7) प्रभु ने मूसा से कहा, ''पर्वत से उतरो, क्योंकि तुम्हारी प्रजा, जिसे तुम मिस्र से निकाल लाये हो, भटक गयी है।
8) उन लोगों ने शीघ्र ही मेरा बताया हुआ मार्ग छोड़ दिया। उन्होंने अपने लिए ढली हुई धातु का बछड़ा बना कर उसे दण्डवत किया और बलि चढ़ा कर कहा, ''इस्राएल; यही तुम्हारा देवता है। यही तुम्हें मिस्र से निकाल लाया।''
9) प्रभु ने मूसा से कहा, ''मैं देख रहा हूँ कि ये लोग कितने हठधर्मी हैं।
10) मुझे इनका नाश करने दो। मेरा क्रोध भड़क उठेगा और इनका सर्वनाश करेगा। तब मैं तुम्हारे द्वारा एक महान् राष्ट्र उत्पन्न करूँगा।''
11) मूसा ने अपने प्रभु-ईश्वर का क्रोध शान्त करने के उद्देश्य से कहा, ''प्रभु; यह तेरी प्रजा है, जिसे तू सामर्थ्य तथा भुजबल से मिस्र से निकाल लाया। इस पर तू कैसे क्रोध कर सकता है?
12) मिस्रियों को यह कहने का अवसर क्यों मिले कि बुरे उद्देश्य से वह उन्हें निकाल लाया जिससे वह उन्हें पर्वतों के बीच मार डाले और पृथ्वी पर से मिटा दे? अपनी क्रोधाग्नि को शान्त कर और अपनी प्रजा पर विपत्ति न आने दे।
13) अपने सेवकों को, इब्राहीम, इसहाक और याकूब को याद कर। तूने शपथ खा कर उन से यह प्रतिज्ञा की है - मैं तुम्हारी संतति को स्वर्ग के तारों की तरह असंख्य बनाऊँगा और अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार तुम्हारे वंशजों को यह समस्त देश प्रदान करूँगा और वे सदा के लिए इसके उत्तराधिकारी हो जायेगे।''
14) तब प्रभु ने अपनी प्रजा को दण्ड देने की जो धमकी दी थी, उसका विचार छोड़ दिया।
32) कोई दूसरा मेरे विषय में साक्ष्य देता है और मैं जानता हूँ कि वह मेरे विषय में जो साक्ष्य देता है, वह मान्य है।
33) तुम लोगों ने योहन से पुछवाया और उसने सत्य के सम्बन्ध में साक्ष्य दिया।
34) मुझे किसी मनुष्य के साक्ष्य की आवश्यकता नहीं। मैं यह इसलिए कहता हूँ कि तुम लोग मुक्ति पा सको।
35) योहन एक जलता और चमकता हुआ दीपक था। उसकी ज्योति में थोड़ी देर तक आनन्द मनाना तुम लोगों को अच्छा लगा।
36) परन्तु मुझे जो साक्ष्य प्राप्त है, वह योहन के साक्ष्य से भी महान् है। पिता ने जो कार्य मुझे पूरा करने को सौंपे हैं, जो कार्य मैं करता हूँ, वही मेरे विषय में यह साक्ष्य देते हैं कि मुझे पिता ने भेजा है।
37) पिता ने भी, जिसने मुझे भेजा, मेरे विषय में साक्ष्य दिया है। तुम लोगों ने न तो कभी उसकी वाणी सुनी और न उसका रूप ही देखा।
38) उसकी शिक्षा तुम लोगों के हृदय में घर नहीं कर सकी, क्योंकि तुम उस में विश्वास नहीं करते, जिसे उसने भेजा।
39) तुम लोग यह समझ कर धर्मग्रंथ का अनुशीलन करते हो कि उस में तुम्हें अनन्त जीवन का मार्ग मिलेगा। वही धर्मग्रन्ध मेरे विषय में साक्ष्य देता है,
40) फिर भी तुम लोग जीवन प्राप्त करने के लिए मेरे पास आना नहीं चाहते।
41) मैं मनुष्यों की ओर से सम्मान नहीं चाहता।
42) ‘‘मैं तुम लोगों के विषय में जानता हूँ कि तुम ईश्वर से प्रेम नहीं करते।
43) मैं अपने पिता के नाम पर आया हूँ, फिर भी तुम लोग मुझे स्वीकार नहीं करतें यदि कोई अपने ही नाम पर आये, तो तुम लोग उस को स्वीकार करोगे।
44) तुम लोग एक दूसरे से सम्मान चाहते हो और वह सम्मान नहीं चाहते, जो एक मात्र ईश्वर की ओर से आता है? तो तुम लोग कैसे विश्वास कर सकते हो?
45) यह न समझो कि मैं पिता के सामने तुम लोगों पर अभियोग लगाऊँगा। तुम पर अभियोग लगाने वाले तो मूसा हैं, जिन पर तुम भरोसा रखते हो।
46) यदि तुम लोग मूसा पर विश्वास करते, तो मुझ पर भी विश्वास करते; क्योंकि उन्होंने मेरे विषय में लिखा है।
47) यदि तुम लोग उनके लेखों पर विश्वास नहीं करते, तो मेरी शिक्षा पर कैसे विश्वास करोगे?’’
आज के सुसमाचार द्वारा हमसे यह पूछा जाता है कि प्रभु येसु में हमारा विश्वास कितना गहरा है? क्या हम येसु को मुक्तिदाता के रूप में स्वीकार करते है? क्या हम संत थोमस के समान है जिन्होंने कहा कि जब तक में उनके हाथों में कीलों का निशान न देख लॅू, कीलों की जगह पर अपनी उॅगली न रख दॅू और उनकी बग़ल में अपना हाथ न डाल दॅू, तब तक मैं विश्वास नहीं करूॅगा। या हम प्रेत्रुस के समान है जिन्होंने उत्तर दिया आप मसीह हैं, आप जीवन्त ईश्वर के पुत्र है। प्रभु हम किसके पास जायें आपके ही शब्दों में अनन्त जीवन का सन्देश है।
आज के पहला पाठ निर्गमन 32 में हम देखते है कि इस्राएली जनता ईश्वर को एकदम छोड देते है। मूसा प्रार्थना केलिए पहाड पर चढा तो लोगों ने अपने लिए ढली हुई धातु का बछडा बना कर उसे इण्डवत किया और बलि चढ़ा कर कहा, इस्राएल यही तुम्हारा देवता है। यही तुम्हें मिस्र से निकाल लाया। यानी इस्राएली जनता ईश्वर द्वारा प्रकट किया गया सारे के सारे चिन्ह और चमत्कार भूल जाते है और अन्य देवता की पूजा करती है। सुसमाचार में भी हम यही देखते है कि प्रभु येसु कई प्रकार के चिन्ह और चमत्कार प्रकट करने के बावजूद भी कुछ लोग येसु में विश्वास नहीं करते है।
हमारे जीवन में ईश्वर को प्रथम स्थान देना, उनकी आराधना करना पूजा करना सबसे मुख्य बात है। इसलिए दस आज्ञाओ में सबसे पहली आज्ञा यह है कि मैं प्रभु तुम्हारा ईश्वर हॅू। मेरी ही आराधना करना। मेरे सिवा तुम्हारा कोई ईश्वर नहीं होगा। जब हम ईश्वर पर विश्वास न करते हुए दुनिया की चीज़ों पर भरोसा करते हैं तब हम ईश्वर से अलग हो जाते है और हम अन्धकार में भटकते है। इन लोगों के बारे में संत पौलूस 2 कुरिन्थियों 4:4 में कहते है इस संसार के देवता ने अविश्वासियों का मन इतना अन्धा कर दिया है कि वे इ्रश्वर के प्रतिरूप, मसीह के महिमामय सुसमाचार की ज्योति को देखने में असमर्थ हैं। जीस प्रकार मारकुस 9:24 में अपदूत ग्रस्थ लडके के पिता ने येसु से प्रार्थना की वैसे हम भी प्रार्थना करें, प््राभु मैं विश्वास करता हॅू, मेरे अल्पविश्वास की कमी पूरी कीजिए।
✍ -फादर शैलमोन आन्टनी
Through the gospel of today, we are asked a question that how deed are our faith in Jesus? Do we accept Jesus as the savior? Are we like St. Thomas who said unless I see the mark of the nails in his hands, and put my finger in the mark of the nails and my hand in his side, I will not believe! Or are we like St. Peter who said to Jesus, you are the Son of God, where else can we go, you have the words of eternal life.
In today’s first reading Ex 32 we see that the Israelites forgets their God all of a sudden. Moses went to pray on the mountain at that time people of Israel took off their gold and formed it in a mold and cast an image of a calf and they said these are the gods who brought us out of the land of Egypt and they began to worship. The same people had witnessed mighty wonders and miracles that the Lord had performed in front of their eyes. Yet they forgot about that and began to worship the golden calf. The same thing we see in today’s gospel as well; that Jesus performed many miracles yet some people are not believing in Jesus.
What is the most important thing in our life is to give the first place to God and to worship him at all times. This is the most important thing; that’s why among the ten commandments the first commandment is to worship the Lord our God. There should not be any other God besides him. When we don’t give the first place for God and go after the things of the world then we get away from God and darkness enters into us. Therefore St. Paul says in 2 Cor 4:4 in their case the god of this world has blinded the minds of the unbelievers, to keep them from seeing the light of the gospel of the glory of Christ, who is the image of God. Let’s pray like the father of the child affected by demon, Lord I believe; help my unbelief.
✍ -Fr. Shellmon Antony