाती है। कलीसिया के सार्वत्रिक होने का केवल यह मतलब नहीं कि वह विश्वव्यापी है। बल्कि यह भी है कि संसार भर में बिखरे हुये होने पर भी कलीसिया के सभी सदस्य एक दूसरे से जुड़े रहते हैं, एक दूसरे की सेवा करते हैं, एक दूसरे के प्रति संवेदनशील रहते हैं। इस बात को दर्शाते हुये संत पौलुस कहते हैं, ’’षरीर में फूट उत्पन्न न हो, बल्कि उसके सभी अंग एक-दूसरे का ध्यान रखें। यदि एक अंग को पीड़ा होती है तो, उसके साथ सभी अंगों को पीड़ा होती है और यदि एक अंग का सम्मान किया जाता है, तो उसके साथ सभी अंग आनन्द मनाते हैं’’। (1 कुरिन्थियों 12:25-26) सन्त पौलुस येरूसालेम के गरीब विश्वासियों के लिए चन्दा इकट्ठा करते थे। (देखिए 2 कुरिन्थियों 8:4)

व्यावहारिक रूप से इस कलीसियाई विशेषता को भली भांति समझते हुए हमें इस दुनिया के सभी कलीसियाई सदस्यों के प्रति प्रेम की भावना को अपनाना चाहिये, अत्याचार सहने वालों को उनके विश्वास में स्थिर रहने के लिये मदद करना चाहिये। हमें दलगत मानसिकता से ऊपर उठकर सभी विश्वासियों का ख्याल करना चाहिये और जहाँ कहीं भी सहायता तथा प्रोत्साहन की ज़रूरत महसूस होती है वहाँ भेदभाव के बिना अपना योगदान देना चाहिये।

कलीसिया की प्रेरितिकता
प्रभु येसु ने ईश्वर के राज्य की घोषणा करते समय बारह प्रेरितों को चुनकर उन्हें दूसरों को स्वर्गराज्य के बारे में प्रामाणिक शिक्षा प्रदान करने का अधिकार दिया। प्रभु ने उन्हें ’अनुमति देने’ तथा ’निषेध करने’ का अधिकार दिया। (देखिये मत्ती 18:18) प्रभु ने उन्हें कलीसियाई समुदायों की अगुवायी करने तथा विश्वासियों को मार्गदर्शन देने का कार्य सौंपा। प्रेरित वे थे जो प्रभु के बुलावे को स्वीकार करते हुये, उनके साथ रहने, उनके वचन सुनने तथा उनका प्यार पाने वाले थे। पुराने विधान में हम देखते हैं कि याकूब के बारह पुत्रों से इस्राएल के बारह वंष उत्पन्न हुये। कलीसिया रूपी नये इस्राएल के अगुवे भी बारह थे। उनमें से एक यूदस ने प्रभु येसु के साथ विश्वासघात कर प्रभु के चेलों की संगति को छोड़कर आत्महत्या कर ली (देखिये प्रेरित-चरित 1 15:19)। बारह प्रेरितों को यह महसूस हो रहा था कि ईश्वर की योजना के तहत कोई दूसरा यूदस का ’पद ग्रहण करे’ (प्रेरित-चरित 1:20) प्रेरितों ने इसके लिये लोगों से एक ऐसे व्यक्ति का, ’जो योहन के बपतिस्मा से लेकर प्रभु के स्वर्गारोहण तक’ उनके साथ थे, चयन करने को कहा ताकि वह शिष्यों के साथ मिलकर प्रभु के पुनरूत्थान का साक्षी बने।

इन बातों से हमें यह ज्ञात होता है कि ईश्वरीय योजना के तहत ही प्रभु येसु ने बारहों को चुना था तथा बाद में शिष्यों ने लोगों से यूदस की जगह पर एक दूसरे व्यक्ति को चुनने का आग्रह किया। शिष्यों ने अपनी मृत्यु के पूर्व प्रेरितिक कार्य को जारी रखने के लिये अपने उत्तराधिकारियों को नियुक्त किया। उस समय से लेकर वर्तमान समय तक कलीसिया में प्रामणिक शिक्षा प्रदान करने वाले नियुक्त किये जाते हैं तथा इन्हें पवित्र आत्मा की प्रेरणा प्राप्त है। संत पापा, धर्माध्यक्ष तथा पुरोहितगण इस कार्य को कलीसिया में जारी रखते हैं। प्रामाणिक शिक्षा देने वाले धर्माधिकारियों की बातों को मानना तथा उनके मार्गदर्शन पर चलना विश्वासियों का कर्त्तव्य बनता है। बाइबिल प्रभु का वचन है। लेकिन इस वचन को ठीक रीति से समझना तथा उसका सही अर्थ निकालना हमेशा सरल नहीं है। ऐसे अवसरों पर कलीसिया के अधिकारी आधिकारिक ढंग से इस विषय पर शिक्षा देते हैं ताकि कलीसिया प्रभु के बताये हुये मार्ग पर ही चले। समय के चिह्नों को पहचानते हुये कलीसियाई अधिकारी विश्वासियों को ईशवरीय योजना को पहचानने तथा उसको कार्यान्वित करने के लिये सहयोग प्रदान करने में विश्वासियों की मदद करते हैं।

कलीसिया की प्रेरितिकता का यह तात्पर्य है कि जो विश्वास प्रेरितों ने प्रभु येसु से स्वीकार किया था, उसी विश्वास को पवित्र आत्मा की सहायता से हम कलीसिया में आज भी बनाये रखें। ईश्वर ही समय-समय पर अपनी कलीेसिया के सदस्यों को अपने चुने हुओं के द्वारा मार्गदर्शन देते रहते हैं।

काथलिक कलीसिया इन चार अंकों को महत्वपूर्ण मानती हैं तथा इन चिह्नों को बनाये रखने का प्रयत्न करती है। सन्त पौलुस ने तिमथि को जो आदेश दिया था, वह हम सबों के लिए भी सार्थक है, ’’जो प्रामाणिक शिक्षा तुम को मुझ से मिली, उसे अपना मापदण्ड मान लो और ईसा मसीह के प्रति विश्वास तथा प्रेम में दृढ़ बने रहो। जो निधि तुम्हें सौंपी गयी, उसे हम में निवास करने वाले पवित्र आत्मा की सहायता से सुरक्षित रखो।’’ (2 तिमथी 1:13-14)


प्रश्न;
1. कलीसिया के चार अंक कौन-कौन से हैं?
2. कलीसिया की एकता पर प्रकाश डालिए?
3. ’’ख्रीस्तीय बनने की बुलाहट पवित्र बनने की बुलाहट है’’ - इस कथन का अर्थ समझाइए?
4. कलीसिया की सार्वत्रिकता का क्या मतलब है?
5. कलीसिया की प्रेरितिकता का अर्थ समझाइए?

चर्चा कीजिए

1. वर्तमान की स्थानीय कलीसिया में कलीसिया के चार अंक किस प्रकार प्रकट होते हैं?


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