17) यह सब देख कर प्रधानयाजक और उसके सब संगी-साथी, अर्थात् सदूकी सम्प्रदाय के सदस्य, ईर्ष्या से जलने लगे।
18) उन्होंने प्रेरितों को गिरफ्तार कर सरकारी बन्दीगृह में डाल दिया।
19) परन्तु ईश्वर के दूत ने रात को बन्दीगृह के द्वार खोल दिये और प्रेरितों को बाहर ले जा कर यह कहा,
20) "जाइए और निडर हो कर मन्दिर में जनता को इस नव-जीवन की पूरी-पूरी शिक्षा सुनाइए"। उन्होंने यह बात मान ली और भोर होते ही वे मन्दिर जा कर शिक्षा देने लगे।
21) जब प्रधानायाजक और उसके संगी-साथी आये, तो उन्होंने महासभा अर्थात् इस्राएली नेताओं की सर्वोच्च परिषद् बुलायी और प्रेरितों को ले आने के लिए प्यादों को बन्दी-गृह भेजा।
22) जब प्यादे वहाँ पहुँचे, तो उन्होंने प्रेरितों को बन्दीगृह में नहीं पाया। उन्होंने लौट कर यह समाचार दिया,
23) "हमने देखा कि बन्दीगृह बड़ी सावधानी से बन्द किया हुआ है और पहरेदार फाटकों पर तैनात हैं, किन्तु खोलने पर हमें भीतर कोई नहीं मिला।
24) यह सुन कर मन्दिर-आरक्षी के नायक और महायाजक यह नहीं समझ पा रहे थे कि प्रेरितों का क्या हुआ है।
25) इतने में किसी ने आ कर उन्हें यह समाचार दिया, "देखिए, आप लोगों ने जिन व्यक्तियों को बन्दीगृह में डाल दिया, वे मन्दिर में जनता को शिक्षा दे रहे हैं"।
26) इस पर मन्दिर का नायक अपने प्यादों के साथ जा कर प्रेरितों को ले आया। वे प्रेरितो को बलपूर्वक नहीं लाये, क्योंकि वे लोगों से डरते थे कि कहीं हम पर पथराव न करें।
16) ईश्वर ने संसार को इतना प्यार किया कि उसने इसके लिए अपने एकलौते पुत्र को अर्पित कर दिया, जिससे जो उस में विश्वास करता हे, उसका सर्वनाश न हो, बल्कि अनन्त जीवन प्राप्त करे।
17) ईश्वर ने अपने पुत्र को संसार मं इसलिए नहीं भेजा कि वह संसार को दोषी ठहराये। उसने उसे इसलिए भेजा कि संसार उसके द्वारा मुक्ति प्राप्त करे।
18) जो पुत्र में विश्वास करता है, वह दोषी नहीं ठहराया जाता है। जो विश्वास नहीं करता, वह दोषी ठहराया जा चुका है; क्योंकि वह ईश्वर के एकलौते पुत्र के नाम में विश्वास नहीं करता।
19) दण्डाज्ञा का कारण यह है कि ज्योति संसार में आयी है और मनुष्यों ने ज्योति की अपेक्षा अन्धकार को अधिक पसन्द किया, क्योंकि उनके कर्म बुरे थे।
20) जो बुराई करता है, वह ज्योंति से बैर करता है और ज्योति के पास इसलिए नहीं आता कि कहीं उसके कर्म प्रकट न हो जायें।
21) किन्तु जो सत्य पर चलता है, वह ज्योति के पास आता है, जिससे यह प्रकट हो कि उसके कर्म ईश्वर की प्रेरणा से हुए हैं।
अधिकाश लोग चमत्कार एवं दिव्य उपहारों को खोजते हैं और ऐसा करने में कोई हर्ज भी नहीं है। लेकिन स्वयं से यह सवाल भी पूछना चाहिये कि हम इन्हें क्यों चाहते हैं। यदि इन अभिलाषाओं एवं उपहारों को व्यक्तिगत और सांसारिक लाभ के लिये की जा रही हो तो वे शायद ही हमें मिले। किन्तु यदि वे ईश्वर की महिमा के लिये हो तो ईश्वर लौकिक एवं अलौकिक रूप से अवश्य ही हस्तक्षेप कर सकते हैं। ईश्वर के उपहार समुदाय के कल्याण के लिये होते हैं। ये ईश्वर की शक्ति एवं सामर्थ्य के चिन्ह होते हैं। जब पावन आत्मा के वरदान प्रत्याक्ष रूप में विश्वासियों और गैर-विश्वासियों पर प्रकट होते हैं तो वह लोगों के विश्वास को बढाता तथा ढांढस देता है ईश्वर समीप ही है तथा वह हमारे कल्याण के लिये कार्यरत है। जब ईश्वर अपने प्रेम, शक्ति-सामर्थ्य और प्रज्ञा को विश्वाससियों के द्वारा प्रदर्शित करता है तो गैर-विश्वासी इस चमत्कारों के समक्ष ईश्वर की सत्यता से रूबरू होते हैं। जो लोग ईश्वर प्रद्त्त उपहारों या चमत्कारों को करते हैं, वे लोगों की सेवा एवं कल्याण के लिये, मात्र ईश्वर के उपकरण एवं माध्यम होते हैं। हमें इन चमत्कारों को तुच्छ मानवीय लाभ की दृष्टि या दायरे से नहीं देखना चाहिये।
जब ईर्ष्या की भावना से महायाजक तथा अन्यों ने प्रेरितों का गिरफतार कर जेल में डालवा दिया था तो ईश्वर ने उन्हें आश्चर्यजनक ढंग से मुक्त कर दिया। कारावास के द्वार अपने आप खुल जाते हैं और वे बाहर आ जाते हैं। पहरेदारों ने द्वारों को ताला बंद पाया किन्तु प्रेरित अंदर नहीं थे। ईश्वर ने प्रेरितों को इस अलौकिक रूप इसलिये मुक्त कराया ताकि वे जाकर उन्हीं लोगों के समक्ष गवाही दे सके जिन्होंने उन्हें गिरफतार किया था। इस मुक्तिकार्य से विरोधी अंचभित थे। वे उनके इस प्रकार कारावास से छुटने को लेकर विस्मित थे। वे आश्चर्यचकित तो थे किन्तु इस महान कार्य में ईश्वर का सामर्थ्य पहचानने से इंकार करते हैं। महायाजकों तथा अन्य पुनः उनके विरूद्ध षडयंत्र रचने लगते हैं।
हमें अपने जीवन में तथा योजनाओं में इतना अधिक नहीं डूबना चाहिये कि हम ईश्वर की उपस्थिति को ही न पहचान पाये।
✍फादर रोनाल्ड वाँनWe seek miracles and divine gifts and we are not wrong in seekingthem in our lives. Sometimes it is good to ask ourselves so as why do we need them. If the gifts or miracles are meant for individual gains or mundane reasons then they may be hard to come by, however, if they are for the glory of God and not for vain human self then God may intervene even in some supernatural and human ways. God’s gifts are meant for the welfare of a larger community. They merely reflect God’s power among men. When the Holy Spirit works in various ways that can be perceived by believers and unbelievers, this encourages people’s faith that God is near and active and that he is working to fulfil his purposes in us and to bring blessings to his people. The unbelievers come face to face with the reality of the living God as He displays His power, His love, and His wisdom through His people.Those who receive God’s gifts are merely instruments of God for others. We must never confuse the gifts with petty selfish motives or gains.
When out of jealously the high priest and others arrested and put the apostles in public prison the Lord rescued them in an astonishing manner. The prison gates were opened and they moved out of the prison. The gourds found the prison securely locked but the apostles had not been there. The Lord did this great thing only to send them back to bear witness to the very people they had been arrested by. This rescue work left the oppositions into in to perplexity. They wonder how could some people be out of the tightly secured prison. They wondered about the incident but refused to believe God’s hand in such an extra-ordinary way. The chief priests and others still refused to believe in the power working in and through the apostles. They again began to plot how to destroy them.
We should not so much engrossed in our thinking and understanding of the events of life that we may fail to see God and his ways.
✍ -Fr. Ronald Vaughan