प्रभु येसु के पुनरुत्थान तथा स्वर्गारोहण के बाद उनके प्रेरित जगह-जगह जाकर सुसमाचार का प्रचार-प्रसार करने लगे। प्रेरिताई-कार्यों के फलस्वरूप कई गाँवों एवं शहरों में ख्रीस्तीय समुदायों की स्थापना की गयी। उन समुदायों में लोगों ने अपना ख्रीस्तीय जीवन प्रेरितों की शिक्षा सुनते, एक-दूसरे के साथ आदान-प्रदान करते, गरीबों की मदद करते तथा एक साथ मिलकर प्रार्थना करते हुये बिताया। सप्ताह के प्रथम दिन वे मिलकर प्रभु येसु ख्रीस्त की मृत्यु तथा पुनरुत्थान को याद करते हुये प्रभु के आज्ञानुसार यूखारिस्तीय समारोह भी मनाते थे। धीरे-धीरे अन्य संस्कारों से सम्बन्धित धर्मविधियाँ भी रूप लेने लगी। ईश्वर के समक्ष अपनी भावनाओं तथा कामनाओं को अभिव्यक्त करने हेतु उन्होंने स्थानीय संस्कृति के विभिन्न घटकों का उपयोग किया। जब आराधना तथा प्रार्थना की अभिव्यक्ति स्थानीय संस्कृति में होने लगी तो विभिन्न जगहों पर अपनी-अपनी पहचान की पूजन-प्रणालियों का उदय होने लगा। इस प्रकार पूजनविधियाँ उनके ख्रीस्तीय जीवन का अंग बन गयी।
पूजनविधियों का इस प्रकार का विकास एकांतता में नहीं हुआ। वह कलीसिया के विस्तार तथा प्रगति का एक पहलू था। फूट, विच्छेद तथा गलत विचारधाराओं के विरुद्ध लड़ती कलीसिया को प्रामाणिक शिक्षा प्रस्तुत करना आवश्यक था। धीरे-धीरे धर्मसार रूप लेने लगा जिस में प्रामाणिक शिक्षा प्रकट होती थी। साथ ही विभिन्न जगहों की कलीसियाई समुदायों में अनुशासन प्रणाली रूप लेने लगी। इस सन्दर्भ में विभिन्न जगहों के कलीसियाई नेता एक दूसरों से परामर्श करते भी थे। कलीसियाई विद्वानों ने इन प्रामाणिक शिक्षाओं के समर्थन में सैद्धान्तिक ढंग से प्रभु के वचन पर आधारित प्रबन्धों को विश्वासियों के सामने रखा। उन्होंने विश्वास के कुछ बिन्दुओं पर आवश्यक स्पष्टीकरण भी देने लगे। इस प्रकार ख्रीस्तीय ईशशास्त्र का भी विकास हुआ। कुछ महात्माओं ने विश्वास को अपने जीवन में ही व्यावहारिक रूप प्रदान कर आध्यात्मिकता को बढावा दिया। इस प्रकार हम देखते हैं कि स्थानीय संस्कृति और परिस्थिति के अनुसार विभिन्न जगहों पर पूजनविधि, ईशशास्त्र, आध्यात्मिकता तथा अनुशासन के ठोस रूप उबरने लगे।
लोगों को सुसमाचार सुनाते समय प्रेरितों ने श्रोताओं की भाषा शैली का उपयोग किया ताकि वे अच्छी तरह समझ सकें। प्रेरितों ने अपने श्रोताओं के जीवन के अनुभवों तथा परिस्थितियों के सन्दर्भ में प्रभु का सुसमाचार सुनाया। इसका प्रभाव प्रार्थना तथा धर्मविधियों पर भी पडा। इस प्रकार सुसमाचार तथा तत्कालीन संस्कृति एवं पंरपराओं का समावेश ख्रीस्तीय धर्मविधियों में होने लगा। कलीसियाई धार्मिक नेताओं ने इस बात का विशेष ध्यान रखा कि सुसमाचारीय शिक्षा का स्थानीय पंरपरा तथा संस्कृति के मुताबिक व्याख्या करते समय ख्रीस्तीय मूल-भूत तत्वों में कोई फेरबदल न हो। संस्कारों को मनाने में उन्होंने कुछ स्थानीय संस्कृति के अंकों को ख्रीस्तीय धर्मविधियों में जगह दी ताकि धर्मविधियाँ स्थानीय समुदाय के सदस्यों के लिये अर्थपूर्ण रहें। इस प्रकार विभिन्न जगहों पर स्थानीय संस्कृति तथा पंरपराओं के अनुसार धर्मविधियाँ रूप लेने लगी। जैसे-जैसे कलीसिया फैलती गयी इसमें से कुछ धर्मविधियों की पुष्टि हुई और वे फैलती गयीं। कुछ अन्य धर्मविधियाँ लुप्त भी हो गयीं। इस प्रकार कलीसिया में पूजनविधियों की शुरुआत हुई।
कलीसियाई पूजन-पद्धति में प्रभु येसु अपनी मध्यस्थता तथा पुरोहिताई की भूमिकाओं को अपने कलीसिया रूपी शरीर के द्वारा क्रियान्वित करते हैं। पूजन-पद्धति में स्वर्ग और पृथ्वी का मिलन होता है क्योंकि वहाँ विश्वासीगण संतों तथा स्वर्गदूतों के साथ मिलकर ईश्वर की वंदना तथा आराधना करते हैं। पूजनपद्धति में पास्का रहस्य का पुनः विधिकरण (re-enactment) होता है। आदिम कलीसिया की पूजनविधियों में बड़ी सृजनात्मकता तथा लचीलापन देखने को मिलता था। लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया इन पूजनविधियों ने ठोस रूप धारण कर लिया। इस प्रकार कलीसिया में वर्तमान में कई पूजनविधियाँ देखने को मिलती है। इन पूजनविधियों की उत्पत्ति तथा विशेषताओं के आधार पर इनको हम कुछ समूहों में बाँट सकते हैं।
आरंभिक विश्वास के हस्तान्तरण के आधार पर पूजनविधि को चार मुख्य समूहों में बांटा जा सकता है- रोमन पूजनविधि समूह, अंतोखियन (सीरिया) पूजनविधि समूह, एलेकजेंड्रियन पूजनविधि समूह एवं पेर्षियन (अस्सीरियन/खालदियन) पूजनविधि समूह। संत बेसिल एवं संत योहन क्रिसोस्टम के प्रभाव के कारण विकसित बायज़ेन्टाइन पूजनविधि की प्रषाखाएं अंतोखियन (सीरिया) पूजनविधि समूह से ही निकल कर आई हैं। आज कलीसिया में उपस्थित 22 धार्मिक पूजनविधियाँ इन्हीं चार प्रमुख पूजनविधि समूहों से निकलकर आयी हैं। इनमें से एक रोमन पूजनविधि है जो कि पष्चिमी है, बाकी 21 पूजनविधियाँ पूर्वीय हैं।
किसी भी पूजनविधि को मात्र संस्कारों को मनाने का धार्मिक विधिसंग्रह मानना उचित नहीं है। हरेक पूजनविधि एक स्वायत्त कलीसिया (autonomous church) की पहचान है। ’’कलीसिया में पूजनविधि वह पंरपरा है जिसमें धार्मिकविधि, ईशशास्त्र, आध्यात्मिकता तथा अनुशासन का समावेश है। यह पंरपरा जनता की संस्कृति तथा इतिहास की परिस्थितियों की पहचान है तथा उसकी अभिव्यक्ति एक स्वायत्त (Sui Juris) कलीसिया में होती है।’’ (C.C.E.O. 28,1) इस प्रकार देखा जाये तो पूजनविधि का तात्पर्य एक स्वायत्त कलीसिया से है। (देखिये OE 3 and UR 15-17)। हर एक स्वायत्त कलीसिया की अपनी पूजन-पद्धति होती है। हर पूजनविधि एक विशेष आध्यात्मिक प्रणाली, ईशशास्त्र, विचारधारा तथा संस्कृति में सुसमाचार को प्रकट करने तथा सुसमाचार की चुनौतियों के प्रति स्थानीय समुदाय की प्रतिक्रिया को व्यक्त करने के प्रयास का नतीजा है। इसी कारण उस धार्मिक परम्परा से अलग करके उस पूजनविधि को देखना या प्रस्तुत करना गलत होगा। पूजनविधियों की विभिन्नता कलीसिया की आध्यात्मिक संपन्नता की झलक है। यह इस बात का प्रमाण है कि दुनिया भर में विभिन्न विचारधारा, दृष्टिकोण तथा संस्कृति के लोगों ने सुसमाचार को अपनी जीवन की वास्तविक परिस्थितियों में जगह दी है तथा इस प्रकार सुसमाचार की अभिव्यक्ति विभिन्न संस्कृतियों में हुई है। सुसमाचार के मूल तत्वों तथा शिक्षाओं को विभिन्न जनताओं के सांस्कृतिक चिह्नों तथा विधियों में वास्तविक रूप से पनपने का अवसर प्रदान किया गया है। इस कारण हर पूजनविधि को हमें कलीसिया की महान विरासत के अंग के रूप में देखना चाहिए।
द्वितीय वतिाकान महासभा का पूर्वीय काथलिक कलीसियाओं पर दस्तावेज़ हमें सिखाता है, “पूर्वीय कलीसियाओं की पूजनविधियों, कलीसियाई परम्पराओं तथा उनके ख्रीस्तीय जीवन की व्यवस्था को काथलिक कलीसिया मूल्यवान मानती है। पूजनीय पुरातनता से अपने लिए एक अनोखी पहचान बनाने वाली इन कलीसियाओं में एक विषिष्ठ परम्परा जो ईश्वर द्वारा अभिव्यक्त है, अविभाजित कलीसिया की विरासत का भाग है और प्रेरितों तथा पूर्वाचार्यों से हस्तान्तरित हुई है, स्पष्ट रूप से आज भी मौजूद है। (1) पावन काथलिक कलीसिया जो कि मसीह का रहस्यात्मक शरीर है विश्वासियों से बनी हुई है जो पवित्र आत्मा के द्वारा एक ही विश्वास, संस्कार तथा शासन में एक बनाए गये हैं। इन में विभिन्न समूह बनते हैं जिनमें से हरेक समूह अपने धर्मतन्त्र में एक बन कर स्थानीय कलीसिया तथा पूजन-विधि का रूप धारण कर लेता है। इन कलीसियाओं के बीच एक आश्चर्यजनक एकता का बंधन है जिसके कारण कलीसियाओं की विभिन्नता कलीसियाई एकता को घटाती नहीं बल्कि उसे और अधिक मज़बूत बनाती है। काथलिक कलीसिया की यह इच्छा है कि इन विभिन्न कलीसियाओं की परम्पराएं तथा पूजन-विधियाँ पूर्ण तथा समग्र रूप से बनी रहें। इस प्रकार कलीसिया विभिन्न समय तथा जगहों के अनुकूल जीवन का तरीका अपनाती है। (2) ये कलीसिया - पाश्चात्य तथा पूर्वीय - दोनों अपनी पूजनविधि, कलीसियाई अनुशासन तथा आध्यात्मिक परम्परा में भिन्न होते हुए भी ईश्वर से प्रदत्त कृपा से सार्वत्रिक कलीसिया के सर्वोच्च अधिकारी, संत पेत्रुस के उत्तराधिकारी, रोमी धर्मगुरु संत पापा के मेषपालीय मार्गदर्शन के सुपुर्द किये गये हैं। ये सभी कलीसियाएँ समान दरजे की हैं तथा कोई भी दूसरों से श्रेष्ठ नहीं है। इन सबको संत पापा के मार्गदर्शन में सुसमाचार प्रचार-प्रसार तक के सभी कार्यों में समान अधिकार तथा दायित्व सौंपे गये हैं (मारकुस 16:15)। (3)”
कलीसिया चाहती है कि सभी पाश्चात्य तथा पूर्वी कलीसियाओं के बीच आपसी सम्मान तथा आदर की भावना बनी रहे। भारत में तीन पूजन-विधियों को माननेवाले काथलिक विश्वासी रहते हैं- लातीनी, सीरो-मलबार तथा सीरो-मलंकरा। भारतीय कलीसिया में विभिन्न पूजनविधियों को माननेवालों के बीच पारस्परिक आदर तथा सम्मान की भावना को बढ़ावा देने का प्रयास जारी है। लातीनी पूजनविधि का संबंध रोमी पूजनविधि समूह से है।सीरो मलबार पूजनविधि के अनुयायियों का धर्मविधियों को लेकर पुर्तगाली मिशनरियों से मतभेद हुये लेकिन इसके बावजूद भी वे कभी भी रोम की कलीसिया से पृथक नहीं हुए। सीरो मलबार धर्मविधि को मानने वाले भी असीरिया की कलीसिया से जुडे़ थे तथा कलीसिया के संचालन हेतु दिशानिर्देश वहीं से लिया करते थे। असीरिया की कलीसिया, जिन्हें बाद में खालदीयन कलीसिया भी कहा जाने लगा, मलबार काथलिकों के लिये धर्माध्यक्षों की नियुक्ति करती थी। लेकिन यह क्रम 16वीं शताब्दी में टूट गया जब पुर्तगाली मिशनरियों ने यह काम अपने हाथ में ले लिया। द्वितीय वतिकान महासभा तक सीरो मलबार काथलिकों की पूजनविधि की मूल भाषा सीरियक थी जिसका इस्तेमाल कालदीयन कलीसिया भी करती थी। यह एक प्राचीन पूजनविधि थी। इस कलीसिया को वाँछनीय मान्यता तभी प्राप्त हुई जब सन् 1992 में पापा योहन पौलुस द्वितीय ने सीरो मलबार कलीसिया के लिये मार अंतोनी पडियरा को प्रथम प्रधान महाधर्माध्यक्ष (Major Archbishop) नियुक्ति किया। तब से यह एक प्रधान महाधर्माध्यक्षीय कलीसिया (Major Archepiscopcal Church) मानी जाती है। प्रधान महाधर्माध्यक्षीय कलीसिया एक ऐसी पूर्वी कलीसिया है जो एक प्रधान महाधर्माध्यक्ष द्वारा धर्माध्यक्षीय परिषद की सहायता से शासित (नियंत्रित) की जाती है। वर्तमान में काथलिक कलीसिया में चार प्रधान महाधर्माध्यक्षीय कलीसियाएं हैं। वे हैं उक्रेनी (Ukranian), सीरो-मलबार कलीसिया, सीरो-मलंकरा कलीसिया तथा रोमानियाई (Romanian) कलीसिया।
सीरो मलंकरा पूजनविधि के अनुसार संस्कारों को मनाने वाली कलीसिया असीरिया की कलीसिया के सम्पर्क में थी तथा वहीं से कलीसिया के संचालन के लिये दिशा निर्देश लिया करती थी। जब पुर्तगाली मिशनरियों ने इस कलीसिया को लातिनी धर्मविधि के अनुसार संस्कारों को मनाने के लिये विवष किया तो ये अलग होकर अपनी ही पूजनविधि के अनुसार संस्कार को सम्पन्न करने के लिये सीरिया के प्राधिधर्माध्यक्ष (Patriarch) से दिशा निर्देश लेने लगे। इस समुदाय में सन् 1920 से काथलिक कलीसिया लौटने की प्रक्रिया जोर पकड लिया।
30 अप्रैल 1925 को मलंकरा धर्माध्यक्षीय सभा ने फादर पी.टी. गीवर्गीस को बेथनी का धमाध्यक्ष नियुक्त करने का निर्णय लिया। 1 मई 1925 को काथोलिकोस बसीलियोस गीवर्गीस प्रथम ने फादर पी.टी. गीवर्गीस को मार इवानियोस नाम से बेथनी के महाधमाध्यक्ष के रूप में अभिषेक किया। मार इवानियोस काथलिक कलीसिया के साथ एकता बनाने का प्रयत्न करते रहे। 1 नवम्बर 1926 को हुई मलंकरा धर्माध्यक्षीय सभा ने मार इवानियोस को रोम के साथ संवाद बढाने तथा एकता बनाने का कार्य सौंप दिया। लम्बे संवाद के बाद 4 जुलाई 1930 को पुर्वी कलीसियाओं के रोमी प्रशासनिक विभाग (Congregation for Oriental Churches) ने मलंकरा कलीसिया के काथलिक कलीसिया में पुनर्मिलन का निर्णायक फैसला किया। 20 सितंबर 1930 को मार इवानियोस, मार थियोफिलुस, फादर जॉन कुषि़मेपुरत्त (OIC), उपयाजक अलेक्साण्डर आट्टुपुरत्त (OIC) और श्री चाक्को किलियिलेत ने कोल्लम के धर्माध्यक्ष अलोय्सियुस मरिया बेन्सीगर के सामने काथलिक धर्मासार की घोषणा की। इसी के साथ सीरो मलंकरा कलीसिया की स्थापना हुई। संत पापा पीयुस ग्यारहवें ने 11 जून 1932 को अपने प्रेरितिक विधान क्रीस्तो पास्तोरुम प्रिन्चिपि (Cristo pastorum principi) द्वारा सीरो-मलंकरा काथलिक वरिष्ठता क्रम की स्थापना की। सन् 2005 में संत पापा योहन पौलुस द्वितीय ने सीरो मलंकरा काथलिक कलीसिया को प्रधान महाधर्माध्यक्षीय कलीसिया का दर्जा प्रदान किया।
भारत के विश्वासियों को तीनों पूजनविधियों के अनुसार संस्कारों को मनाने की सुविधा है। इन तीनों पूजनविधियों को माननेवालों को मिल-जुलकर सुसमाचारीय कार्य को जारी रखना चाहिए। तीनों पूजनविधियों को समान अधिकार तथा दायित्व सौंपे गये हैं। भारत विभिन्नता में एकता के लिए मषहूर है। यहाँ ख्रीस्तीय विश्वासियों का यह कर्तव्य है कि वे कलीसिया में भी अनेकता में एकता बनाए रखें तथा एक दूसरे का सम्मान तथा आदर करें। इन तीनों पूजनविधियों को माननेवाले विश्वासियों को चाहिए कि वे स्थानीय संस्कृति का आदर करते हुए अपनी पूजनविधि के विकास तथा फैलाव के लिए कार्य करें। इस संबंध में सबों की यह प्राथमिकता होनी चाहिए कि वे प्रभु येसु के सुसमाचार को सबसे प्रभावशाली ढंग से सब लोगों तक पहुँचा सकें।
प्रश्नः
1. पूजनविधियों की शुरुआत कैसे हुई?
2. द्वितीय वतिकान महासभा पूर्वीय कलीसियाओं के बारे में हमें क्या षि़क्षा देती है?
3. भारत की काथलिक कलीसिया में कौन-कौन सी पूजनविधियाँ मौजूद हैं?
4. काथलिक कलीसिया में वर्तमान में कौन-कौन सी प्रधान महाधर्माध्यक्षीय कलीसियाएं हैं? इनमें से कौन-कौन सी कलीसियाएं भारत में मौजूद हैं?
5. सीरो-मलंकरा कलीसिया की शुरुआत कैसे हुई?
दलों में या पूरी कक्षा में चर्चा कीजिएः
भारत में मौजूद तीनों पूजनविधियों को माननेवालों के बीच पारस्परिक संबंधों को बढ़ाने के लिए क्या-क्या उपाय हम अपना सकते हैं?