32) विश्वासियों का समुदाय एक हृदय और एकप्राण था। कोई भी अपनी सम्पत्ति अपनी ही नहीं समझता था। जो कुछ उनके पास था, उस में सबों का साझा था।
33) प्रेरित बड़े सामर्थ्य से प्रभु ईसा के पुनरुत्थान का साक्ष्य देते रहते थे और उन सबों पर बड़ी कृपा बनी रहती थी।
34) उन में कोई कंगाल नहीं था; क्योंकि जिनके पास खेत या मकान थे, वे उन्हें बेच देते और कीमत ला कर
35) प्रेरितों के चरणों में अर्पित करते थे। प्रत्येक को उसकी आवश्यकता के अनुसार बाँटा जाता था।
36) यूसुफ नामक लेवी-वंशी का जन्म कुप्रुस में हुआ था। प्रेरितों ने उसका उपनाम बरनाबस अर्थात् सान्त्वना-पुत्र रखा था।
37) उसकी एक जमीन थी। उसने उसे बेच दिया और उसकी कीमत ला कर प्रेरितों के चरणों मं अर्पित कर दी।
7) आश्चर्य न कीजिए कि मैंने यह कहा- आप को दुबारा जन्म लेना है।
8) पवन जिधर चाहता, उधर बहता है। आप उसकी आवाज सुनते हैं, किन्तु यह नहीं जानते कि वह किधर से आता और किधर जाता है। जो आत्मा से जन्मा है, वह ऐसा ही है।’’
9) निकोदेमुस ने उन से पूछा, ‘‘यह कैसे हो सकता है?’’
10) ईसा ने उसे उत्तर दिया, ‘‘आप इस्राएल के गुरु हैं और ये बातें भी नहीं समझते!
11) मैं आप से यह कहता हूँ- हम जो जानते हैं, वही कहते हैं और हमने जो देखा है, उसी का साक्ष्य देते हैं; किन्तु आप लोग हमारा साक्ष्य स्वीकार नहीं करते।
12) मैंने आप को पृथ्वी की बातें बतायीं और आप विश्वास नहीं करते। यदि मैं आप को स्वर्ग की बातें बताऊँ, तो आप कैसे विश्वास करेंगे?
13) मानव पुत्र स्वर्ग से उतरा है। उसके सिवा कोई भी स्वर्ग नहीं पहुँचा।
14) जिस तरह मूसा ने मरुभूमि में साँप को ऊपर उठाया था, उसी तरह मानव पुत्र को भी ऊपर उठाया जाना है,
15) जिससे जो उस में विश्वास करता है, वह अनन्त जीवन प्राप्त करे।’’
आदिम कलीसिया के चरित्र की मुख्य विशेषता उनका प्रभु के प्रति उत्साह एवं जोश था। उनका उत्साह इतना अधिक था कि वे येसु के लिये कोई भी खतरा उठाने को तैयार थे। हम सब अपने भविष्य के लिये आर्थिक रूप से कुछ न कुछ तैयारी करके रखते हैं ताकि किसी भी परिचित-अपरिचित घटनाक्रम से निपटा जा सके। लेकिन इन विश्वासियों ने प्रभु के प्रति अपने उत्साह के सामने इस पांरपरिक बुद्धिमता को नगण्य माना। एक-दूसरे की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये वे अपनी व्यक्तिगत संपत्ति को भी बेचकर उसका धन प्रेरितों को सौंपा करते थे। उनमें किसी की जरूरत अधूरी नहीं रहती थी। यह कितनी अविस्मणीय तथा मनभावन स्थिति थी।
दुनिया में कई विचारधाराओं ने सामाजिक एवं आर्थिक समानता एवं बराबरी स्थापित करने का प्रयास किया। इनमें मार्क्सवाद, साम्यवाद, समाजवाद आदि प्रमुख है। इन विचारधाराओं ने कुछ समय के लिये सबको चकमित कर रखा था किन्तु समय के साथ-साथ इनकी अप्रसांगिकता एवं खोलखापन भी उजागर हो गया। इनका उददेश्य समानता हासिल करना था जिसमें वे विफल रहे किन्तु आदिम कलीसिया ने तो वह समानता पूर्णरूप तथा स्वेच्छा से कई सौ साल पूर्व प्राप्त कर ली थी। इन विचारधाराओं में ईश्वर की कमी थी। इनके सिद्धांत जल्द ही हाशिये पर पहुॅच गये। किन्तु आदिम कलीसिया के उत्साह की मूल प्रेरणा ईश्वर था जिसने उन्हें दूसरों के कल्याण के लिये बुलाया था।
जब हम अपने आधुनिक समाज या फिर अपने अंदर झांककर टटोले तो पायेंगे कि हम सभी स्वार्थी तथा ज्यादा दुनियावी समझदारी से भरे पडे है। अपनी सम्पति को बचाये रखने के लिये हमारे पास सैकडो कारण है। जबकि दूसरे के लिये हमारी सम्पत्ति का कुछ अंश भी उसकी आवश्यकताओं को पूरी कर सकता है। यदि हम दूसरों की जरूरतों के प्रति उत्साह या संवेदनशीलता नहीं दिखा पाते हैं तो इसकी मुख्य वजह यह है कि हमने येसु को अपनी शक्ति और बुद्धि से प्रेम नहीं किया है। येसु के प्रति हमारे प्रेम में उत्साह एवं जोश की कमी है। आइये हम इन विश्वासियों के समूह से प्रेरणा प्राप्त करे।
✍फादर रोनाल्ड वाँनOne of the most extra-ordinary characteristics of the early Christian community was their passion and zeal for the Lord. Their passion was so great that they were willing to take any risk in their life. We keep some savings for futureto be prepared to meet the demands of any eventuality. But the believers did not take into account any of those conventional wisdom. For need of the believers’ community they were even selling off their possessions and handing over money to the apostles to meet the needs of the community. There was not a needy person among them. What a marvellous situation it was. All were equal, all share common good and there was an exceptional unity and harmony among them.
Many ideologies have come to forefront to redefine and restructure the economy and social order of the world. The ideologies such as the Marxist, Communists, Socialist etc. had all envisioned what the first Christian community had already achieved. These ideologies mesmerised the world for a while and then eventually were damped into the oblivion. The ideologies tried to achieve it without the love of God. They were devoid of God. On the contrary the believers’ community had nothing but love. They were overflowing with love for the Lord and for one another. It was the love and passion for Jesus that people were happily and willingly parting away from their possessions to meet the needs of the other.
As we look around and even probe into our own hearts, we find ourselves guilty of being selfish and calculative. We often have a reason to hold on to what we have even while it means a world for poor and the needy. If we lack desire and motivation to part away from our possession it is because we have not loved Jesus enough. Our love for Jesus lacks passion and flare. Let us take the inspiration from them and do likewise.
✍ -Fr. Ronald Vaughan