5) प्रभु यह कहता है: “धिक्कार उस मनुष्य को, जो मनुष्य पर भरोसा रखता है, जो निरे मनुष्य का सहारा लेता है और जिसका हृदय प्रभु से विमुख हो जाता है!
6) वह मरुभूमि के पौधे के सदृश है, जो कभी अच्छे दिन नहीं देखता। वह मरुभूमि के उत्तप्त स्थानों में- नुनखरी और निर्जन धरती पर रहता है।
7) धन्य है वह मनुष्य, जो प्रभु पर भरोसा रखता है, जो प्रभु का सहारा लेता है।
8) वह जलस्रोत के किनारे लगाये हुए वृक्ष के सदृश हैं, जिसकी जड़ें पानी के पास फैली हुई हैं। वह कड़ी धूप से नहीं डरता- उसके पत्ते हरे-भरे बने रहते हैं। सूखे के समय उसे कोई चिंता नहीं होती क्योंकि उस समय भी वह फलता हैं।“
9) मनुष्य का हृदय सब से अधिक कपटी और अविश्वसनीय हैं। उसकी थाह कौन ले सकता है?
10) “मैं प्रभु, मनुष्य का हृदय और अन्तरतम जानता हूँ। मैं हर एक को उसके आचरण और उसके कर्मों का फल देता हूँ“।
19) "एक अमीर था, जो बैंगनी वस्त्र और मलमल पहन कर प्रतिदिन दावत उड़ाया करता था।
20) उसके फाटक पर लाज़रूस नामक कंगाल पड़ा रहता था, जिसका शरीर फोड़ों से भरा हुआ था।
21) वह अमीर की मेज़ की जूठन से अपनी भूख मिटाने के लिए तरसता था और कुत्ते आ कर उसके फोड़े चाटा करते थे।
22) वह कंगाल एक दिन मर गया और स्वर्गदूतों ने उसे ले जा कर इब्राहीम की गोद में रख दिया। अमीर भी मरा और दफ़नाया गया।
23) उसने अधोलोक में यन्त्रणाएँ सहते हुए अपनी आँखें ऊपर उठा कर दूर ही से इब्राहीम को देखा और उसकी गोद में लाज़रूस को भी।
24) उसने पुकार कर कहा, ‘पिता इब्राहीम! मुझ पर दया कीजिए और लाज़रुस को भेजिए, जिससे वह अपनी उँगली का सिरा पानी में भिगो कर मेरी जीभ ठंडी करे, क्योंकि मैं इस ज्वाला में तड़प रहा हूँ’।
25) इब्राहीम ने उस से कहा, ‘बेटा, याद करो कि तुम्हें जीवन में सुख-ही-सुख मिला था और लाज़रुस को दुःख-ही-दुःख। अब उसे यहाँ सान्त्वना मिल रही है और तुम्हें यन्त्रणा।
26) इसके अतिरिक्त हमारे और तुम्हारे बीच एक भारी गत्र्त अवस्थित है; इसलिए यदि कोई तुम्हारे पास जाना भी चाहे, तो वह नहीं जा सकता और कोई भ़ी वहाँ से इस पार नहीं आ सकता।’
27) उसने उत्तर दिया, ’पिता! आप से एक निवेदन है। आप लाज़रुस को मेरे पिता के घर भेजिए,
28) क्योंकि मेरे पाँच भाई हैं। लाज़रुस उन्हें चेतावनी दे। कहीं ऐसा न हो कि वे भी यन्त्रणा के इस स्थान में आ जायें।’
29) इब्राहीम ने उस से कहा, ‘मूसा और नबियों की पुस्तकें उनके पास है, वे उनकी सुनें‘।
30) अमीर ने कहा, ‘पिता इब्राहीम! वे कहाँ सुनते हैं! परन्तु यदि मुरदों में से कोई उनके पास जाये, तो वे पश्चात्ताप करेंगे।’
31) पर इब्राहीम ने उस से कहा, ‘जब वे मूसा और नबियों की नहीं सुनते, तब यदि मुरदों में से कोई जी उठे, तो वे उसकी बात भी नहीं मानेंगे’।’
हमारे आध्यात्मिक जीवन में हमेशा हरा भरा रहने केलिए हमें ईश्वर पर भरोसा रखते हुए जीवन बिताना होगा। आज के पहले पाठ में इसी को समर्थन देते हुए नबी यिरमियाह कहते है कि जो प्रभु पर भरोसा रखता है, जो प्रभु का सहारा लेता है वह जलस्रोत के किनारे लगाये हूए वृक्ष के सदृश है, जिसकी जड़े पानी के पास फेली हुई हैं। वह कड़ी धूप से नहीं डरता- उसके पत्ते हरे-भरे बने रहते हैं। सूखे के समय उसे कोई चिन्ता नहीं होती, क्योंकि उस समय भी वह फलता है। (यिरमियाह 17:7-8) स्तोत्र ग्रन्थ में कहते है धर्मी खजूर की तरह फलता-फूलता और लेबनोन के देवदार की तरह बढता है। वे प्रभु के मन्दिर में रोपे गये है, वे हमारे ईश्वर के प्रागण में फलते-फूलते है। वे लम्बी आयु में भी फलदार है। वे रसदार और हरे-भरे रहते है। (स्तोत्र 92:13-15); जो प्रभु का नियम ह्रदय से चाहता और दिन-रात उसका मनन करता है वह उस वृक्ष के सदृश है, जो जलस्रोत के पास लगाया गया, जो समय पर फल देता है, जिसके पत्ते कभी मुरझाते नहीं। (स्तोत्र 1:2-3)
हमारे जीवन काल में हम संसार के वस्तुवों पर या मनुष्यों पर भरोसा न रखे क्योंकि वे सब हमें बचाने में असमर्थ है। वचन कहता है न तो शासकों का भरोसा करो और न किसी मनुष्य का, जो बचाने में असमर्थय हैं। वे प्राण निकलते ही मिट्टि में मिल जाते हैं और उसी दिन उनकी सब योजनाएॅ व्यर्थ हा जाती है। (स्तोत्र 146:3-4) इसलिए मनुष्यों पर भरोसा रखने की अपेक्षा प्रभु की शरण जाना अच्छा है। शासकों पर भरोसा रखने की अपेक्षा प्रभु की शरण जाना अच्छा है। (स्तोत्र 118:8-9) आज के सुसमाचार में हमने देख कि संसार के वस्तुवों पर भरोसा रखने से उस धनी व्यक्ति कैसे स्वर्ग राज्य में प्रवेश करने से वंचीत होगये।
संत पौलूस कहते है आपने ईसा मसीह को प्रभु के रुप में स्वीकार किया है; इसलिए उन्हीं से संयुक्त हो कर जीवन बितायें। उन्हीं में आपकी जड़ें गहरी हों और नींव सुदृढ़ हो। (कलोसियों 2:6-7) येसु कहते है कि मैं दाखलता हॅू और तुम डालियॉ हो। जो मुझ में रहता है और मैं जिस में रहता हॅू, वही बहुत फलता है; क्योंकि मुझ से अलग रह कर तुम कुछ भी नहीं कर सकते। (योहन 15:5) होसाया 14:8 मुझ से ही उसे फल मिलते है। हॉ प्रभु से जुडे रहने से हमारे जीवन का फल में परिवर्तन आयेगा;फल बडा होगा, फल का स्वाद बढे़ग, फल का संख्या बढेगी, फल का रंग और सुगंध बढेगा। इसलीए आईए हम जीवन के हर मौसम में ईश्वर के जुड़े रहकर जीवन व्यतित करें ताकी हमारा जीवन हर पल फलदायी रहे।
✍ -फादर शैलमोन आन्टनी
In our spiritual life in order to remain fresh we need to remain in the Lord. In the first reading Jeremiah affirms this and says “Blessed are those who trust in the Lord, whose trust is the Lord. They shall be like a tree planted by water, sending out its roots by the stream. It shall not fear when heat comes, and its leaves shall stay green; in the year of drought it is not anxious, and it does not cease to bear fruit. (Jer 17:7-8) Psalm 92:13-15 says “They are planted in the house of the Lord; they flourish in the courts of our God. In old age they still produce fruit; they are always green and full of sap showing that the Lord is upright; he is my rock and there is no unrighteousness in him.” Ps 1:2-3 but their delight is in the law of the Lord, and on his law they meditate day and night. They are like trees planted by streams of water, which yield their fruit in its season, and their leaves do not wither. In all that they do, they prosper.
In our life here on earth let’s not put our trust in the persons of this world and the things of this world, because they are unable to save us. The word of God says Ps 146:3-4 “Do not put your trust in princes, in mortals, in whom there is no help. When their breath departs, they return to the earth; on that very day their plans perish”. Ps 118:8-9 “It is better to take refuge in the Lord than to put confidence in mortals. It is better to take refuge in the Lord than to put confidence in princes”. In today’s gospel we read what happened to that rich man who put trust in material things. He had to go to hell after his life here on earth.
In Col 2:6-7 St. Paul says as you therefore have received Christ Jesus the Lord, continue to live your lives in him, rooted and built up in him and established in the faith, just as you were taught, abounding in thanksgiving. Jesus says in Jn 15:5 I am the vine, you are the branches. Those who abide in me and I in them bear much fruit, because apart from me you can do nothing. In Hosea 14:8 the Lord says your fruitfulness comes from me
Let’s be rooted in Jesus then there will be difference in our fruits. The size of the fruits will change, the color, taste, smell, number of our fruits will change. Therefore lets be rooted in Jesus in all seasons of our life so that our life may become fruitful.
✍ -Fr. Shellmon Antony