22) तब सारी कलीसिया की सहमति से प्रेरितों तथा अध्यक्षों ने निश्चय किया कि हम में कुछ लोगों को चुन कर पौलुस तथा बरनाबस के साथ अन्ताखि़या भेजा जाये। उन्होंने दो व्यक्तियों को चुना, जो भाइयों में प्रमुख थे, अर्थात् यूदस को, जो बरसब्बास कहलाता था, तथा सीलस को,
23) और उनके हाथ यह पत्र भेजा: ’’प्रेरित तथा अध्यक्ष, आप लोगों के भाई, अन्ताखि़या, सीरिया तथा किलिकिया के ग़ैर-यहूदी भाइयों को नमस्कार करते हैं।
24) हमने सुना है कि हमारे यहाँ के कुछ लोगों ने, जिन्हें हमने कोई अधिकार नहीं दिया था, अपनी बातों से आप लोगों में घबराहट उत्पन्न की और आपके मन को उलझन में डाल दिया है।
25) इसलिए हमने सर्वसम्मति से निर्णय किया है कि प्रतिनिधियों का चुनाव करें और उन को अपने प्रिय भाई बरनाबस और पौलुस के साथ,
26) जिन्होंने हमारे प्रभु ईसा मसीह के नाम पर अपना जीवन अर्पित किया है, आप लोगों के पास भेजें।
27) इसलिए हम यूदस तथा सीलस को भेज रहे हैं। वे भी आप लोगों को यह सब मौखिक रूप से बता देंगे।
28) पवित्र आत्मा को और हमें यह उचित जान पड़ा कि इन आवश्यक बातों के सिवा आप लोगों पर कोई और भार न डाला जाये।
29) आप लोग देवमूर्तियों पर चढ़ाये हुए मांस से, रक्त, गला घोंटे हुए पशुओं के मांस और व्यभिचार से परहेज़ करें। इन से अपने को बचाये रखने में आप लोगों का कल्याण है। अलविदा!’’
30) वे विदा हो कर अन्ताखि़या चल दिये और वहाँ पहुँच कर उन्होंने भाइयों को एकत्र कर वह पत्र दिया।
31) पत्र की सान्त्वनापूर्ण बातें पढ़ने के बाद लोगों को बड़ा आनन्द हुआ।
12) मेरी आज्ञा यह है जिस प्रकार मैंने तुम लोगो को प्यार किया, उसी प्रकार तुम भी एक दूसरे को प्यार करो।
13) इस से बडा प्रेम किसी का नहीं कि कोई अपने मित्रों के लिये अपने प्राण अर्पित कर दे।
14) यदि तुम लोग मेरी आज्ञाओं का पालन करते हो, तो तुम मेरे मित्र हो।
15) अब से मैं तुम्हें सेवक नहीं कहूँगा। सेवक नहीं जानता कि उसका स्वामी क्या करने वाला है। मैंने तुम्हें मित्र कहा है क्योंकि मैने अपने पिता से जो कुछ सुना वह सब तुम्हें बता दिया है।
16) तुमने मुझे नहीं चुना बल्कि मैंने तुम्हें इसलिये चुना और नियुक्त किया कि तुम जा कर फल उत्पन्न करो, तुम्हारा फल बना रहे और तुम मेरा नाम लेकर पिता से जो कुछ माँगो, वह तुम्हें वही प्रदान करे।
17) मैं तुम लोगों को यह आज्ञा देता हूँ एक दूसरे को प्यार करो।
इस संसार में हम कई लोगो सें मिलते है और कई लोगों से जान पहचान बनाते है। कुछ हमें बहुुत पसंद आते है और हम उनसे अपनी दोस्ती के रिश्ते की शुरुआत करते है। इस संसार में कई दोस्त हमें मिल जाते है परंतु सच्चा दोस्त वही होता है जो बुरे वक्त में हमारी सहायता करें। ईश्वर की हम पूजा करते है, आराधना करते है, सेवा करते है उसे एक परम शक्तिशाली, परम पवित्र के रूप में देखते है। पर क्या वह परम पवित्र, परम शक्तिशाली ईश्वर के दोस्त बन सकते है? आज प्रभु येसु स्वामि और सेवक के रिश्ते से आगे बढ़कर हम सब के सामने दोस्ती का, मित्रता का हाथ बढ़ाते है।
मित्रता का रिश्ता प्रभु येसु ने अपना प्राण देकर निभाया क्योकि वह हम सबसे बहुत ही प्रेम करते है। हम किस प्रकार प्रभु येसु के मित्र बन सकते है? प्रभु कहते है, ‘‘यदि तुम लोग मेरी आज्ञाओं का पालन करते हो, तो तुम मेरे मित्र हो।’’ प्रभु हमको सेवक नहीं परंतु अपना मित्र बनाना चाहते है। जब मित्रता का रिश्ता घनिष्ट होता है तो दो मित्र एक दूसरे को बहुत अच्छी तरह जानते है तथा अपने व्यक्तिगत जीवन को एक दूसरे से साझा करते हैं। जो मित्र एक दूसरे को प्यार करते है वह उनके लिए कुछ भी करने के लिए तैयार रहते है, इसलिए लोग मित्रता की मिसाल दिया करते हैं।
आज हम सबके पास एक अवसर है कि हम भी उस प्रभु येसु के मित्र कहलाये जो हम सब से मित्रता बनाये रखता है। हम उनकी आज्ञाओं का पालन करें और उनके मित्र बने रहें।
✍फ़ादर डेनिस तिग्गाIn this world we meet lots of people and become familiarize with many. With the people we like we start the relationship of friendship with them. In this world we get many friends but the true friend is one who helps us in bad times.We worship, adore, serve God and we see Him as an Almighty and All Holy God. But can the Holy, Almighty God become our friend? Today Lord Jesus rising above the relationship of Owner and servant extends the hand of friendship towards us.
Jesus kept the relationship of friendship by sacrificing his life because of his steadfast love towards us. How can we become the friend of God? Jesus says, “You are my friends if you do what I command you.” Jesus doesn’t call us servants but he wants us to be his friends. When the relationship of friendship is deep then the two friends know each other very well and even share the personal life to each other. The friends who love each other are ready to do anything for each other that is why people give the example of friendship.
Today we have an opportunity to be called Jesus’ friends who keeps friendship with us.Obeying his commandments let’s remain to be called his friends.
✍ -Fr. Dennis Tigga