काथलिक धर्मशिक्षा

लघु ख्रीस्तीय समुदाय द्वारा नवीनीकरण

लघु ख्रीस्तीय समुदाय जिसे कि कलीसिया में एक नया आंदोलन समझा जाता है लगभग उतना ही पुराना है जितना कि ख्रीस्तीय धर्म। ख्रीस्तीय धर्म हमेशा से लघु समुदायों में जीया गया क्योंकि बिना समुदाय के वास्तविक ख्रीस्तीय धर्म को जी पाना असंभव है। ख्रीस्त की शिक्षा अर्थपूर्ण तरीके से केवल आपसी रिश्तों में ही जी जा सकती है। जैसे-जैसे कलीसिया बढ़ती एवं फैलती गयी, वैसे-वैसे कलीसियाई प्रशासन के विभिन्न ढाँचे बनते गये। परन्तु संगठन और व्यवस्था को बढ़ावा मिलने के साथ-साथ ख्रीस्तीय धर्म के इस सामुदायिक जीवन के पहलू को भूला दिया गया। परिणामस्वरूप, कलीसिया संस्थागत (institutionalised) होती गयी और उस पर राजनैतिक प्रभाव भी बढ़ता गया। द्वितीय वतिकान महासभा कलीसिया की इस समस्या से जूझती रही और सभा ने वास्तविक ख्रीस्तीय जीवन को मूलभूत रूप से जीने की वकालत की। कलीसिया को ’’समुदायों की सहभागिता’’ (Communion of Communities) मानकर ही इस कलीसियाई सुधार की वकालत की गयी।

अगर हम ध्यान देंगे तो पायेंगे कि प्रभु येसु की अधिकांश शिक्षा सामुदायिक जीवन के लिये ही दी गयी है। संत मारकुस के सुसमाचार 12:28-31 में प्रभु येसु सामुदायिक जीवन की महत्ता को दर्शाते हैं। एक शास्त्री के द्वारा यह पूछे जाने पर कि सबसे बडी आज्ञा कौन-सी है? प्रभु येसु बताते हैं, ’’इस्राएल, सुनो! हमारा प्रभु ईश्वर एकमात्र प्रभु है। अपने प्रभु-ईश्वर को अपने सारे हृदय, अपनी सारी आत्मा, अपनी सारी बुद्धि और सारी शक्ति से प्यार करो। दूसरी आज्ञा यह है - अपने पड़ोसी को अपने समान प्यार करो। इन से बड़ी कोई आज्ञा नहीं’’। येसु की दृष्टि में ईश्वर का प्रेम तथा पड़ोसी प्रेम एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जब आस-पडोस के ख्रीस्तीय विश्वासी अपने विश्वास पर आधारित जीवन बिताते हैं तो उनके बीच का सम्बन्ध मजबूत होता जाता है तथा इसके फलस्वरूप एक विश्वासी सुमदाय रूप ले लेता है। इस प्रकार ख्रीस्तीय जीवन जीने का मतलब है समुदायों को रूप देना तथा समुदाय में रहना। ईश्वर हमारी मुक्ति का कार्य समुदाय में ही करते हैं। समुदाय में ही हम ख्रीस्तीय जीवन बिता सकते हैं। इसी कारण एक दूसरे के प्रति प्रेम की भावना पर कलीसिया बहुत ज़ोर देती है।

संत योहन भी अपने पत्र में ख्रीस्तीय धर्म के सामुदायिक पहलू पर बल देते हुए कहते हैं, ’’जो कहता है कि मैं ज्योति में हूँ और अपने भाई से बैर करता है, वह अब तक अंधकार में है। जो अपने भाई को प्यार करता है, वह ज्योति में निवास करता है और कोई कारण नहीं कि उसे ठोकर लगे। परन्तु जो अपने भाई से बैर करता है, वह अंधकार में है और अंधकार में चलता है। वह यह नहीं जानता कि वह कहाँ जा रहा है; क्योंकि अंधकार ने उसे अंधा बना दिया है’’। (1 योहन 2:9-11)

कलीसिया की इसी सामुदायिक जिम्मेदारी एवं भावना को आगे बढाते हुए संत योहन लिखते हैं, ’’यदि कोई यह कहता कि मैं ईश्वर को प्यार करता हूँ और वह अपने भाई से बैर करता, तो वह झूठा है। यदि वह अपने भाई को, जिसे वह देखता है, प्यार नहीं करता, तो वह ईश्वर को, जिसे उसने कभी देखा नहीं, प्यार नहीं कर सकता। इसलिये हमें मसीह से यह आदेश मिला है कि जो ईश्वर को प्यार करता है, उसे अपने भाई को भी प्यार करना चाहिए।’’ (1 योहन 4:20-21)

समुदाय ही एक ऐसा मंच है जहाँ ख्रीस्तीय धर्म के मूल्यों जैसे करूणा, क्षमा, आदर, विनम्रता आदि को जीया जा सकता है। हमें एक-दूसरे की ज़रूरत है, ’’आँख हाथ से नहीं कह सकती, ’मुझे तुम्हारी ज़रूरत नहीं’, और सिर पैरों से नहीं कह सकता, ’मुझे तुम्हारी ज़रूरत नहीं।’’(1 कुरिन्थियों 12:21) इस तरह हम देखते हैं कि सच्चा एवं वास्तविक ख्रीस्तीय विश्वास केवल दूसरों के साथ मिल बाँटकर ही जीया जा सकता है। पवित्र बाइबिल भी इसी बात को प्रतिपादित करती है। ईश्वर ने मनुष्य के साथ जो भी विधान स्थापित किया, वह ’लोगों’ के लिये था, न किसी व्यक्ति विशेष के लिए। इस्राएली जनता के इतिहास में हम यही देखते हैं। ईश्वर ने सारी इस्राएली जनता के लिये योजना बनाई। जनता की देखरेख के लिये उन्होंने नबियों तथा राजाओं को चुना। प्रभु येसु ने अपने शिष्यों को भी एक साथ समुदाय में रहने तथा उनके सुसमाचार का सामुदायिक साक्ष्य देने के लिए बुलाया।

हमारे ख्रीस्तीय जीवन के नवीनीकरण, ख्रीस्तीय मूल्यों को सही मायनों में जीने तथा ईश-वचन के अनुसार जीवन बिताने के लिये लघु ख्रीस्तीय समुदाय परिपक्व माध्यम बनते हैं। संत पापा योहन पौलुस द्वितीय भी लघु ख्रीस्तीय समुदायों के द्वारा कलीसिया एवं ख्रीस्तीय जीवन के नवीनीकरण के महान समर्थक थे। उनके अनुसार लघु ख्रीस्तीय समुदाय कलीसिया की सहभागिता का माध्यम एवं उसकी अभिव्यक्ति है। लघु ख्रीस्तीय समुदायों की स्थापना सुसमाचार प्रसार के लिये बहुत उपयोगी उपकरण है तथा प्रेम पर आधारित एक सभ्य समाज की ठोस शुरुआत है।

प्रभु येसु चाहते हैं कि उनके शिष्य पवित्र वचन को सुनकर उसके अनुसार अपने जीवन में बदलाव लायें। ईशवचन का पालन करनेवालों को प्रभु येसु अपनी माता, अपना भाई और अपनी बहन मानते हैं। (देखिए लूकस 8:19-21) उन्होंने यह भी सिखाया कि स्वर्गराज्य में प्रवेश करने के लिए उन्हें ’’प्रभु! प्रभु!’’ कह कर पुकारना काफी नहीं है, बल्कि अपने स्वर्गिक पिता की इच्छा पूरी करनी चाहिए (देखिए मत्ती 7:21)। उनका कहना है कि जो उनकी बातें सुनता और उन पर चलता है, वह चट्टान पर अपना घर बनाने वाले बुद्धिमान के सदृष है। उसका घर पानी बरसने, नदियों में बाढ़ आने तथा आँधियाँ चलने पर भी खड़ा रहता है। परन्तु जो प्रभु की शिक्षा सुनता तो है किन्तु उस पर नहीं चलता, वह उस मूर्ख के सदृष है जिसने बालू पर अपना घर बनवाया। वह घर कठिन परिस्थितियों में ढ़ह जाता है और उसका सर्वनाश हो जाता है (देखिए मत्ती 7:24-27)

विश्वासियों को लघु ख्रीस्तीय समुदायों के द्वारा ईशवचन को व्यावहारिक रूप से जीने का अवसर मिलता है। ईशवचन हमारे व्यक्तिगत जीवन के लिये लाभदायक अवश्य होता है, लेकिन ईश्वर चाहते हैं कि हम सारी मानवजाति से संयुक्त होकर उनके मार्ग पर चलें। इस दुनिया में जहाँ लाखों करोड़ों लोग रहते हैं उन सबके साथ वास्तविक व्यावहारिक संबंध बनाये रखना किसी भी व्यक्ति के लिये असंभव है। हमारे समुदायिक जीवन की सीमायें होती हैं। इस दुनिया के सभी लोगों को हम न पहचान सकते हैं और न ही उन सबसे व्यावहारिक संबंध जोड़ सकते हैं। वास्तविक संबंध हम अपने आसपडोस के लोगों के साथ ही बना सकते हैं। इस प्रकार देखा जाये तो हमें मालूम होगा कि सारी मानव जाति के साथ मिलकर कुछ कार्य करने का वास्तविक मतलब इतना ही निकल सकता है कि हम अपने आस-पडोस के लोगों के साथ मिलकर काम करें, न कि इस दुनिया के हर व्यक्ति के साथ व्यावहारिक संबंध जोड़े। इस प्रकार ईश्वर के मानवजाति के प्रति प्यार को दर्शाने का प्रयास हमें समुदायों में रहने के लिये प्रेरित करता है।

यूँ तो विश्वासीगण व्यक्तिगत रूप से भी ईशवचन को पढ़ एवं उसपर मनन् चिंतन कर सकते हैं, पर ईशवचन हमें सामुदायिक जीवन के लिये प्रेरित करता है। इसी कारण सामुदायिक रीति से ईश वचन को सुनने तथा उस पर मनन करने से धीरे-धीरे एक जगह पर रहने वाले व्यक्ति अपने बीच में ईश्वर द्वारा बनाये गये संबंधों को महसूस करते हैं। लघु ख्रीस्तीय समुदाय में ईशवचन को पढ़ने एवं सुनने से वे ईश्वर के वचन को अपने जीवन में समुदाय की सेवा के रूप में अभिव्यक्त कर सकते हैं। लघु ख्रीस्तीय समुदाय में भाग लेकर वे एक समुदाय के रूप में ईश्वर के सामने उपस्थित होते हैं तथा ईशवचन के अनुसार समुदाय में रहकर अपने जीवन को उसके अनुरूप ढ़ालते हैं। वे व्यक्तिगत रूप से नहीं वरन् सामुदायिक रूप से अपने विश्वास में आगे बढ़ते हैं। प्रथम ख्रीस्तीय समुदायों में हमें यही भावना देखने को मिलती है। लोग लघु ख्रीस्तीय समुदायों में एकत्र होकर समुदाय के लिये प्रार्थना करते तथा अपना जो कुछ होता उसे सब की ज़रूरतों के अनुसार बाँटतें थे। इससे उन पर ईश्वर की कृपा बनी रहती थी तथा ख्रीस्तीय समुदायों का विस्तार बड़ी तीव्रता के साथ होता गया।

लघु ख्रीस्तीय समुदाय में विश्वासी अपने आप को और अधिक तथा वास्तविक रूप से कलीसिया से जुड़ा हुआ पाता है। इससे उसके विश्वास को नव-स्फूर्ति मिलती है। लघु ख्रीस्तीय समुदाय में कलीसिया और अधिक वास्तविक एवं साकार दिखती है। कलीसिया के चिह्न एवं उसके लक्षण को इन समुदायों के वास्तविक जीवन में अनुभव किया जाता है। ख्रीस्त की कलीसिया का कार्य इन विश्वासियों के समुदायों द्वारा पूरा किया जाता है जो न सिर्फ ईशवचन को पढ़ते हैं, बल्कि ईश वचन को उनके जीवन को पढ़ने भी देते हैं।

जब एक मोहल्ले में रहने वाले लोग एक साथ प्रभु येसु के नाम पर मिलते हैं तो अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार ईश्वर उनके बीच में उपस्थित होते हैं। जब प्रभु येसु हमारे बीच में आते हैं तब वे हमें, अपनी संतानों को, एक दूसरे के साथ एकता में बांध देते हैं। हम विश्वासियों में उपस्थित रहते हुये प्रभु हमें अपना शरीर बना लेते हैं तथा कलीसिया रूपी इस शरीर के द्वारा अपने मुक्ति कार्य को जारी रखते हैं। इस प्रकार लघु ख्रीस्तीय समुदाय सार्वत्रिक कलीसिया का कोषाणु बन जाता है। लघु ख्रीस्तीय समुदाय विश्वासियों को इम्मानुएल (ईश्वर हमारे साथ है) का अनुभव करने का अवसर प्रदान करता है। इस प्रकार हम यह देखते हैं कि प्रभु के शिष्यों के लिए सामुदायिक जीवन बिताना अनिवार्य हो जाता है। समुदाय ही उनका कार्यक्षेत्र है।

कई पल्ली-समुदाय इतने बडे होते हैं कि ऐसे समूहों को समुदाय कहना ही मुश्किल होता है। लघु ख्रीस्तीय समुदाय पल्ली तथा ख्रीस्तीय परिवारों के बीच का समूह है। पल्ली में कई लघु ख्रीस्तीय समुदाय होते हैं। लघु ख्रीस्तीय समुदाय 15 से 20 परिवारों का समूह है। हर एक ख्रीस्तीय को अपने मुहल्ले के लघु ख्रीस्तीय समुदाय का सदस्य बनना उतना ही महत्वपूर्ण है जितना उसे अपने परिवार का सदस्य होना आवश्यक है। इस प्रकार कलीसिया के ढाँचे में लघु ख्रीस्तीय समुदाय को देखना अनिवार्य है।


विश्वव्यापी कलीसिया ==> धर्मप्रान्त ==> पल्ली ==> लघु ख्रीस्तीय समुदाय ==> परिवार ==>विश्वासी

लघु ख्रीस्तीय समुदायों के चार मुख्य चिह्न होते हैं:-
1. लघु ख्रीस्तीय समुदायों में पडोस में रहने वाले विश्वासी लोग एक साथ मिलते हैं। एक ही मुहल्ले में रहने वाले लोग अमीर और गरीब, बूढे और जवान, विवाहित और अविवाहित बिना किसी भेद-भाव से, सप्ताह में एक बार या दो सप्ताहों में एक बार एक साथ मिलते हैं। लघु ख्रीस्तीय समुदायों की सभाओं में विभिन्न भाषा-भाषी, विभिन्न पेशा, जाति तथा संस्कृति के लोग एक साथ बैठकर ईशवचन सुनते और उसपर मनन करते हैं। वे अपनी बैठकों की जगह बदलते रहते हैं।
2. सुसमाचार का आदान-प्रदान लघु ख्रीस्तीय समुदायों की बैठकों का आधार बनता है। समुदाय के सदस्य जीवन्त वचन को न केवल पढते या सुनते हैं, बल्कि उस पर मनन कर उस पर स्वयं व्यक्तिगत और सामुदायिक रूप से चलने का प्रयत्न करते हैं। सुसमाचार के आदान-प्रदान द्वारा हम एक प्रकार से ख्रीस्त के भाई-बहन बनने का प्रयास करते हैं (देखिए लूकस 8:21)
3. लघु ख्रीस्तीय समुदाय के सदस्य मिलकर सेवाकार्य करते हैं। वे प्रभु पर अपने विश्वास से प्रेरित होकर अपने पडोस में रहनेवालों की ज़रूरतों की पूर्ति के लिए प्रयासरत रहते हैं। इसके लिए वे अपना धन, समय और अन्य संसाधन देते हैं।
4. लघु ख्रीस्तीय समुदाय विश्वव्यापी कलीसिया के साथ अपने सम्बन्धों को बनाये रखता है। प्रभु ने स्वयं अपने शिष्यों की एकता के लिए प्रार्थना की थी। कोई भी ख्रीस्तीय समुदाय दूसरे ख्रीस्तीय समुदायों से अलग नहीं रह सकता, उसे दूसरों के साथ अपनी एकता को बनाये रखना पडता है। लघु ख्रीस्तीय समुदाय के सभी सदस्य अपनी पल्ली तथा धर्मप्रान्त से इतने जुडे रहते हैं कि वे सक्रिय रूप से सभी गतिविधियों में हिस्सा लेते हैं तथा पल्ली-पुरोहित तथा धर्माध्यक्ष के मार्गदर्शन के अनुसार अपने समुदाय की गतिविधियों को चलाते हैं।
किसी भी वास्तविक लघु ख्रीस्तीय समुदाय में ये सब विशेषताएं देखने को मिलती हैं। इन में से किसी भी चिह्न के अभाव में वह लघु ख्रीस्तीय समुदाय कहलाने योग्य नहीं माना जाता है। विश्वव्यापी कलीसिया में लघु ख्रीस्तीय समुदायों के निर्माण तथा विकास के लिए प्रयास किया जा रहा है। हम भी दृढसंकल्प करें कि कलीसिया के इस प्रयास में अपना योगदान अवश्य दें।

प्रश्न-
1. कलीसिया में सामुदायिक जीवन क्यों महत्वपूर्ण माना जाता है?
2. ख्रीस्तीय जीवन में पवित्र वचन का क्या महत्व है?
3. लघु ख्रीस्तीय समुदाय में पवित्र वचन को किस प्रकार का स्थान दिया जाता है?
4. लघु ख्रीस्तीय समुदाय की विशेषताएं कौन-कौन सी हैं?
5. लघु ख्रीस्तीय समुदाय ख्रीस्तीय जीवन को कैसे व्यावहारिक बनाता है?
6. ख्रीस्तीय जीवन में सेवा-कार्य कितना महत्वपूर्ण है?

दलों में चर्चा कीजिएः
1. आपके पल्ली के अन्य सदस्यों के साथ आपका सम्बन्ध कितना घनिष्ठ है?
2. आपके मुहल्ले में रहनेवाले लोगों के साथ भाईचारे की भावना बढाने के लिए आप क्या-क्या कर सकते हैं?
3. आपके इलाके में लघु ख्रीस्तीय समुदाय की स्थापना या विकास के लिए आप कौन-कौन से कदम उठा सकते हैं?


Copyright © www.jayesu.com
Praise the Lord!