दलों में चर्चा कीजिएः इस घटना को पढ़िए और निम्न प्रष्नों के उत्तर दीजिये।
एक पल्ली में एक काथलिक एवं उसके परिवार ने चर्च आना छोड़ दिया था। हुआ यूँ कि उस काथलिक व्यक्ति को उसके कार्यालय में किन्ही झूठे आरोपों का सामना करना पड़ रहा था। इस कारण वह बहुत ही चिन्तित तथा दुखी था। ऐसी विकट स्थिति में उसने अपने पल्ली पुरोहित से मार्गदर्शन पाना चाहा। उसकी बड़ी आशा थी कि इस विषम स्थिति से उभरने के लिये पल्ली पुरोहित उसे कुछ मार्गदर्शन अवश्य देंगे। बडी आशा के साथ वह पल्ली-पुरोहित से मिलने गया। पल्ली पुरोहित ने किसी कारण वष उससे मिलने से इनकार किया। इस असंवेदनशील व्यवहार से असंतुष्ट होकर वह पल्ली पुरोहित तथा पल्ली के विरुद्ध हो गया। इसी कारण उसने चर्च जाना छोड़ दिया था। वह और उसके परिवार के सदस्य अब प्रोटेस्टेन्ट चर्च में जाने लगे जहाँ का पुरोहित बहुत सहृदयी तथा मिलनसार था। इस परिवार ने पल्ली के सारे कार्यों से नाता तोड़ लिया था इसलिये उन्होंने लघु ख्रीस्तीय सुमदाय की बैठकों में भी जाना छोड़ दिया।
एक दिन उस इलाके के लघु ख्रीस्तीय समुदाय की बैठक के दौरान सदस्यों ने इस परिवार के सदस्यों की अनुपस्थिति पर गहरी चिन्ता प्रकट की तथा प्रार्थना और मनन-चिन्तन के द्वारा यह निर्णय लिया कि वे इस परिवार से भेंट करने जायेंगे और उन्हें पुनः समुदाय की बैठकों में उपस्थित होने के लिए प्रेरित करेंगे। जब लघु ख्रीस्तीय समुदाय के पाँच सदस्य उनके घर पहुँचे तो परिवार का मुखिया उत्तेजित होकर उनके तथा पल्ली पुरोहित के विरुद्ध चिल्लाने लगा। वे धैर्य साधकर सब कुछ सुनकर वहाँ से चुपचाप चले गये। जब इन सदस्यों ने अपने इस अनुभव को समुदाय की अगली बैठक में बाँटा तो सदस्यों ने पवित्र वचन के आधार पर मन्न्-चिन्तन तथा विचार-विमर्श करने के बाद निर्णय लिया कि वे पुनः इस परिवार से मिलने जायेंगे। इस बार भी उन्हें अपषब्दों का सामना करना पडा, लेकिन उनकी तीव्रता कम हो गई थी। अगली मीटिंग में पुनः इस बात पर चर्चा हुई। उन्होंने निर्णय लिया कि इस बार वे पल्ली पुरोहित के साथ मिलकर इस रूठे परिवार से पुनः भेंट करने जायेंगे। पल्ली पुरोहित को देखकर ही परिवार वाले बहुत उत्तेजित हो गये। उन्होंने परिवार में आये लोगों के विरुद्ध अपषब्दों का प्रयोग किया तथा उनके साथ अपमानजनक व्यवहार भी किया। अपने इस कटु अनुभव के बावजूद भी सदस्यों ने इस परिवार के यहाँ जाना जारी रखा। अपने धैर्य तथा निरंतर भेंटों से वे इस परिवार का विश्वास जीतने में कुछ हद तक सफल रहे। इतने में लघु ख्रीस्तीय समुदाय के सदस्यों को यह भी ज्ञात हुआ कि यह परिवार एक बड़े आर्थिक संकट से गुजर रहा था। इस पर सदस्यों ने यह निर्णय लिया कि समुदाय का हरेक परिवार हर सप्ताह एक रूपये का योगदान इस परिवार की मदद के लिए देगा जिससे इस परिवार के बच्चों की शिक्षा का खर्च वहन किया जा सके। इस घटना ने कलीसियाई समुदाय पर इस रूठे परिवार के विश्वास को पुनः जगा दिया तथा वे पुनः चर्च आने लगे तथा लघु ख्रीस्तीय समुदाय की बैठकों एवं पल्ली के अन्य आयोजनों में भाग लेने लगे।
प्रश्नः
1. इस घटना से आपको ख्रीस्तीय समुदायों के नेतृत्व के बारे में क्या शिक्षा मिलती है?
2. आत्म-त्याग लोगों को अनुप्राणित करने में अत्यंत शक्तिशाली साधन क्यों है?
3. आत्म-त्याग के क्या-क्या लाभ एवं हानियाँ हैं?
4. कलीसियाई अगुआओं में कौन-कौन से गुण होना चाहिये?
संत पौलुस कहते हैं, ’’आप लोग अपने मनोभावों को ईसा मसीह के मनोभावों के अनुसार बना लें। वह वास्तव में ईश्वर थे और उनको पूरा अधिकार था कि वह ईश्वर की बराबरी करें, फिर भी उन्होंने दास का रूप धारण कर तथा मनुष्यों के समान बन कर अपने को दीन-हीन बना लिया और उन्होंने मनुष्य का रूप धारण करने के बाद मरण तक, हाँ क्रूस पर मरण तक, आज्ञाकारी बन कर अपने को और भी दीन बना लिया। इसलिये ईश्वर ने उन्हें महान् बनाया और उन को वह नाम प्रदान किया, जो सब नामों में श्रेष्ठ है, जिससे ईसा का नाम सुन कर आकाश, पृथ्वी तथा अधोलोक के सब निवासी घुटने टेकें और पिता की महिमा के लिये सब लोग यह स्वीकार करें कि ईसा मसीह प्रभु हैं।’’ (फिलिप्पियों 2:5-11)
किसी भी समुदाय में नेतृत्व की ज़रूरत होती है। अधिकार नेतृत्व से जुड़ा रहता है। मनुष्य अपने-अपने स्तर पर अधिकारों का उपयोग करते है। हर व्यक्ति अपने जीवन की परिस्थिति में दूसरों पर अधिकार जताने की कोशिश करता रहता है। यह प्रवृत्ति कभी-कभी दूसरों को गुलाम बनाने की सीमा तक पहुँच जाती है। इतिहास में हम देखते हैं कि किसी-किसी राजा ने दूसरे देश की पूरी जनता को ही गुलाम बना दिया। राजा अपनी प्रजा पर अधिकार जताता है। कुछ अधिकारी लोगों पर न सिर्फ अधिकार जताते हैं बल्कि उनके साथ निर्दयतापूर्वक क्रूर व्यवहार भी करते हैं। अधिकार के लिये तरसते मानव के उदाहरण सिकंदर, नेपोलियन आदि सम्राटों में हमें देखने को मिलते हैं। जिस प्रकार मनुष्य धन तथा नाम कमाने का इच्छुक हैए उसी प्रकार वह अधिकार जमाना भी चाहता है।
ख्रीस्तीय समुदायों में नेतृत्व की ज़रूरत होती है। परन्तु यह नेतृत्व सांसारिक नेतृत्व से भिन्न है। कलीसिया की शुरुआत से ही नेताओं ने अपनी भूमिका निभाई है। कलीसियाई नेतृत्व आध्यात्मिक नेतृत्व है जो सुसमाचारीय शिक्षा के अनुसार निभाया जाता है। कलीसियाई समुदायों में नेतृत्व विभिन्न प्रकार के हो सकते हैं। कलीसिया सिखाती है कि ख्रीस्तीय बुलाहट के अनुसार धर्माध्यक्ष, पुरोहित, धर्मबहनें तथा प्रचारक अपने कार्यों में लगे रहते हैं। वे अपने स्तर पर नेतृत्व करते हैं। कुछ नेता अधिकारियों द्वारा नियुक्त किये जाते हैं। कुछ नेता मतदान द्वारा चुने जाते हैं। कुछ लोग स्वेच्छा से अपनी सेवा नेतृत्व के रूप अर्पित करते हैं। इन सभी कलीसियाई नेताओं को चाहिये कि वे नेतृत्व की अपनी जिम्मेदारी सुसमाचारीय शिक्षा के आधार पर निभायें।
वर्तमान कलीसिया में लघु ख्रीस्तीय समुदायों को बढावा दिया जाता है। ऐसे समुदायों में नेतृत्व उभरता है। कई लघु ख्रीस्तीय समुदायों में सदस्य पारी-पारी से नेतृत्व की ज़िम्मेदारी निभाते हैं। कलीसिया में ऐसा वातावरण होना चाहिये कि आसानी से नेतृत्व उभरे। कोई भी जन्म से नेता नहीं बनता। नेता समुदाय से उभरते हैं। जब समुदाय सभी अच्छे विचारों, सुझावों तथा कार्यों को प्रोत्साहन देता है तब नेतृत्व के उभरने की परिस्थिति बनती है। नेताओं की क्षमतायें सीमित रहती है। कलीसियाई नेताओं को न केवल प्रभु तथा कलीसिया की शिक्षाओं का ज्ञान होना चाहिये बल्कि दूसरों के साथ अच्छे संबंध जोड़ने तथा बनाये रखने के तौर-तरीकों का ज्ञान भी होना चाहिये। उन्हें सुसमाचार की शिक्षा का गहरा ज्ञान होना चाहिये तथा विभिन्न संत पापाओं के परिपत्रों तथा कलीसियाई महासभाओं के दस्तावेजों की जानकारी भी होना ज़रूरी है। समाज तथा कलीसिया की वर्तमान परिस्थितियों से परिचित होना भी उनके लिये आवश्यक है। इसके अलावा उन्हें समाज शास्त्र तथा मनोविज्ञान से भी मदद मिलती है। इन सब बातों को ध्यान में रखते हुये नेताओं को प्रशिक्षण दिया जाना आवश्यक है। कलीसिया में विभिन्न स्तर के नेताओं के लिये उनकी क्षमताओं तथा ज्ञान को बढ़ाने हेतु समय-समय पर नियमित रीति से प्रशिक्षण सत्रों का आयोजन किया जाना ज़रूरी है।
कलीसिया में दलीय नेतृत्व को महत्व दिया जाना चाहिये। जब लोग मिलकर अगुवायी करते हैं तो कार्य अच्छी तरह सम्पन्न होता है। विभिन्न लोगों की क्षमताओं तथा विभिन्न दृष्टिकोणों का लाभ प्राप्त होता है। दल के सभी सदस्य एक-दूसरे पर निर्भर रहते हैं तथा एक-दूसरे की मदद करते हैं। मुसीबतों के समय वे एक-दूसरे का मनोबल बढ़ाते हैं। एक-दूसरे की मदद से कोई भी काम किसी को भी कठिन नहीं लगता। सफलताओं में वे मिलकर खुशी मनाते हैं तथा असफलताओं की जिम्मेदारी मिलकर लेते हैं।
संत मत्ती के सुसमाचार 23:8-12 में प्रभु येसु यह सिखाते हैं कि इस पृथ्वी पर हम किसी को ’गुरू’ ’पिता’ या ’आचार्य’ कहकर नहीं पुकारें। इस शिक्षा के द्वारा प्रभु येसु यह बताना चाहते हैं कि ईश्वर ही हमारे गुरू, पिता तथा आचार्य हैं। कलीसियाई नेतृत्व के बारे में सबसे बड़ी शिक्षा यही है कि ईश्वर भला गड़ेरिया है कलीसियाई नेता उनकी भेड़ों की देखरेख करते हैं तथा ईश्वर की इच्छा के अनुसार उन्हें मार्गदर्शन देते हैं। जब बारहों के बीच अधिकार जमाने की कोशिश हो रही थी तो प्रभु येसु ने उन्हें मार्गदर्शन देते हुये कहा, ’’तुम जानते हो कि संसार के अधिपति अपनी प्रजा पर निरंकुश शासन करते हैं और सत्ताधारी लोगों पर अधिकार जताते हैं। तुम में ऐसी बात नहीं होगी। जो तुम लोगों में बड़ा होना चाहता है, वह तुम्हारा सेवक बने। और जो तुम में प्रधान होना चाहता है वह तुम्हारा दास बने, क्योंकि मानव पुत्र भी अपनी सेवा कराने नहीं, बल्कि सेवा करने तथा बहुतों के उद्धार के लिए अपने प्राण देने आया है।’’ (मत्ती 20:25-28) कलीसिया में शासनकारी-अगुवायी के बदले में मार्गदर्शक-अगुवायी की ज़रूरत है। संत पापा, धर्माध्यक्ष, पुरोहित, धर्मबहनें, प्रचारक या कोई भी जो कलीसिया के किसी भी समुदाय का अगुआ हो, सभी से यह आशा की जाती है कि वे मार्गदर्शक-अगुआ बने। एक शासनकारी नेता सबकुछ की योजना स्वयं बनाता है। उसे लगता है कि उसे ही सबकुछ का प्रबंध करना, लोगों को सबकुछ बताना, सभी कार्य शुरू करना, उन्हें समझाना, लोगों को चुनना, सही निर्णय लेना तथा सबों को सलाह देना पडे़गा। वह अपने को ज्ञानी तथा विवेकी मानता है तथा दूसरों को हीन समझता है। उसके अनुसार लोगों के साथ विचार-विमर्श करना तथा सलाह-मषवरा लेना समय की बर्बादी है। उसे अपना कार्य अपने ढंग से, अपने समय पर करने के लिये सिर्फ सहायकों की ज़रूरत है। उससे कोई आलोचना बरदाष्त नहीं होती तथा वह सदा सराहना की आशा रखता है। इसके विपरीत एक मार्गदर्शक अगुआ उसके समुदाय के सभी सदस्यों को सक्रिय बनने की प्रेरणा देता है। वह लोगों की क्षमताओं तथा प्रतिभाओं को प्रोत्साहन देकर उनके योगदान को मूल्यवान मानता है। वह समुदाय में नेतृत्व को उभरने देता है। उसकी कार्यशैली अनुप्राणित तथा प्रेरित करने की होती है। वह सदस्यों में विश्वास बढ़ाता है तथा उन्हें योग्य मानता है। वह प्रार्थना तथा विचार-विमर्श के बाद ही किसी भी निर्णय पर पहुँचता है। वह लोगों के साथ मिलकर कार्य करता है। उसे आलोचना से डर नहीं लगता बल्कि वह अपनी कार्यशैली को सुसमाचार की शिक्षा के अनुसार ढालता रहता है। वह सबकी इज्जत करता है तथा लोगों के हर एक योगदान को मूल्यवान मानता है। वह दूसरों को समझने के लिये समय लेता है तथा असफलताओं के सामने किसी को दोषी नहीं ठहराता। वह दूसरों को योग्य तथा लायक बनने में सहायता करता है। वह दूसरों पर विश्वास रखता है तथा उसका दृढ़ विश्वास है कि कमज़ोर सदस्यों में भी अच्छे गुण तथा सद्भाव पाये जाते हैं। संत पौलुस कुरिन्थियों को लिखते हुये कहते हैं, ’’आप के विश्वास पर मनमाना अधिकार जताना हमारा उद्देश्य नहीं है। हम आप लोगों की सुख-शांति के लिये आप के सहयोगी हैं और आप लोग तो यों भी विश्वास में दृढ़ हैं’’ (2 कुरिन्थियों 1:24)
कभी-कभी एक नेता को सच्चाई या प्रामाणिक शिक्षा को दर्शाने के लिये सावधानी बरतनी चाहिये। कभी-कभी सच्चाई पर ज़ोर देकर लोगों के समक्ष अपनी बात रखनी चाहिये। गलातियों के नाम पत्र में हम देखते हैं कि संत पौलुस ने एक बार संत पेत्रुस के आचरण का भी विरोध किया था क्योंकि उन्हें लगा कि संत पेत्रुस का आचरण उस समय सुसमाचार के सत्य के अनुरूप नहीं था। (देखिये गलातियों 2:11-14) एक नेता को चाहिये कि वह ईश्वर तथा सच्चाई का रास्ता कभी न छोड़े, सच्चाई को ग्रहण करने के लिये तैयार रहे तथा लोगों को सच्चाई के रास्तें पर चलने के लिये प्रेरित करता रहे। वह लोगों को नयी दिशा, विचार तथा समाधान खोजने के लिये प्रेरित करता है। वह विचार-विमर्श के समय दिशा-निर्देषात्मक प्रश्न पूछकर सदस्यों को अनुप्राणित करता है। उसका यह विश्वास है कि सदस्य मिलकर खोज सकते हैं तथा विश्वास के आधार पर समस्याओं का समाधान मिलकर ढूंढ सकते हैं। वह समुदाय में सबके लिये जगह बनाता है।
कभी-कभी ख्रीस्तीय समुदाय में किसी भी सेवाकार्य को करनेवाले व्यक्ति से पूछे जाने पर वह यह मनोभाव दर्शाता है कि वह धर्माध्यक्ष का या पल्ली पुरोहित का काम कर रहा है। उसे यह नहीं लगता कि वह विश्वासियों के समुदाय की ओर से कुछ जिम्मेदारी निभा रहा है। कभी-कभी अधिकारी लोग भी दूसरों को अपने ’लम्बे हाथ’ समझते हैं। इसका तात्पर्य है कि जो अधिकारी या नेता कुछ काम करना चाहता है उसे ऐसा लगता है कि जो काम उसे करना चाहिये वह उसकी क्षमता से परे है। इसलिये उस काम को पूरा करने के लिये उसे दूसरों की मदद की ज़रूरत है। जिनकी मदद वो लेता है उन सबको ऐसा लगता है कि वे उस अधिकारी का काम कर रहे हैं न कि अपना। ऐसे अधिकारी या नेता लोगों को अपने ’लम्बे हाथ’ समझते हैं’; अर्थात जिस काम को करने के लिये अधिकारी का हाथ नहीं पहुँच सकता उसको पूरा करने के लिये अन्य लोगों को वह अपने ’लम्बे हाथ’ बना देते हैं या उनकी मदद लेकर अपने हाथों को लम्बा बनाते हैं। यह मनोभाव कलीसियाई नेतृत्व के लिये उचित नहीं है। कलीसिया विश्वासियों का समुदाय है। कलीसिया का कोई भी काम सभी विश्वासियों का काम है। प्रभु येसु ने पूरी कलीसिया को अपने सुसमाचार के प्रचार-प्रसार की जिम्मेदारी सौंपी है। इस सामुदायिक जिम्मेदारी को सभी विश्वासियों को मिलकर निभाना चाहिये और हर एक को यह महसूस करना चाहिये कि मैं अपनी जिम्मेदारी निभा रहा हूँ।
कलीसिया में धर्माधिकारियों का एक वरिष्ठता क्रम है। रोम के धर्माध्यक्ष को हम संत पापा तथा संत पेत्रुस के उत्तराधिकारी मानते हैं। वे कलीसिया के परमाध्यक्ष है। वे सार्वत्रिक कलीसिया को मार्गदर्शन देते रहते हैं। कलीसिया के प्रशासन तथा अगुवाई में उनकी मदद करने के लिये कार्डिनलों की नियुक्ति होती है। वे धर्माध्यक्ष प्रमुख होते हैं। कार्डिनलों की संसद संत पापा का चुनाव करती है। वे विश्वस्तरीय बातों पर संत पापा को सहयोग देते रहते हैं। विश्वव्यापी काथलिक कलीसिया को विभिन्न कलीसियाई धर्मप्रदेशों ( Ecclesiastical Provinces) में बांटा गया है। इन धर्मप्रदेशों की अगुवायी महाधर्माध्यक्ष करते हैं। हर एक धर्मप्रदेश में कई धर्मप्रांत (Dioceses) होते हैं। इन धर्मप्रांतों की अगुवायी धर्माध्यक्ष करते हैं। हर एक धर्मप्रान्त में कई पल्लियाँ (Parishes) होती है। इन पल्लियों की अगुवायी पल्ली-पुरोहित करते हैं। हर एक पल्ली में विभिन्न लघु ख्रीस्तीय समुदाय होते हैं। लघु ख्रीस्तीय समुदाय की अगुवायी उस समुदाय के चुने गये प्रतिनिधि करते हैं। हरेक लघु ख्रीस्तीय समुदाय काथलिक परिवारों का समूह है। इस प्रकार कलीसिया में एक प्रशासन प्रणाली कार्यरत है। प्रभु येसु की सुसमाचारीय शिक्षा पर चलने के लिये यह व्यवस्था तथा अनुशासन लागू किया गया है। इस व्यवस्था तथा अनुशासन को मानना तथा उसके तहत ख्रीस्तीय जीवन को बिताना ख्रीस्तीय लोगों के लिये बहुत ही लाभदायक है। इस व्यवस्था के अंतरगर्त ख्रीस्तीय विश्वासियों को समय-समय पर उपयुक्त मार्गदर्शन मिलता रहता है।
कलीसियाई अधिकारियों को ईश्वर की रेवड की अगुवाई ईश्वर से परामर्श करके ही करना चाहिए। उन्हें प्रार्थना द्वारा अपने लिए तथा अपने लोगों के लिए ईश्वर की इच्छा की खोज करते रहना चाहिए। साथ-साथ उन्हें ईश्वर के पथ पर स्वयं चलकर लोगों के लिए अपने ही जीवन से अच्छा उदाहरण प्रस्तुत करना चाहिए।
प्रश्न:-
1. शासनकारी अगुआ और मार्गदर्शक अगुआ में क्या-क्या अन्तर हैं?
2. मार्गदर्शक अगुवे की कार्यशैली पर प्रकाश डालिए?
3. दूसरों को अपने ’लम्बे हाथ’ समझने से क्या तात्पर्य है?
4. अच्छे कलीसियाई नेतृत्व की कौन-कौन सी विशेषताएं हैं?
5. कलीसिया के धर्माधिकारियों के वरिष्ठता क्रम पर प्रकाश डालिए?
6. कलीसिया की प्रशासन-प्रणाली पर प्रकाश डालिये।