पास्का का दूसरा सप्ताह - शुक्रवार



पहला पाठ :प्रेरित-चरित 5:34-42

34) उस समय गमालिएल नामक फ़रीसी, जो संहिता का शास्त्री और सारी जनता में सम्मानित था, महासभा में उठ खड़ा हुआ। उसने प्रेरितों को थोड़ी देर के लिए बाहर ले जाने का आदेश दिया

35) और महासभा के सदस्यों से यह कहा, "इस्राइली भाइयों! आप सावधानी से विचार करें कि इन लोगों के साथ क्या करने जा रहे हैं।

36) कुछ समय पहले थेउदस प्रकट हुआ। वह दावा करता था कि मैं भी कुछ हूँ और लगभग चार सौ लोग उसके अनुयायी बन गये। वह मारा गया, उसके सभी अनुयारी बिखर गये और उनका नाम-निशान भी नहीं रहा।

37) उसके बाद, जनगणना के समय, यूदस गलीली प्रकट हुआ। उसने बहुत-से लोगों को बहका कर अपने विद्रोह में सम्मिलित कर लिया। वह भी नष्ट हो गया और उसके सभी अनुयायी बिखर गये।

38) इसलिए इस मामले के सम्बन्ध में मैं आप लोगों से यह कहना चाहता हूँ कि आप इनके काम में दखल न दें और इन्हें अपनी राह चलने दें। यदि यह योजना या आन्दोलन मनुष्यों का है, तो यह अपने आप नष्ट हो जायेगा।

39) परन्तु यदि यह ईश्वर का है, तो आप इन्हें नहीं मिटा सकेंगे और ईश्वर के विरोधी प्रमाणित होंगे।"

40) वे उसकी बात मान गये। उन्होंने प्रेरितों को बुला भेजा, उन्हें कोड़े लगवाये और यह कड़ा आदेश दे कर छोड़ दिया कि तुम लोग ईसा का नाम ले कर उपदेश मत दिया करो।

41) प्रेरित इसलिए आनन्दित हो कर महासभा के भवन से निकले कि वे {ईसा के} नाम के कारण अपमानित होने योग्य समझे गये।

42) वे प्रतिदिन मन्दिर में और घर-घर जा कर शिक्षा देते रहे और ईसा मसीह का सुसमाचार सुनाते रहे।

सुसमाचार : योहन 6:1-15

1) इसके बाद ईसा गलीलिया अर्थात् तिबेरियस के समुद्र के उस पर गये।

2) एक विशाल जनसमूह उनके पीछे हो लिया, क्योंकि लोगों ने वे चमत्कार देखे थे, जो ईसा बीमारों के लिए करते थे।

3) ईसा पहाड़ी पर चढ़े और वहाँ अपने शिष्यों के साथ बैठ गये।

4) यहूदियों का पास्का पर्व निकट था।

5) ईसा ने अपनी आँखें ऊपर उठायीं और देखा कि एक विशाल जनसमूह उनकी ओर आ रहा है। उन्होंने फिलिप से यह कहा, "हम इन्हें खिलाने के लिए कहाँ से रोटियाँ खरीदें?"

6) उन्होंने फिलिप की परीक्षा लेने के लिए यह कहा। वे तो जानते ही थे कि वे क्या करेंगे।

7) फिलिप ने उन्हें उत्तर दिया, "दो सौ दीनार की रोटियाँ भी इतनी नहीं होंगी कि हर एक को थोड़ी-थोड़ी मिल सके"।

8) उनके शिष्यों में एक, सिमोन पेत्रुस के भाई अन्द्रेयस ने कहा,

9) "यहाँ एक लड़के के पास जौ की पाँच रोटियाँ और दो मछलियाँ हैं, पर यह अतने लोगों के लिए क्या है,"

10) ईसा ने कहा, "लोगों को बैठा दो"। उस जगह बहुत घास थी। लोग बैठ गये। पुरुषों की संख्या लगभग पाँच हज़ार थी।

11) ईसा ने रोटियाँ ले लीं, धन्यवाद की प्रार्थना पढ़ी और बैठे हुए लोगों में उन्हें उनकी इच्छा भर बँटवाया। उन्होंने मछलियाँ भी इसी तरह बँटवायीं।

12) जब लोग खा कर तृत्त हो गये, तो ईसा ने अपने शिष्यों से कहा, "बचे हुए टुकड़े बटोर लो, जिससे कुछ भी बरबाद न हो"।

13) इस लिए शिष्यों ने उन्हें बटोर लिया और उन टुकड़ों से बारह टोकरे भरे, जो लोगों के खाने के बाद जौ की पाँच रोटियों से बच गये थे।

14) लोग ईसा का यह चमत्कार देख कर बोल उठे, "निश्चय ही यह वे नबी हैं, जो संसार में आने वाले हैं"।

15) ईसा समझ गये कि वे आ कर मुझे राजा बनाने के लिए पकड़ ले जायेंगे, इसलिए वे फिर अकेले ही पहाड़ी पर चले गये।

📚 मनन-चिंतन

प्रभु के जीवन, मृत्यु एवं पुनरूत्थान की घटनाओं तथा पेंतेकोस्त के दिन पवित्र आत्मा के उतरने से प्रेरित नयी स्फूर्ति तथा सामर्थ्य से भर गये थे। वे पुनर्जीवित प्रभु का प्रचार साहस एवं बेहद प्रभावी रूप से कर रहे थे। यहूदी नेता येसु की सच्चाई के प्रति अंधे थे तथा किसी भी तरीके से वे प्रेरितों के प्रचार कार्य का दमन करना चाहते थे। उनके पास राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक तथा वित्तीय ताकतें थी जिसके द्वारा वे आक्रामक रूप से इन्हें दबाने का प्रयत्न कर रहे थे। इस पृष्ठभूमि में एक फरीसी गमालिएल जो संहिता का शास्त्री था ने ईश्वर पर भरोसा रखने का सुझाव देते हुये बताया कि पहले भी ऐसे अनेक आंदोलन हुये जो ऐसे प्रतीत होते थे मानो वह सफल होंगे किन्तु उनका दुःखद अंत हुआ। इसी प्रकार ख्राीस्त के प्रचार का यह प्रयास यदि मानवीय प्रयास है तो यह भी विफल हो जायेगा।

गमालिएल ने ईश्वर के सामर्थ्य में सच्चा विश्वास दिखाया। वह महासभा के सदस्यों से कहता हैं, ’’आप इनके काम में दखल न दें और इन्हें अपनी राह चलने दें। यदि यह योजना या आन्दोलन मनुष्यों का है तो यह अपने आप नष्ट हो जायेगा। परन्तु यदि यह ईश्वर का है तो आप इन्हें नहीं मिटा सकेंगे और ईश्वर के विरोधी प्रमाणित होंगे। ईश्वर के हाथों में सारी स्थिति सौंपने की यह बात साहसपूर्ण थी। ऐसा करने के लिये हमें गहरे विश्वास की आवश्यकता होती है अन्यथा परिस्थितियां हमें तबाह कर सकती है। राजा दाउद ईश्वर की अभिमुख मनुष्य था। वे जीवन की घटनाओं को ईश्वर के दृष्टिकोण से देखते थे। जब उन्हें अपनी जान बचाने के भागना पडा तो साउल का वंशज शिमई उसे कोसता है किन्तु दाउद इस बात से कतई उत्तेजित नहीं होते तथा कहते हैं, ’’यदि वह इसलिए दाऊद को कोसता है कि प्रभु ने उसे ऐसा करने की प्रेरणा दी है, तो कौन पूछ सकता है कि तुम ऐसा क्यों कर रहे हो?.....उसे कोसने दो, क्योंकि प्रभु ने उसे ऐसा करने की प्रेरणा दी है।’’ (2 समूएल 16:10-12) संत पौलुस ईश्वर की उदारता का आश्वासन देते हुये कहते हैं, ’’हम जानते हैं कि जो लोग ईश्वर को प्यार करते हैं और उसके विधान के अनुसार बुलाये गये हैं, ईश्वर उनके कल्याण के लिए सभी बातों में उनकी सहायता करता है’’। (रोमियों 8:28)

फादर रोनाल्ड वाँन

📚 REFLECTION


After the events related to Jesus’ life, death, resurrection and outpouring of the Holy Spirit at the Pentecost apostles were filled with great energy and strength. They were proclaiming the Risen Lord with unspoken boldness and emphatic. The Jews leaders being blind to the reality of the resurrection were terribly hostile and wanted to snub the apostles’ proclamation activities. They had the political, social, religious and financial muscle power to suppress the movement and in fact they were aggressively doing it. in such a scenario Gamaliel a Pharisee, a teacher of the law, dared to trust God, even if it means losing ground. He cited the earlier movements that seemed so real and powerful that everyone thought they might be game changer. However, after initial hype they were doomed to oblivion.

Gamaliel displayed a real faith in the power of God. He exhorted the council with the words, “Keep away from these men and let them alone; because if this plan or this undertaking is of human origin, it will fail; but if it is of God, you will not be able to overthrow them—in that case you may even be found fighting against God!’ (Acts 5:38-39) It was a brave call to leave the things or situation into God’s hands. Many a times when we are at the cross roads and find it difficult to discern, it is better to leave the things in God’s hand. For this we need to have a depth in our faith otherwise things or situations will tear us apart. King David was the man after the heart of God. He would always see things from God’s perspective. He had to a flee to save his life and when during this run, he had to face the abusive curses of Shimei but David refused to take offence at the cursing of the Shimei, descendent of Saul saying, “If he is cursing because the Lord has said to him, “Curse David”, who then shall say, “Why have you done so?”….It may be that the Lord will look on my distress, and the Lord will repay me with good for this cursing of me today.’ (2 Samuel 16:10-12) St. Paul assures us of God’s benevolent help, “We know that in everything God works for good with those who love him, who are called according to his purpose. ” (Romans 8:28)

-Fr. Ronald Vaughan


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