काथलिक धर्मशिक्षा

कलीसिया में लोकधर्मियों की भूमिका

द्वितीय वतिकान महासभा के दस्तावेजों में कलीसिया को ’’ईश्वर की प्रजा’’ पुकारा जाता है। कलीसिया ईश्वर द्वारा बुलाये गये, ईश्वर के संरक्षण तथा मार्गदर्शन पाने वाले विश्वासियों का समुदाय है। ईश्वर की प्रजा न केवल लोकधर्मियों का समुदाय है, बल्कि लोकधर्मी, धर्मसंघीय भाई-बहन, पुरोहित, धर्माध्यक्ष तथा संत पापा मिलकर ईश्वर की प्रजा बनते हैं। ईश्वर की प्रजा में कुछ लोग अन्य लोगों को ईश्वर की राह पर चलने के लिये मार्गदर्शन देने तथा प्रेरित करने हेतु बुलाये गये हैं। कलीसिया में मार्गदर्शन का स्रोत स्वयं प्रभु येसु है।

सम्पूर्ण कलीसिया प्रभु येसु ख्रीस्त के रहस्य की सहभागी है। कलीसिया के सभी सदस्य प्रभु येसु के अनन्त पुरोहिताई के सहभागी हैं। बपतिस्मा द्वारा अनन्त प्रधानाचार्य (Eternal High Priest), प्रभु येसु ख्रीस्त अपनी पुरोहिताई में कलीसिया के सभी सदस्यों को सहभागी बनाते हैं। कलीसिया में दो प्रकार की पुरोहिताई लागू है। याजकीय पुरोहिताई (Ministrial Priesthood) तथा सार्वजनिक पुरोहिताई (Common Priesthood)। हर बपतिस्मा प्राप्त विश्वासी प्रभु येसु ख्रीस्त की सार्वजनिक पुरोहिताई में सहभागी बनता है। पुरोहिताभिषेक द्वारा कलीसिया के कुछ सदस्यों को याजकीय पुरोहिताई में सहभागी बना दिया जाता है। याजकीय पुरोहिताई कलीसिया में विशेष सेवा के लिये बुलाहट है। याजकीय पुरोहिताई प्रेरितिक वरिष्ठताक्रम (Apostolic Successesion) पर आधारित है तथा यह पुरोहितों को प्रभु येसु ख्रीस्त, कलीसिया के शीर्ष के नाम पर कार्य करने का अधिकार प्रदान करती है। यह कलीसिया में कुछ लोगों को प्रामाणिक शिक्षा प्रदान करने का अधिकार भी प्रदान करती है। यह याजकीय पुरोहिताई सार्वजनिक पुरोहिताई की सेवा के लिये प्रतिष्ठित है। कलीसिया में याजकीय पुरोहिताई तथा सार्वजनिक पुरोहिताई के बीच सहयोग तथा सहभागिता की भावना को बढ़ावा देना आवश्यक है। समस्त कलीसिया प्रभु येसु ख्रीस्त की याजकीय, राजकीय तथा नबीय पुरोहिताई के सहभागी है।

द्वितीय वतिकान महासभा के पहल की विचारधारा के अनुसार वरिष्ठताक्रम के सूचीस्तम्भ की बात हाती थी। इस सूचीस्तम्भ के अनुसार लोकधर्मी को कलीसिया में सबसे कम महत्व दिया जाता था। लेकिन द्वितीय वतिकान महासभा ने कलीसिया के सभी सदस्यों को समान आदर देने तथा सभी लोगों को समान महत्व देने पर जोर दिया। इस सभा की शिक्षा के अनुसार सन्त पापा, पुरोहित और लोकधर्मी अलग-अलग भूमिका निभाते तथा विभिन्न प्रकार के उत्तरदायित्व लेते हैं, लेकिन सभी को बपतिस्मा के द्वारा समान प्रतिष्ठा दी गयी है। इसी कारण कलीसिया में याजकवर्ग तथा लोकधर्मी के बीच में कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए। द्वितीय वतिकान महासभा ने इस सन्दर्भ में एक सहभागी कलीसिया की शिक्षा दी जिसके अनुसार कलीसिया के सभी सदस्य मिलकर प्रभु येसु का शरीर तथा पवित्र आत्मा का मन्दिर बनते हैं। वे मिलकर सुसमाचार के साक्षी बनते हैं। द्वितीय वतिकान महासभा के कलीसिया सम्बन्धी दस्तावेज (5) कहता है, ’’लोकधर्मी अपने ही तरीके से ख्रीस्त के याजकीय, राजकीय एवं नबीय भूमिकाओं के सहभागी बनते हैं; सभी विश्वासी कलीसिया तथा विश्व के सभी ख्रीस्तीय मिशन कार्य जारी रखते हैं।’’ 1983 के कलीसियाई कानून (208) के अनुसार समस्त ख्रीस्तीय अनुयायी अपनी योग्यता एवं परिस्थिति के अनुसार कलीसिया के निर्माण में योगदान देते हैं।

साधारण विश्वासियों की जिम्मेदारी रविवार के मिस्सा बलिदान में भाग लेने तक ही सीमित रखना बहुत ही संकुचित विचारधारा को दर्शाता है। विश्वास को हर दिन, हर पल क्रियात्मक रखना ज़रूरी है। ख्रीस्तीय विश्वासी न केवल धर्मविधियों में भाग लेते समय अपने विश्वास का साक्ष्य देता है, बल्कि उसे अपने कार्यस्थल तथा परिवार के वातावरण में अपने विश्वास को जीना चाहिये। एक विश्वासी की बुलाहट उसे अपनी दिनचर्या तथा दैनिक कार्यकलापों में ख्रीस्तीय मूल्यों तथा शिक्षा को महत्व देने की चुनौती देती है। ख्रीस्तीय जीवन पैरिष केम्पस तक ही सीमित नहीं है। ख्रीस्तीय जीवन, घरों, दफ्तरों, स्कूलों, बाज़ारों, गाँव-षहरों, गलियों तथा मोहल्लों में बिताया जाता है। वहाँ वास्तविक परिस्थितियों में विश्वासी को अपने विश्वास को जीना पड़ता है। इन सब के बीच उसे विभिन्न प्रकार की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। भ्रष्टाचार के विरूद्ध काम करना पड़ता है। बुरे मार्गों से उसे दूर रहना पड़ता है। बुरी संगतियों से उसे सर्तक रहना पड़ता है। बुरी आदतों से उसे बचे रहना पड़ता है। सभी प्रकार की सामाजिक तथा व्यक्तिगत बुराईयों से उसे परहेज रखना पड़ता है। उसे दुःख-संकट में पड़े लोगों को येसु कीसांत्वना का, कलंकित समाज को येसु की निर्मलता का, डरे-सहमें लोगों को येसु की शक्ति का, अत्याचार से पीड़ित लोगों को येसु के धैर्य का, हताष व्यक्तियों को येसु की आशा का तथा पीड़ितों को येसु की दिलासा का अनुभव कराना पड़ता है। उसे हमेशा यह याद रखना चाहिये की उसका लक्ष्य न केवल स्वर्ग पहुँचना है बल्कि अपने जीवन क्षेत्र में रहने वाले सभी लोगों को स्वर्ग पहुँचाना भी है। इस कर्त्तव्य को निभाते समय उसे कलीसिया के याजक वर्ग से प्रमाणिक शिक्षा तथा मार्गदर्शन प्राप्त होते हैं। रविवारीय मिस्सा बलिदान उसका जीवन-स्रोत बनता है। बाइबिल के पवित्र वचन उसके पैरों के लिये उजाला बनते है।

लोकधर्मियों को यह हमेशा याद रखना चाहिये कि उन्हें पृथ्वी का नमक तथा संसार की ज्योति बनकर जीवन बिताना है। राजनैतिक तथा सामाजिक क्षेत्रों में लोकधर्मियों का योगदान बहुत ही महत्वपूर्ण माना जाता हैं। सभी भले व्यक्तियों के साथ मिलकर समाज की सभी बुराईयों को जड़ से उखाड़ना उसका लक्ष्य होना चाहिये। अन्याय के खिलाफ अपनी लड़ाई में उन्हें सभी मनुष्यों को समान आदर तथा गरिमा दिलाने हेतु प्रयत्न करना चाहिये। पीड़ित निराश्रितों पर उन्हें विशेष ध्यान देना चाहिये। स्वर्गीय पिता जैसे दयालु बनने की चुनौती को उन्हें वास्तविक जीवन क्षेत्र में स्वीकारना होगा।

लोकधर्मियों के लिये पारिवारिक जीवन चुनौतीपूर्ण साबित होता है। ईश्वर की दस आज्ञाओं तथा कलीसिया के छः नियमों को उन्हें उस कर्मक्षेत्र में जीना पड़ता है। अपने माता-पिता, भाई-बहन तथा बेटे-बेटियों के साथ जीवन बिताते समय कई बार उसे अपने ही में एक प्रकार का संघर्ष का सामना करना पड़ता है। दुनियावी चीज़ों का प्रलोभन तथा अनैतिक सिद्धांतों का आकर्षण आदि उसके लिये परेषानी का कारण बनता है। दूसरों के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को निभाना हमेशा आसान नहीं होता है। परिवार कई बार मुसीबतों तथा संकटों से गुजरता है। इन अवसरों पर धीरज धारण करना उसके लिये ज़रूरी होता है। ऐसे अवसरों पर अपने विश्वास पर अटल रहकर उसे साक्ष्य देना पड़ता है। कभी-कभी यह साक्ष्य उसे दुःख भी देता है। अपने दैनिक जीवन का क्रूस लेकर अपने पीछे-पीछे आने का प्रभु येसु ख्रीस्त का आह्वान उसे हर दिन बार-बार सुनना पड़ता है। लेकिन साथ-साथ उसे प्रभु की वह आवाज भी साफ सुनाई देगी, जो कहती है, ’’थके-मांदे और बोझ से दबे हुये लोगों तुम सब मेरे पास आओ, मैं तुम्हें विश्राम दूँगा’’ (मत्ती 11:28)। प्रभु का यह कथन कि मैं तुम्हें अनाथ नहीं छोडूँगा (देखिए योहन 14:18) उसके लिये प्रेरणा स्रोत बनकर रह जाता है। प्रभु का यह आश्वासन कि संसार के अंत तक मैं तुम्हारे साथ रहूँगा (देखिए मत्ती 28:20) उसके लिये सांत्वनादायक सिद्ध होता है। ’’मार्ग, सत्य और जीवन मैं हूँ’’ कहकर हमारी आशा बढ़ाने वाले प्रभु की ओर नज़र डालकर उसे अपने जीवन पथ के लिये दैनिक आहार खोजते रहना चाहिये।

इस दुनिया में इस प्रकार का जीवन बिताते समय वह अकेला नहीं है। ख्रीस्तीय जीवन अकेलापन का जीवन नहीं है। वह ख्रीस्तीय समुदाय से जुड़ा हुआ जीवन है। ख्रीस्तीय विश्वासी को हमेशा अपने पड़ोसी, विशेषतः ज़रूरतमंदो का ख्याल करना ज़रूरी होता है। ज़रूरतमंदों के लिये अपना समय और संसाधन व्यतीत करना ख्रीस्तीय बुलाहट का ही अंग है। वह कभी भी दीन-दुःखियों से मुँह नहीं मोड़ सकता, पीड़ितो के रोदन के सामने बहरा नहीं रह सकता। इसके साथ-साथ अपने आस-पडोस के विश्वासी भाई-बहनों के साथ मिलकर ही वह कलीसिया रूपी प्रभु का शरीर बन सकता है। उसे यह हमेशा याद रखना चाहिये कि ईश्वर उसे उसके समुदाय में ही मुक्ति प्रदान करते हैं। उस समुदाय के लोगों से उसकी आशा को प्रबलता, उसके विश्वास को मज़बूती तथा उसके प्रेम को सरलता प्राप्त होती है। उसके व्यवहार तथा विचारधारा का प्रभाव समाज के लोगों पर अवश्य पड़ता है।

अपनी पल्ली में भी उसे अपनी जिम्मेदारियाँ निभानी पड़ती है। रविवारीय मिस्सा बलिदान में नियमित तथा सक्रिय रूप से भाग लेने से उसे दूसरों के साथ मिलकर प्रभु के जीवित शरीर बनने का अहसास होता है। अपनी क्षमता तथा प्रतिभा के अनुसार पल्ली की गतिविधियों में अपना अमूल्य योगदान देना अनिवार्य है। उसे प्रभु की वास्तविक बुलाहट को हर पल परखने के लिये सचेत तथा सतर्क रहना पड़ता है। पल्ली पुरोहित तथा पल्ली परिषद के साथ मिलकर पूरे पल्ली समुदाय को सक्रिय बनाने में हरेक विश्वासी को अपनी भूमिका निभानी चाहिये। समय-समय पर आयोजित आध्यात्मिक साधनाओं के अवसरों तथा प्रशिक्षण षिविरों का लाभ उठाकर उसे अपने विश्वास को मज़बूत बनाये रखना चाहिये। इसके अलावा उसे अपने परिवार के साथ मिलकर तथा व्यक्तिगत रूप से न केवल प्रार्थना करनी चाहिये, बल्कि पवित्र वचन को पढ़ने तथा उस पर मनन्-चिंतन करने के लिये समय निकालना भी चाहिये। उसे यह भी चाहिये कि नियमित रीति से आयोजित की जाने वाली लघु ख्रीस्तीय समुदायों की बैठकों में भाग लेकर एक-दूसरे को विश्वास में मज़बूत बनाने की प्रक्रिया में अपना योगदान दे। अगर उसे अवसर मिले तो धर्मप्रांतीय मेषपालिय परिषद (Diocesan Pastoral Council) या पैरिष मेषपालिय परिषद (Parish Pastoral Council) का सदस्य बनकर और अधिक सक्रियता से वह अपना योगदान दे सकता है।


प्रश्न:
1. याजकीय पुरोहिताई (Ministrial Priesthood) तथा सार्वजनिक पुरोहिताई (Common Priesthood) में क्या-क्या अन्तर और समानताएं हैं?
2. द्वितीय वतिकान महासभा के पूर्व प्रचलित वरिष्ठताक्रम का सूचीस्तम्भ में क्या कमी थी?
3. द्वितीय वतिकान ने लोकधर्मियों की भूमिका को क्यों महत्वपूर्ण माना है?
4. ख्रीस्तीय मूल्यों को जीने में लोकधर्मियों को किन-किन चुनौतियों का सामना करना पड़ता है?
5. लोकधर्मियों को समाज में क्या-क्या जिम्मेदारियाँ निभानी पडती है?

दलों में चर्चा कीजिए:
1. आपके पल्ली में कितने प्रतिशत लोकधर्मी सदस्य कलीसियाई कार्यों में सक्रिय रूप से सहयोग प्रदान करते हैं? एक विश्वासी होने के नाते इस संबन्ध में आपकी प्रतिक्रिया क्या है?
2. लोकधर्मियों की कम भागीदारी के क्या-क्या कारण हो सकते हैं?
3. हमारे पल्लियों तथा लघु ख्रीस्तीय समुदायों में लोकधर्मियों को सक्रिय बनाने के लिए हम क्या-क्या उपाय अपना सकते हैं?


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