प्रभु येसु का सुसमाचार प्रेम और एकता का सुसमाचार है। उन्होंने भाईचारे, मिलनसारता तथा सहनशीलता का पाठ पढ़ाया। उन्होंने अपने शिष्यों को एक-दूसरे को क्षमा करने की शिक्षा दी। यहाँ तक कि उन्होंने पेत्रुस को सत्तर गुना सात बार तक क्षमा करने की सलाह दी (देखिए मत्ती 18:22)। फिर भी सुसमाचार यह दर्शाता है कि प्रभु येसु के चेले कई अवसरों पर आपस में वाद-विवाद करते थे। सन्त मारकुस 9:34 के अनुसार उन्होंने ’’रास्ते में इस पर वाद-विवाद किया था कि हम में सब से बडा कौन है’’। पुनः यही बात हम लूकस 9:46 एवं 22:24 में भी पाते हैं। उन अवसरों पर येसु ने उन्हें विनम्र बनने, दूसरों की सेवा करने तथा बच्चों जैसे बनने की सलाह दी। येसु ने अपने शिष्यों की एकता तथा कलीसिया की एकता के लिए प्रार्थना भी की थी (योहन 17:21)। उनकी इच्छा है कि सब एक बने रहे।
ख्रीस्तीय कलीसिया में विभिन्न मुद्दों तथा विषयों पर वैचारिक तथा व्यावहारिक मतभेद रहा है। प्रेरित-चरित, अध्याय 15 में खतना करने की ज़रूरत पर वाद-विवाद का विवरण है। (पढ़िये प्रेरित-चरित 15:1-2) कुछ लोगों ने चाहा कि गैर-यहूदी ख्रीस्तीय विश्वास को अपनाते समय यहूदियों की प्रथा के अनुसार अपना ख़तना करायें। लेकिन पौलुस एवं बरनाबस इससे सहमत नहीं थे। इसलिये दोनों पक्षों के लोग प्रेरितों तथा अध्यक्षों से परामर्श करते हैं। प्रेरित एवं अध्यक्ष इस समस्या पर विचार करने के लिए एकत्र हुये। उन्होंने इस मुद्वे पर ईश्वर की इच्छा की खोज की। घटनाक्रम के अंत में वे एकमत होकर पवित्र आत्मा की प्रेरणा से यह निर्णय लेते हैं कि जो गैर-यहूदी ईश्वर की ओर अभिमुख होते हैं, उन पर अनावष्यक भार न डाला जाये। येरुसालेम में हुई यह सभा कलीसिया की प्रथम महासभा थी।
सन्त पौलुस गलातियों के नाम अपने पत्र 2:11 में कहते हैं, ’’जब कैफ़स अन्ताखिया आये, तो मैंने उनके मुँह पर उनका विरोध किया, क्योंकि वह गलत रास्ते पर थे।’’ लेकिन विचारधाराओं में अन्तर होने के बावजूद भी कलीसियाई नेताओं तथा अधिकारियों ने एक साथ मिलकर विनम्रता के साथ हमेशा प्रभु ईश्वर की इच्छा की खोज की। ईश्वर ने जो कुछ भी उन पर प्रकट किया उस पर मिल कर चलने के लिए सभी पक्षों ने निर्णय लिया।
पष्चिमी और पूर्वी कलीसियाओं के बीच विभाजन तथा प्रोटेस्टेन्ट आन्दोलन से संबंधित समस्याएं हमें यह बताती है कि प्रभु येसु ख्रीस्त के शिष्यों की सामाजिक जीवन शैली में कुछ त्रुटियाँ ज़रूर हुई हैं। काथलिक कलीसिया अपने इतिहास में इक्कीस सामान्य महासभाओं को मान्यता देती है। पूर्व की कलीसियाएं इनमें से दो, तीन, ज्यादा से ज्यादा सात महासभाओं को ही वैध मानती हैं। द्वितीय वतिकान महासभा के बाद, विशेषकर हाल के वर्षों में पष्चिमी और पूर्वी कलीसियाओं के बीच के सम्बन्धों में काफी सुधार हुआ है। नवम्बर 1994 में संत पापा योहन पौलुस द्वितीय और असीरिया के प्राधिमहाधर्माध्यक्ष मार दिनख़ा चतुर्थ ने मिलकर एक संयुक्त दस्तावेज पर हस्ताक्षर किये जिसमें दोनों कलीसियाओं ने अपने विश्वास सम्बंधित परिभाषीय मतभेदों को भूलकर एक-दूसरे की विश्वास सम्बंधित परिभाषीय अभिव्यक्तियों को स्वीकारने का निर्णय लिया।
हाल के वर्षों में विभिन्न कलीसियाई समुदायों में आपसी एकता की ज़रूरत बढ़ते तौर पर महसूस की जा रही है। सन् 1910 में अमेरिका तथा यूरोप की प्रमुख प्रोटेस्टेन्ट और एंग्लिकन कलीसियाओं के करीब 1200 प्रतिनिधियों ने स्कॉटलेन्ड के एडिनबर्ग में एकत्र होकर औपचारिक रूप से प्रोटेस्टेन्ट सर्वभौमिक आन्दोलन (Ecumenical Movement) की शुरुआत की। करीब चार दषक उपरान्त प्रोटेस्टेंट कलीसियाओं की ओर से सन् 1948 में कलीसियाओं की विश्व परिषद (World Council of Churches) की स्थापना हुई।
काथलिक कलीसिया के लिये द्वितीय वतिकान महासभा के दस्तावेज उनितातिस रेदिन्तेग्रासियों (Unitatis Redintegratio लातीनी: एकता की पुनः स्थापना) ने सभी कलीसियाओं के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाते हुए अन्य कलीसियाई समुदायों के साथ सद्भावना की वकालत की। अन्य कलीसियाई समुदायों के साथ संवाद करने की चेष्ठा के बीच भी काथलिक कलीसिया यूखारिस्त में प्रभु येसु की वास्तविक उपस्थिति, समस्त कलीसिया पर संत पापा का अधिकार, कलीसिया में माता मरियम का विशेष स्थान जैसे महत्वपूर्ण तत्वों को अनिवार्य मानती है।
कलीसियाओं की विश्व परिषद के ’’विश्वास तथा व्यवस्था आयोग’’ (Faith and Order Commission) ने 1982 में कलीसियाओं का एक संयुक्त दस्तावेज तैयार किया जिसका शीर्षक, ’’बपतिस्मा, यूखारिस्त एवं पुरोहिताई’’ (Baptism, Eucharist and Ministry) था। पेरू देश के लीमा शहर में विभिन्न कलीसियाओं के प्रतिनिधियों के रूप में सम्मिलित एक सौ से ज्यादा ईश-शास्त्रियों (जिसमें काथलिक ईश-षास्त्री भी शामिल थे) की सहमति से ही इस दस्तावेज को पारित किया गया था। इस दस्तावेज में इन तीनों संस्कारों के बारे में काफी हद तक ईश-षास्त्रीय सहमति हो चुकी है। दुनिया का हरेक व्यक्ति भिन्न है। यह बात विश्वासियों पर भी लागू है। हरेक का अपने सोचने-समझने तथा प्रकट करने का ढंग है। इसी कारण समाज में विविधता है। लेकिन यह भी सच है कि इस प्रकार की विविधता के कारण ही संसार इतना सुन्दर दिखाई देता है। जो विविधता विश्वास के सत्यों की गहराई को दर्शाती है, वह प्रषंसनीय तथा प्रोत्साहन योग्य है। इस सम्बन्ध में हम यह देखते हैं कि कलीसिया में विभिन्न प्रकार की विचारधाराएं तथा धर्मविधियाँ हैं। लेकिन इन सब की नींव विश्वास है जो प्रभु येसु में पूर्ण हुई प्रकाशना पर आधारित है। इसी कारण विश्वास के सत्यों में ख्रीस्तीय विश्वासियों को एकता महसूस करना चाहिए। साथ-साथ विश्वास को अपनी-अपनी संस्कृति और सामाजिक परंपरा के अनुसार अपनी-अपनी भाषा शैली में तथा अपने-अपने ढंग से व्यक्त करना तथा उसके मुताबित धर्मविधियों को रूप देना कलीसिया की प्रगति के लिए आवश्यक है। इस प्रकार प्रगति करते समय सच्चे विश्वास के किसी भी पहलू को त्यागना दुख की बात होगी। क्योंकि ऐसा कार्य कलीसिया को अपनी वास्तविकता से अलग कर देता है। ऐसी विषम परिस्थितियों में कलीसिया का यह रवैया रहा है कि कलीसियाई अधिकारी तथा नेता मिलकर ईश्वर की इच्छा को खोज निकाले। इसके फलस्वरूप इतिहास में हम इक्कीस कलीसियाई महासभाओं का विवरण देखते हैं। इन महासभाओं में विभिन्न बातों पर विचार-विमर्श, वाद-विवाद, तर्क-वितर्क, चर्चा, आदान-प्रदान और मनन-चिंतन के जरिये रूपरेखाओं तथा योजनाओं को रूप दिया गया।
कलीसियाई इतिहास में हम देखते हैं कि पूर्व और पश्चिम के बीच तथा काथलिक तथा प्रोटेस्टेन्ट समुदायों के बीच भी विभाजन हुआ। एंगलिकन कलीसिया की शुरुआत भी एक दर्दनाक घटना थी। वास्तव में इस तरह का विभाजन कलीसियाई मूल तत्वों के खिलाफ है।
ख्रीस्तीय विश्वासियों की एकता के लिए प्रभु येसु ने ही प्रार्थना की थी। जहाँ-जहाँ ख्रीस्यीय विश्वासी एकता के साथ एकत्र होते हैं वहाँ वहाँ प्रभु येसु स्वयं उनके बीच में रहने आते हैं। यह एकता प्रभु की उपस्थिति की शर्त है। द्वितीय वतिकान महासभा के नोस्त्रा एताते (Nostra Aetate लातीनी: हमारे युग में) नामक दस्तावेज में अन्य धर्मों के प्रति कलीसिया का रवैया प्रकट होता है। इस दस्तावेज की शुरुआत में ही यह बताया गया है कि सारी मानव जाति का स्रोत एक ही है और उनका लक्ष्य भी। विभिन्न धर्मों में ’अनंत सवालों’ के अपने-अपने हिसाब से जवाब देने की कोशिश की गयी है। अन्य धर्मों में जो कुछ भी सच्चा, भव्य एवं पवित्र है, कलीसिया उन सबका आदर करती है। वह अपने सदस्यों को सभी धर्मों के साथ आदर सम्मान का व्यवहार करना सिखाती है। यह दस्तावेज यह भी स्वीकार करता है कि ईसाई धर्म इस्लाम धर्म को सम्मान की भावना से देखता है तथा दोनों धर्म अपनी परमपरागत धार्मिक विरासत में कुछ हद तक एकता महसूस करते हैं, जैसे ईश्वर का एकत्व, ईश्वर द्वारा स्वर्ग और पृथ्वी की सृष्टि, ईश्वर की सर्वषक्तिसम्पन्नता तथा उनकी दयालुता। इस्लाम इब्राहिम तथा मरियम को आदर के साथ प्रस्तुत करता है तथा येसु को विशेष सम्मान देता है। द्वितीय वतिकान महासभा ने काथलिकों तथा मुसलमानों से यह आग्रह किया है वे अपनी-अपनी विभिन्नताओं तथा मतभेदों को भूलकर आपसी समझौते तथा भलाई के लिए एकजुट होकर काम करे।
कलीसिया यह भी महसूस करती है कि ख्रीस्तीयों का यहूदियों के साथ एक अनोखा रिष्ता है। हालाँकि कुछ यहूदी अधिकारियों एवं उनके अनुगामियों ने मिलकर येसु का वध किया था फिर भी इसका दोष सभी यहूदियों पर लगाना सरासर गलत होगा। हाल के वर्षों में संत पापा योहन पौलुस द्वितीय एवं पापा बेनेडिक्ट सौलहवें की इस्राएल यात्रा यहूदियों के प्रति काथलिक कलीसिया की ओर से एक अच्छे संकेत के रूप में देखी जानी चाहिए। द्वितीय वतिकान के नये दृष्टिकोण को लागू करने हेतु 1964 में संत पापा पौलुस छठवें ने गैर-ख्रीस्तीयों के सचिवालय की स्थापना की। सन् 1988 में इसका नाम बदल कर परमधर्माध्यक्षीय अंतरधर्मीय संवाद परिषद (Pontifical Council for Interreligious Diologue) रखा गया। यह परिषद समय-समय पर विश्वासियों को अन्य धर्मावलम्बियों के साथ अच्छे सम्बंध तथा सहयोग बनाये रखने का मार्गदर्शन देती रहती है। इस सभा का मुख्य उद्देश्य कलीसिया तथा अन्य धर्मों के बीच परस्पर आदर तथा सहयोग बढाना, धार्मिक अध्ययन को प्रोत्साहन देना तथा संवाद के प्रति समर्पित लोगों को प्रशिक्षण देना आदि है। संवाद दो मार्गीय संचार है जिसमें आपसी भलाई के लिए बोलना और सुनना, समझना और समझाना निहित है। सन् 1987 में संत पापा योहन पौलुस द्वितीय ने इस सभा की एक बैठक में कहा कि काथलिक कलीसिया संवाद तथा सुसमाचारीय प्रचार-प्रसार दोनों के लिए समर्पित है। इस कारण विषम परिस्थितियों में भी कलीसिया सुसमाचार सुनाने के अपने दायित्व की अनदेखी नहीं कर सकती। अंतर-धर्मीय संवाद तथा सुसमाचार के प्रचार-प्रसार के बीच में संतुलन बनाये रखना ख्रीस्तीय विश्वासियों के लिये अनिवार्य है। काथलिक कलीसिया विभिन्न कलीसियाई समुदायों तथा सम्प्रदायों के बीच सद्भावना को बढ़ावा देती है। सन् 1995 में संत पापा योहन पौलुस द्वितीय ने अपने विश्व-पत्र ’उत उनुम सिन्त’ (Ut Unum Sint लातीनी: वे एक हो जायें) में अंतरधर्मीय संवाद को प्राथमिकता दी है। संत पापा के अनुसार एकता की ज़रूरत महत्वपूर्ण एवं अत्यावष्यक है।
संत पापा बेनेडिक्ट सौहलवें ने अंतर-कलीसियाई संवाद को वर्तमान कलीसिया की एक प्राथमिकता मानते हैं। काथलिक कलीसिया में पापा पीयुस दसवें के समय से लेकर हर साल 18 जनवरी से 25 जनवरी तक एकता का अठवारा (Unity Octave) मनाया जाता है। इसके अंतगर्त दुनिया के समस्त ख्रीस्त विश्वासियों की एकता के लिये प्रार्थना की जाती है। समस्त एकता का स्रोत ईश्वर ही हमें एक बना सकते हैं। इसी कारण एकता के लिए येसु से और येसु के साथ मिलकर प्रार्थना करना बहुत ही ज़रूरी है।
प्रश्न:
1. प्रेरित-चरित के अनुसार प्रभु के शिष्य अपने आपसी मतभेदों को किस प्रकार सुलझाते थे?
2. येरूसालेम की महासभा के विचार-विमर्श की विषय-वस्तु क्या थी? प्रेरितो ने क्या निर्णय लिया?
3. हाल के वर्षों में ख्रीस्तीय एकता में क्या प्रगति हुई है?
4. ख्रीस्तीयों में एकता लाने हेतु द्वितीय वतिकान महासभा ने क्या प्रयास किया?
5. इस्लाम तथा यहूदी धर्मों के प्रति कलीसिया के दृष्टिकोण पर प्रकाश डालिये।
6. ख्रीस्तीय एकता के लिये विभिन्न संत पापाओं द्वारा किये गये कार्यों का उल्लेख किजिए।
7. एकता का अठवारा (Unity Octave) कब और क्यों मनाया जाता है?
अभ्यास:
1. आपके शहर या गाँव में किन-किन ख्रीस्तीय समुदायों के सदस्य रहते है?
2. एकता के अठवारे के लिए 10 वाक्यों की एक प्रार्थना लिखिए?