प्रभु येसु के इस दुनिया में आने का लक्ष्य ही लोगों को सुसमाचार सुनाकर उनको ईश्वर की ओर अभिमुख कराना था। वे मुक्ति और शान्ति का सन्देश लेकर इस दुनिया में आये। सन्त मारकुस के सुसमाचार में हम पढ़ते हैं कि योहन बपतिस्ता के गिरफ़्तार हो जाने के बाद प्रभु येसु गलीलिया आये और यह कहते हुए ईश्वर के सुसमाचार का प्रचार करते रहे, ’’समय पूरा हो चुका है। ईश्वर का राज्य निकट आ गया है। पश्चाताप करो और सुसमाचार में विश्वास करो।’’ (मारकुस 1:14-15) ’स्वर्गराज्य’ ही प्रभु येसु के संदेश का सारांष था। संत मत्ती ’स्वर्गराज्य’ के बदले में ’ईशराज्य’ शब्द का प्रयोग करते है। स्वर्गराज्य या ईशराज्य से तात्पर्य यह है कि ईश्वर की इच्छा के अनुसार मनुष्य अपने जीवन को बिताता है तथा वह ईश्वर के अधिकार और मार्गदर्शन के लिए अपने आप को ईश्वर के अधीन करता है। स्वर्गराज्य की स्थापना का तात्पर्य ईश्वर की इच्छा का पूरा-पूरा पालन तथा ईश्वरीय मूल्यों के आधार पर अपना जीवन बिताना हैं। प्रभु का संदेश स्वर्गराज्य का संदेश था।
स्वर्गराज्य के संदेश को सार्थक तथा प्रभावशाली रीति से लोगों तक पहुँचाने के लिए उन्होंने प्रवचन दिये। अपने प्रवचनों में उन्होंने दृष्टांतों का उपयोग किया। दृष्टांत असाधारण तथा रहस्यमय बातों को प्रकट करने का माध्यम था। दृष्टांतों के द्वारा प्रभु येसु ने अदृश्य एवं निगूठतम बातों को अपने श्रोताओं के सामने बहुत ही साधारण शैली में प्रस्तुत किया। अपने दृष्टांतों में प्रभु ने अपने समय की परिस्थितियों तथा घटनाओं का जिक्र किया। इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रभु दृष्टांतों में बोने वाले, गडेरिये, अंजीर के पेड़, दाखबारी, विवाह-भोज आदि की बात करते हुए ईश्वरीय रहस्यों को प्रकट करते हैं। दृष्टांतों में हमें उस समय की राजनैतिक तथा सामाजिक परिस्थितियों का विवरण भी मिलता है। उदाहरण के लिए फरीसी, नाकेदार, राजा, मछुए, समारी, चरवाहे के व्यक्त्तिव पर भी प्रकाश डाला गया है। इन सब दैनिक जीवन की घटनाओं तथा पहलुओं को लेते हुए प्रभु स्वर्गराज्य के रहस्यों को सुनने वालों के लिए प्रकट करते हैं। इन दृष्टांतों के द्वारा प्रभु ने लोगों को यह समझाया कि विनम्र बनने से ही कोई भी व्यक्ति स्वर्गराज्य में महान बन सकता है। एक-दूसरे की सेवा करना, दोष नहीं लगाना, अपराधियों को क्षमा करना, शत्रुओं को प्यार करना, घमण्ड नहीं करना, अपनी सम्पत्ति को गरीबों में बांटना, दीन-दुखियों के प्रति संवेदनशील बनना, बच्चों जैसा बनना आदि स्वर्गराज्य के मूल्य हैं। प्रभु ने दृष्टांतों के अलावा अपने प्रवचनों में मुहावरों तथा कहावतों का भी इस्तेमाल किया। उदाहरण के लिए ’निरोगों को नहीं बल्कि रोगियों को वैद्य की ज़रूरत होती है।’
प्रभु ने जो प्रार्थना अपने शिष्यों को सिखायी उस में भी स्वर्गराज्य की शिक्षा हमें देखने को मिलती है। प्रभु ने स्वर्गराज्य के आगमन के लिए प्रार्थना करना सिखाया। इस प्रार्थना से यह भी प्रतीत होता है कि ईश्वर की इच्छा इस धरती पर लागू करना ही स्वर्गराज्य की स्थापना है। अपने चमत्कारों के द्वारा भी प्रभु ने स्वर्गराज्य की शक्ति को प्रकट किया। रोगियों को चंगा कर, मुर्दों को जिलाकर तथा भूखों को खिलाकर प्रभु ने यह दर्शाया कि ईश्वर सबकी भलाई चाहते हैं और स्वर्गराज्य ईश्वर के ’पूर्व-प्रबंध’ का वास्तविक अनुभव है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रभु ने अपने जीवन, सेवाकार्य तथा प्रवचन से लागों को स्वर्गराज्य का सुसमाचार सुनाया। प्रभु के जीवन में हम स्वर्गराज्य का शुभारंभ देखते हैं। प्रभु येसु की यह इच्छा थी उनके शिष्य स्वर्गराज्य के सुसमाचार फैलाने के इस कार्य को जारी रखे। इस मतलब के लिए उन्होंने कलीसिया की स्थापना की। उन्होंने बारह शिष्यों को चुनकर उन्हें स्वर्गराज्य के विशेष सन्देशवाहक बनाया। सन्त पौलुस अपने इस कर्तव्य को भली भाँति समझकर कहते हैं, ’’मैं इस पर गौरव नहीं करता कि मैं सुसमाचार का प्रचार करता हूँ। मुझे तो ऐसा करने का आदेश दिया गया है। धिक्कार मुझे, यदि मैं सुसमाचार का प्रचार न करूँ!’’ (1 कुरिन्थियों 9:16) उन्होंने दूसरों से भी सुसमाचार के प्रचारक बनने का आह्वान किया। वे तिमथी से कहते हैं, ’’तुम सब बातों में सन्तुलित बने रहो, धैर्य से कष्ट सहो, सुसमाचार के प्रचार में लगे रहो और अपने सेवा-कार्य के सब कर्तव्य पूरे करते जाओ।’’ (2 तिमथी 4:5)
मत्ती 28:18-20 में हम देखते हैं कि अपने स्वर्गारोहण के पहले अपने चेलों से विदा लेते समय प्रभु येसु ने अपने शिष्यों से कहा, ’’मुझे स्वर्ग में और पृथ्वी पर पूरा अधिकार मिला है। इसलिए तुम लोग जा कर सब राष्ट्रों को शिष्य बनाओ और उन्हें पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा के नाम पर बपतिस्मा दो। मैंने तुम्हें जो-जो आदेश दिये हैं, तुम-लोग उनका पालन करना उन्हें सिखलाओ और याद रखो- मैं संसार के अन्त तक सदा तुम्हारे साथ हूँ।’’ उन्होंने अपने चेलों को सुसमाचार की लगातार घोषणा करने के आदेश देने के साथ-साथ, उनके साथ दुनिया के अंत तक रहने का आश्वासन भी दिया। सुसमाचार का प्रचार करने वाले ईश्वर की आज्ञा का पालन करते हैं। प्रेरितों का यह विश्वास था कि ’’मनुष्यों की अपेक्षा ईश्वर की आज्ञा का पालन करना कहीं अधिक उचित है’’ (प्रेरित-चरित 5:29)।
प्रेरित-चरित में हम देखते हैं कि ख्रीस्तीय विश्वासियों ने इस जिम्मेदारी को भलीं-भांति समझते हुए अपने जीवन तथा शिक्षा के द्वारा सुसमाचार के प्रचार के कार्य को आगे बढ़ाया। ख्रीस्तीय समुदायों ने एकजुट होकर ख्रीस्त की शिक्षा का साक्ष्य दिया। प्रेरितों ने प्रामाणिक शिक्षा को बनाये रखने का हर संभव प्रयत्न किया। प्रेरित और उनके सहयोगियों ने जगह-जगह जाकर सुसमाचार का प्रचार किया और कई जगहों पर कलीसियाई समुदायों की स्थापना हुई। प्रेरितों ने नये समुदायों के कुछ लोगों को अगुवायी तथा प्रामाणिक शिक्षा बनाये रखने का दायित्व सौंपा। जहाँ-जहाँ कलीसिया को अत्याचार तथा उत्पीडन का सामना करना पडता था, वहाँ-वहाँ से प्रेरित, उनके सहयोगी तथा कभी साधारण विश्वासी लोग भी अपने गाँव या शहर को छोड़कर कर अन्य स्थानों पर जा बसते थे। ऐसी नयी जगहों पर उन्होंने सुसमाचार का प्रचार किया। फलस्वरूप उन जगहों पर भी कलीसिया की स्थापना हुई। इस प्रकार अत्याचार तथा उत्पीडन से भी अच्छे फल उत्पन्न हुये।
सुसमाचार खुशी तथा शांति का संदेश है। जो उसे ग्रहण करता है उसे उस खुशी तथा शांति को अपने या अपनों तक ही सीमित नहीं रखना चाहिये। बल्कि उसे दूसरों को भी प्रदान करना चाहिये। बांटने से खुशी या शांति घटती नहीं बल्कि बढ़ती है। संत योहन के सुसमाचार अध्याय चार में हम देखते है कि समारी स्त्री प्रभु येसु के संपर्क में आती है। प्रभु येसु एवं समारी स्त्री के बीच वार्तालाप यह दर्शाता है धीरे धीरे वह स्त्री येसु को पहचान लेती है। तत्पश्चात वह अपने गाँव के लोगों को भी प्रभु के बारे में बताती है तथा उन्हें प्रभु से मिलवाती है। समारिया के लोग प्रभु का अनुभव करते हैं और उनका अनुभव इतना पक्का हो जाता है कि वे उस स्त्री से कहने लगते हैं, ‘‘अब हम तुम्हारे कहने के कारण ही विश्वास नहीं करते। हमने स्वयं सुन लिया है और हम जान गये हैं कि वह सचमुच संसार के मुक्तिदाता हैं।’’(योहन 4:42) यह समारी स्त्री हमारे लिए एक नमूना है। हम में से हरेक व्यक्ति को चाहिये कि दूसरों को प्रभु के बारे में बताये तथा उन्हें प्रभु के सीधे सम्पर्क में लाये। हर ख्रीस्तीय विश्वासी को चाहिये कि वह अपने जीवन की हर परिस्थिति में प्रभु के सुसमाचार की घोषणा करे।
इतिहास में हम देखते हैं कि हर समय के ख्रीस्तीय विश्वासियों का यह मानना था कि स्वर्गराज्य के सुसमाचार का प्रचार हर एक विश्वासी का दायित्व है। यह कहना कि सुसमाचार का प्रचार करना मात्र पुरोहितों, धर्मबहनों तथा कुछ प्रचारकों का ही काम है संकुचित विचारधारा की अभिव्यक्ति ही माना जा सकता है। हरेक ख्रीस्तीय का यह दायित्व है कि वह ख्रीस्त के वचन को सुने, उस पर विश्वास करे, उसके अनुसार चले तथा उसे दूसरों के साथ बांटे। इसी को हम प्रेरितिक या मिशन कार्य कहते हैं।
हमें मालूम है कि सन् 52 में संत थॉमस भारत तक इसी कार्य के लिए आये थे। उन्होंने दक्षिण भारत में सुसमाचार का प्रचार किया। करीब बीस साल के सेवाकार्य के पश्चात् किसी धर्मविरोधी ने उन्हें भाले से मार डाला। सोलहवीं सदी से हमें यह देखने को मिलता है कि कलीसिया में सुसमाचार के बहुत ही प्रभावशाली प्रचारक उत्पन्न हुए। उन्होंने देश-विदेश में प्रभु की वाणी सुनाई तथा स्वर्गराज्य की स्थापना करने में अपना योगदान दिया।
सुसमाचार के सन्देशवाहक बनकर प्रभु येसु के चेलों ने बहुत-से महान कार्य किये। सन् 1542 में स्पेन से सन्त फ्रांसिस ज़ेवियर भारत आये और अपनी मुत्यु तक हमारे देशवासियों की सेवा की। सन् 1605 में रोबेर्तो डि नोबिली इटली से भारत आये और प्रभु की शिक्षा का प्रचार किया। सन् 1864 में फादर डामिएन अपनी मातृभूमि बेल्जियम छोडकर हावाई देश के मालोकोय द्वीप में कुष्ठरोगियों की सेवा करने हेतु पहुँचे और उनकी निस्वार्थ सेवा करते करते वे स्वयं कुष्ठरोगी बन गये। मदर तेरेसा प्रभु के सन्देश को लेकर सन् 1929 में अपनी मातृभूमि अलबेनिया छोडकर भारत आई और प्रभु के सन्देश को अपने व्यवहार, शिक्षा तथा जीवन द्वारा हमारे देशवासियों को देकर हमारे देश की जनता को बहुत प्रभावित किया। प्रभु येसु के प्रति प्यार से प्रेरित होकर, सभी लोगों में, विशेषकर लाचार तथा ज़रूरतमन्दों में उनका दर्शन कर उन्होंने हमारे देश के लोगों को प्रभु येसु के प्यार तथा शान्ति का सन्देश सुनाया। येसुसमाजी पुरोहित, फादर कामिल बुल्के बेल्जियम से सन् 1935 में भारत आये और हिन्दी भाषा तथा भारतीय संस्कृति की उन्नति के लिए हर संभव योगदान दिया। उन्होंने एक अंग्रेज़ी-हिन्दी शब्दकोश भी तैयार किया। इन महान मिशनरियों के अलावा ख्रीस्त के बहुत से चेले उनकी शिक्षा के प्रचार के लिए भारत सहित विभिन्न देशों में गये। भारत से बहुत से ख्रीस्तीय मिशनरी अन्य राष्ट्रों में भी जाकर प्रभु का सुसमाचार सुनाते आ रहे हैं।
सुसमाचार के प्रचार करने का मतलब केवल यह नही कि हमें दूर-दराज के देशों में जाकर प्रभु का सन्देश सुनाना चाहिए। कुछ लोग इस काम के लिए बुलाये जाते हैं। उनके लिए यह उचित और आवश्यक है कि जहाँ प्रभु उन्हें बुलाते हैं, वे वहाँ जाकर सुसमाचार को फैलायें। लेकिन सभी ख्रीस्तीय विश्वासियों का यह कर्तव्य बनता है कि वे अपनी-अपनी जगह पर अपनी क्षमता के अनुसार प्रभु की वाणी सुनायें। हम अपने अच्छे आचरण तथा व्यवहार से दूसरों को प्रभु का सुसमाचार सुना तथा अनुभव करा सकते हैं। प्रभु कहते हैं, ’’यदि तुम एक दूसरे को प्यार करोगे, तो उसी से सब लोग जान जायेंगे कि तुम मेरे शिष्य हो’’। (योहन 13:35)। एक दूसरे को प्यार करना तथा दूसरों को एक दूसरे को प्यार करना सिखाना सुसमाचारीय कार्य हैं। ऐसा कार्य कौन नहीं कर सकता?
सुसमाचारीय कार्य प्रेम का दायित्व है। हमने जिस प्रभु को पहचाना, जिस सच्चाई को परखा, जिस मुक्ति का एहसास किया है, जिस शाति का स्रोत पाया है उन्हें दूसरों को बताने से वे भी इस खुशी को महसूस करने लगेंगे। दूसरों की भलाई ही हमारा उद्देश्य है। इसी भावना से सन्त योहन कहते हैं, ’’हमारा विषय वह शब्द है, जो आदि से विद्यमान था। हमने उसे सुना है। हमने उसे अपनी आँखों से देखा है। हमने उसका अवलोकन किया और अपने हाथों से उसका स्पर्श किया है। वह शब्द जीवन है और यह जीवन प्रकट किया गया है। यह शाश्वत जीवन, जो पिता के यहाँ था और हम पर प्रकट किया गया है- हमने इसे देखा है, हम इसके विषय में साक्ष्य देते ओर तुम्हें इसका सन्देश सुनाते हैं। हमने जो देखा और सुना है, वही हम तुम लोगों को भी बताते हैं, जिससे तुम हमारे साथ पिता और उस के पुत्र ईसा मसीह के जीवन के सहभागी बनो। (1 योहन 1:1-3)
जिसने भी सुसमाचार को अपनाया है, उसमें वह खुशी और शान्ति दूसरों को प्रदान करने की तीव्र इच्छा उत्पन्न होती है, हालाँकि दूसरे लोग इस बात को समझ न पाये। इस प्रकार देखा जाये तो सुसमाचार को अपनाने की पूर्णता सुसमाचार के प्रचार कार्य में ही देखने को मिलती है।
प्रश्न:
1. प्रभु येसु के सुसमाचार का मुख्य सन्देश क्या था?
2. प्रभु येसु ने अपने शिक्षा को लोगों के सामने किस प्रकार प्रकट किया? इस कार्य के लिए उन्होंने किन-किन माध्यमों का उपयोग किया?
3. कलीसिया के विरुद्ध अत्याचार का सुसमाचार के फैलाव पर क्या प्रभाव पड़ा?
4. समारी स्त्री हमारे सुसमाचार के प्रचार के लिए किस प्रकार प्रेरणा प्रदान करती है?
5. जिन मिशनरियों ने विदेश से हमारे देश में आकर हमारे देशवासियों की निस्वार्थ सेवा की, उनमें से पाँच लोगों के नाम लिखिए और उनके सेवाकार्य के बारे में दो-दो वाक्य लिखिए?
6. सुसमाचार का प्रचार करना किन व्यक्तियों का कर्तव्य हैं और क्यों?
7. सुसमाचार को अपनाने की पूर्णता सुसमाचार के प्रचार कार्य में ही देखने को मिलती है’’ - इस कथन का अर्थ समझाइए?
दलों में चर्चा कीजिए
1. आपके इलाके में आप किस प्रकार सुसमाचार का प्रचार कर सकते हैं?