एस्तेर ने मृत्यु के भय से पीडित हो कर प्रभु की शरण ली और यह कहते हुए प्रभु, इस्राएल के ईश्वर से प्रार्थना की, “हे मेरे प्रभु! तू ही हमारा राजा है। मुझ एकाकिनी की सहायता कर। तुझे छोड कर मेरा कोई सहारा नहीं। मैं हथेली पर जान रखने जा रहीं हूँ। मुझे बचपन से ही अपने जाति-बन्धुओं से यह शिक्षा मिली है कि तूने सब राष्ट्रों में से इस्राएल को, अपनी चिरस्थायी प्रजा के रूप में अपनाया है और उन से जो-जो प्रतिज्ञा की थी, उसे पूरा करता रहा है।“
हे प्रभु! हमें याद कर। हमारी विपत्ति के समय हम पर दयादृष्टि कर। हे प्रभु! सर्वोच्च और सर्वाधिकार-सम्पन्न ईश्वर! मुझे साहस प्रदान कर। मैं सिंह के सामने उपस्थित होने जा रही हूँ। मेरे मुख में उपयुक्त शब्द रख और उसके हृदय में हमारे शत्रु का बैर उत्पन्न कर, जिससे हमारा शत्रु अपने समर्थकों के साथ नष्ट हो जाये।“
हे प्रभु! अपने हाथ से हमारी रक्षा कर और मुझे सहायता दे। हे प्रभु, तू सब कुछ जानता है – तुझे छोड़ कर मेरा कोई सहारा नहीं।“
7) "माँगो और तुम्हें दिया जायेगा; ढूँढ़ों और तुम्हें मिल जायेगा; खटखटाओं और तुम्हारे लिए खोला जायेगा।
8) क्योकि जो माँगता है, उसे दिया जाता है; जो ढुँढता है, उसे मिल जाता है और जो खटखटता है, उसके लिए खोला जाता है।
9) "यदि तुम्हारा पुत्र तुम से रोटी माँगे, तो तुम में ऐसा कौन है जो उसे पत्थर देगा?
10) अथवा मछली माँगे, तो उसे साँप देगा?
11) बुरे होने पर भी यदि तुम लोग अपने बच्चों को सहज ही अच्छी चीजें देते हो, तो तुम्हारा स्वर्गिक पिता माँगने वालों को अच्छी चीजें क्यों नहीं देगा?
12) "दूसरों से अपने प्रति जैसा व्यवहार चाहते हो, तुम भी उनके प्रति वैसा ही किया करो। यही संहिता और नबियों की शिक्षा है।
आज हम संत पेत्रुस, का पर्व मना रहे हैं। ये पर्व, चौथी शताब्दी से कैथोलिक कलीसिया में मनाया जाता आ रहा है।संत पिता और रोम के बिशप के रूप में संत पेत्रुस को सभी ख्रीस्तीयों के लिए एकता के प्रतीक के रूप में मना जाता है। सुसमाचार मे हम पढ़ते हैं कि प्रभु येसु पेत्रुस को चट्टान कहकर बुलाते हैं और कहते हैं कि तुम चट्टान हो और इस चट्टान पर मैं अपनी कलीसिया बनाऊंगा।
पर सुसमाचार में हम पढ़ते हैं कि वह पेत्रुस खुद को एक चट्टान तो क्या एक पत्थर से कमज़ोर पाता है जब वह अपने गुरु और प्रभु को उसके सामने अस्वीकार देता है। येसु के लिए अपनी जान भी देने का दावा करने वाला पेत्रुस येसु की मृत्यु के बाद अपने मछली मारने के पुराने पेशे पर वापस चला जाता है। प्ररन्तु वही पेत्रुस पुनरुत्थित येसु के सामर्थ्य से भरकर व पवित्रात्म से पोषित होकर बड़े उत्त्साह व हिम्मत के प्रभु के पुनरुत्थान का शाक्षी बनकर लोगों को विशवास में लता है। कमज़ोर व डरपोक पेत्रुस को ईश्वर वास्तव में इतना सामर्थ्यवान बनाता है कि सचमुच एक ऐसी चट्टान बन जाता है जिसपर ईश्वर अपनी कलीसिया स्थापित करता है, जिसके आगे अधोलोक के फाटक नहीं टिक सकते और जिसके हाथों में स्वर्ग राज्य की चाभियाँ है।
हम कितने शौभायशाली हैं कि हम पेत्रुस जैसी मज़बूत चट्टान पर निर्मित कलीसिया के सदस्य हैं जिसकी बागडोर आज संत पेत्रुस के अत्तरअधिकारी पोप फ्रांसिस संभाल रहे हैं। जो भी कलीसिया का इतिहास जानते हैं उन्हें मालूम है कि संत पेत्रुस से लेकर पापा फ्रांसिस तक संत पिता बनकर कलीसिया की अगुवाई करने वाले सब कमज़ोर रहे हैं, दुर्बल रहै हैं पर ईश्वर ने उन्हें अपनी शक्ति व समर्थ्य से बलवान बनाया और अपनी सेवकाई के योग्य बनाया है। आज वही प्रभु हम दुर्बल इंसानों पर अपनी कृपा करेंगे और हमारी कमज़ोरी को दूर करेंगे और अपनी कलीसिया में अपने स्तर पर सेवकाई करने के योग्य बनाएंगे।
✍ -फादर प्रीतम वसूनिया (इन्दौर धर्मप्रान्त)
Today’s feast, ‘The Chair of St Peter’ is an ancient feast that has been kept at Rome since the fourth century; it celebrates the role of the Bishop of Rome as a symbol of unity for all Christians. In the gospel reading, Simon Peter is singled out as the Rock on which Jesus wants to build his church. In his first letter to the Corinthians, Paul identifies Jesus as the foundation on which the church is built, and he declares that no one can lay any other foundation. Yet, here in Matthew’s gospel, Jesus identifies Peter as the rock, the foundation, on which the church is built. How can Matthew and Paul be reconciled? In the gospel reading, although Jesus singles out Peter as the rock on which the church is built, Jesus refers to the church as ‘my church’.
The church is the church of Jesus; it is not the church of Peter or of anybody else. If Peter is the rock on which Jesus’ church is built, he is so as the representative of Jesus, the true rock. His calling is to represent Jesus, to embody Jesus, in a unique way, to provide for Jesus’ church. That is the special calling of every bishop of Rome, every Pope, since the time of Peter. Anyone who knows anything about church history will be aware that not every Pope has lived up to that very special and challenging calling. Indeed, Peter himself was far from perfect, denying Jesus three times. Yet, the gospels show that after rising from the dead Jesus kept faith with Peter. It seems that Jesus is content to entrust great responsibility for his church to those who are prone to failure. Our present Pope Francis has a deep sense of himself as a loved and forgiven sinner. That is true of all of us. As loved sinners, we each have a vital role to play in the Lord’s church.
✍ -Fr. Preetam Vasuniya (Indore)