9) मैं देख ही रहा था कि सिंहासन रख दिये गये और एक वयोवृद्ध व्यक्ति बैठ गया। उसके वस्त्र हिम की तरह उज्जवल थे और उसके सिर के केश निर्मल ऊन की तरह।
10) उसका सिंहासन ज्वालाओं का समूह था और सिहंासन के पहिये धधकती अग्नि। उसके सामने से आग की धारा बह रही थी। सहस्रों उसकी सेवा कर रहे थे। लाखों उसके सामने खड़े थे। न्याय की कार्यवाही प्रारंभ हो रही थी। और पुस्तकें खोल दी गयीं।
13) तब मैंने रात्रि के दृश्य में देखा कि आकाश के बादलों पर मानवपुत्र-जैसा कोई आया। वह वयोवृद्ध के यहाँ पहुँचा और उसके सामने लाया गया।
14) उसे प्रभुत्व, सम्मान तथा राजत्व दिया गया। सभी देश, राष्ट्र और भिन्न-भिन्न भाषा-भाषी उसकी सेवा करेंगे। उसका प्रभुत्व अनन्त है। वह सदा ही बना रहेगा। उसके राज्य का कभी विनाश नहीं होगा।
16) जब हमने आप लोगों को अपने प्रभु ईसा मसीह के सामर्थ्य तथा पुनरागमन के विषय में बताया, तो हमने कपट-कल्पित कथाओं का सहारा नहीं लिया, बल्कि अपनी ही आंखों से उनका प्रताप उस समय देखा,
17) जब उन्हें पिता-परमेश्वर के सम्मान तथा महिमा प्राप्त हुई और भव्य ऐश्वर्य में से उनके प्रति एक वाणी यह कहती हुई सुनाई पड़ी, ’’यह मेरा प्रिय पुत्र है। मैं इस पर अत्यन्त प्रसन्न हूँ।’’
18) जब हम पवित्र पर्वत पर उनके साथ थे, तो हमने स्वयं स्वर्ग से आती हुई यह वाणी सुनी।
19) इस घटना द्वारा नबियों की वाणी हमारे लिए और भी विश्वसनीय सिद्ध हुई। इस पर ध्यान देने में आप लोगों का कल्याण है, क्योंकि जब तक पौ नहीं फटती और आपके हृदयों में प्रभात का तारा उदित नहीं होता, तब तक नबियों की वाणी अंधेरे में चमकते हुए दीपक के सदृश है।
1) छः दिन बाद ईसा ने पेत्रुस, याकूब और उसके भाई योहन को अपने साथ ले लिया और वह उन्हें एक ऊँचे पहाड़ पर एकान्त में ले चले।
2) उनके सामने ही ईसा का रूपान्तरण हो गया। उनका मुखमण्डल सूर्य की तरह दमक उठा और उनके वस्त्र प्रकाश के समान उज्ज्वल हो गये।
3) शिष्यों को मूसा और एलियस उनके साथ बातचीत करते हुए दिखाई दिये।
4) तब पेत्रुस ने ईसा से कहा, ’’प्रभु! यहाँ होना हमारे लिए कितना अच्छा है! आप चाहें, तो मैं यहाँ तीन तम्बू खड़ा कर दूगाँ- एक आपके लिए, एक मूसा और एक एलियस के लिए।’’
5) वह बोल ही रहा था कि उन पर एक चमकीला बादल छा गया और उस बादल में से यह वाणी सुनाई पड़ी, ’’यह मेरा प्रिय पुत्र है। मैं इस पर अत्यन्त प्रसन्न हूँ; इसकी सुनो।’’
6) यह वाणी सुनकर वे मुँह के बल गिर पडे़ और बहुत डर गये।
7) तब ईसा ने पास आ कर उनका स्पर्श किया और कहा, ’’उठो, डरो मत’’।
8) उन्होंने आँखें ऊपर उठायी, तो उन्हें ईसा के सिवा और कोई नहीं दिखाई पड़ा।
9) ईसा ने पहाड़ से उतरते समय उन्हें यह आदेश दिया, ’’जब तक मानव पुत्र मृतकों मे से न जी उठे, तब तक तुम लोग किसी से भी इस दर्शन की चरचा नहीं करोगे’’।
आज हम प्रभु के रूपान्तरण की घटना का स्मरण कर रहे हैं। आज के सुसमाचार में प्रभु येसु पेत्रुस, याकूब और योहन को एक ऊँचे पर्वत पर एकांत में ले जाते हैं और उनके सामने प्रभु का रूपान्तरण हो जाता है।
आज का सुसमाचार इस प्रकार शुरू होता है – “छः दिन बाद ईसा ने पेत्रुस, याकूब और उसके भाई योहन को अपने साथ ले लिया और वह उन्हें एक ऊँचे पहाड़ पर एकान्त में ले चले।” यहाँ पर तुरन्त ही हमें यह प्रश्न करना चाहिए कि सुसमाचार के लेखक हम से छ: दिन की बात क्यों कहते हैं। इसका कारण यह है कि इस घटना के यानि येसु के रूपान्तरण के छ: दिन पहले जो घटना हुयी उस घटना से येसु के रूपान्तरण का कुछ संबंध है। हम छ: दिन पहले की घटना अध्याय 16 में पाते हैं। वहाँ पर हम देखते हैं कि येसु ने अपने शिष्यों से यह पूछा था कि तुम क्या कहते हो कि मैं कौन हूँ। इस पर प्रेरितों की ओर से पेत्रुस ने यह उत्तर दिया कि आप जीवन्त ईश्वर के पुत्र मसीह हैं। इस पर येसु ने उनको यह समझाया था कि उन्हें येरुसालेम जाना होगा; नेताओं, महायाजकों और शास्त्रियों की ओर से बहुत दुःख उठाना, मार डाला जाना और तीसरे दिन जी उठना होगा। यह सब सुन कर शिष्य विचलित हो गये।
शिष्य एक दुनियावी ताकत के साथ आने वाले एक मसीह का इंतज़ार कर रहे थे। वे एक दुख भोगने वाले, क्रूस पर मरने वाले मसीह को स्वीकार नहीं कर पा रहे थे। इस प्रकार उन्हें विचलित देख कर येसु उन के मनोबल तथा विश्वास को बढ़ाना चाहते थे। इसलिए वे बारहों में से तीन को चुन कर, जिनको आदिम कलीसिया में कलीसिया के स्तंब (गलातियों 2:9) माना जाता है, एक ऊँचे पहाड पर ले जाते हैं और उनके सामने येसु का रूपान्तरण होता है। वहाँ पर शिष्य येसु के स्वर्गिक महिमा की एक झलक देखते हैं।
इस रूपान्तरण के माध्यम से प्रभु येसु ने ईश्वर की महिमा को शिष्यों के सामने प्रकट किया तथा शिष्यों के विश्वास को दृढ बनाया। इस अनुभव ने उन्हें येसु के दुखभोग तथा पुनरुत्थान के समय विचलित न होने तथा अन्य शिष्यों की हिम्मत बढ़ाने में मदद की। शिष्यों ने इस दृढ़ विश्वास को लोगों के बीच बाँटा, प्रभु का सक्ष्य दिया। शिष्यों के दृढ़ विश्वास का प्रमाण हमें, पेत्रुस के दूसरे पत्र अध्याय 1:16-18 में पढ़ने को मिलता है – “जब हमने आप लोगों को अपने प्रभु ईसा मसीह के सामर्थ्य तथा पुनरागमन के विषय में बताया, तो हमने कपट-कल्पित कथाओं का सहारा नहीं लिया, बल्कि अपनी ही आंखों से उनका प्रताप उस समय देखा, जब उन्हें पिता-परमेश्वर के सम्मान तथा महिमा प्राप्त हुई और भव्य ऐश्वर्य में से उनके प्रति एक वाणी यह कहती हुई सुनाई पड़ी, ’’यह मेरा प्रिय पुत्र है। मैं इस पर अत्यन्त प्रसन्न हूँ।’’ जब हम पवित्र पर्वत पर उनके साथ थे, तो हमने स्वयं स्वर्ग से आती हुई यह वाणी सुनी।“”
इसी प्रकार संत योहन भी अपने अनुभव का साक्ष्य देते हैं। योहन अपने सुसमाचार के 1:14 में कहते हैं, ““शब्द ने शरीर धारण कर हमारे बीच निवास किया। हमने उसकी महिमा देखी। वह पिता के एकलौते की महिमा-जैसी है- अनुग्रह और सत्य से परिपूर्ण”।”
प्रभु के रूपान्तरण के बाद शिष्यों के जीवन में भी परिवर्तन आया। उनका कमजोर विश्वास दृढ़ हो गया, उन्होंने इसी बात का साक्ष्य लोगों को दिया और उनके विश्वास को भी दृढ़ बनाने के लिए निरंतर कार्य किये।
हमें भी शिष्यों की तरह येसु में अपने विश्वास को दृढ़ बनाना चाहिए तथा अपने जीवन को रूपांतरित करना चाहिए। हम भी हर दिन अपने जीवन में मुक्ति, शांति, ईश्वरीय प्रेम व कृपा पाने के लिए पर्वत पर चढ़ रहे हैं, हर दिन पर्वत पर चढ़ने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। हमारे पर्वत-मार्ग में हमें कई प्रकार के कष्ट व बाधाओं का सामना प्रत्येक दिन करना पडता है। ये बाधायें हैं घमंड, ईर्ष्या, निराशा, स्वार्थ, लालच, दोषारोपण इत्याति अनेक प्रकार की बुराईयाँ जो हमारे पर्वत-मार्ग में रुकावट उत्पन्न करती हैं। इस कारण हम ईश्वरीय प्रेम, शांति और कृपा से वंचित रह जाते हैं। हमें अपने पापों, बुराईयों, कमजोरियों के लिए ईश्वर से क्षमा माँगना चाहिए, और अपनी आत्मा की मुक्ति के लिए कार्य करते हुए जीवन में आगे बढ़ना चाहिए। यह एक लंबी चढाई या आध्यात्मिक यात्रा है जिसमें हमें धैर्य, दृढ़ता, विश्वास की आवश्यकता है। जीवन की इस चढ़ाई में येसु के साथ की ज़रूरत है।
- फादर विपिन तिग्गा2) छः दिन बाद ईसा ने पेत्रुस, याकूब और योहन को अपने साथ ले लिया और वह उन्हें एक ऊँचे पहाड़ पर एकान्त में ले चले। उनके सामने ही ईसा का रूपान्तरण हो गया।
3) उनके वस्त्र ऐसे चमकीले और उजले हो गये कि दुनिया का कोई भी धोबी उन्हें उतना उजला नहीं कर सकता।
4) शिष्यों को एलियस और मूसा दिखाई दिये-वे ईसा के साथ बातचीत कर रहे थे।
5) उस समय पेत्रुस ने ईसा से कहा, "गुरुवर! यहाँ होना हमारे लिए कितना अच्छा है! हम तीन तम्बू खड़े कर दें- एक आपके लिए, एक मूसा और एक एलियस के लिए।"
6) उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या कहे, क्योंकि वे सब बहुत डर गये थे।
7) तब एक बादल आ कर उन पर छा गया और उस बादल में से यह वाणी सुनाई दी, "यह मेरा प्रिय पुत्र है। इसकी सुनो।"
8) इसके तुरन्त बाद जब शिष्यों ने अपने चारों ओर दृष्टि दौड़ायी, तो उन्हें ईसा के सिवा और कोई नहीं दिखाई पड़ा।
9) ईसा ने पहाड़ से उतरते समय उन्हें आदेश दिया कि जब तक मानव पुत्र मृतकों में से न जी उठे, तब तक तुम लोगों ने जो देखा है, उसकी चर्चा किसी से नहीं करोगे।
10) उन्होंने ईसा की यह बात मान ली, परन्तु वे आपस में विचार-विमर्श करते थे कि ’मृतकों में से जी उठने’ का अर्थ क्या हो सकता है।
28) इन बातों के करीब आठ दिन बाद ईसा पेत्रुस, योहन और याकूब को अपने साथ ले गये और प्रार्थना करने के लिए एक पहाड़ पर चढ़े।
29) प्रार्थना करते समय ईसा के मुखमण्डल का रूपान्तरण हो गया और उनके वस्त्र उज्जवल हो कर जगमगा उठे।
30) दो पुरुष उनके साथ बातचीत कर रहे थे। वे मूसा और एलियस थे,
31) जो महिमा-सहित प्रकट हो कर येरूसालेम में होने वाली उनकी मृत्यु के विषय में बातें कर रहे थे।
32) पेत्रुस और उसके साथी, जो ऊँघ रहे थे, अब पूरी तरह जाग गये। उन्होंने ईसा की महिमा को और उनके साथ उन दो पुरुषों को देखा।
33) वे विदा हो ही रहे थे कि पेत्रुस ने ईसा से कहा, "गुरूवर! यहाँ होना हमारे लिए कितना अच्छा है! हम तीन तम्बू खड़ा कर दें- एक आपके लिए, एक मूसा और एक एलियस के लिए।" उसे पता नहीं था कि वह क्या कह रहा है।
34) वह बोल ही रहा था कि बादल आ कर उन पर छा गया और वे बादल से घिर जाने के कारण भयभीत हो गये।
35) बादल में से यह वाणी सुनाई पड़ी, "यह मेरा परमप्रिय पुत्र है। इसकी सुनो।"
36) वाणी समाप्त होने पर ईसा अकेले ही रह गये। शिष्य इस सम्बन्ध में चुप रहे और उन्होंने जो देखा था, उस विषय पर वे उन दिनों किसी से कुछ नहीं बोले।
आज माता कलिसिया प्रभु येसु के रूपांतरण का पर्व मनाती है। प्रभु येसु अपने तीन सबसे प्रिय शिष्यों को अपने साथ एक ऊँचे पहाड़ पर ले जाते हैं, और वहाँ उनकी उपस्थिति में उनका रूपांतरण हो जाता है। नबी मूसा और एलियस आकर उनसे चर्चा करते हैं और अंत में पिता ईश्वर की वाणी यह कहते हुए सुनाई देती है, “यह मेरा प्रिय पुत्र है, जिससे मैं अत्यन्त प्रसन्न हूँ, इसकी सुनो।”
यह घटना प्रभु येसु के मानव जीवन की बहुत महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक है। हालाँकि प्रभु येसु के जीवन की सारी घटनायें महत्वपूर्ण थी क्योंकि सब कुछ पिता ईश्वर की इच्छा और योजना के अनुसार ही था, लेकिन कुछ घटनाएँ जैसे प्रभु येसु का बपतिस्मा, चालीस दिन और चालीस रात का उपवास, रूपांतरण, येरूसलेम में प्रवेश, गेथसेमनी बारी में प्रभु येसु की प्राण-पीड़ा आदि बहुत महत्वपूर्ण घटनाएँ हैं जो क्रूस के बलिदान की ओर इंगित करती हैं।
प्रभु येसु का इस दुनिया में आने का उद्देश्य क्रूस पर अपने आप को बलिदान करना और संसार को मुक्ति प्रदान करना था। यह बहुत पीड़ादायी होने वाला था, और यहाँ हम देखते हैं कि पिता ईश्वर अपने पुत्र के प्रति अपने प्रेम को प्रकट करते हैं, जो प्रभु येसु को शक्ति और साहस प्रदान करता है। ईश्वर हममें से सभी को प्यार करते हैं। जब हम मुश्किलों और चुनौतियों का सामना करते हैं, तो हमें अपने आंतरिक पर्वत पर चढ़ना है, और अपने स्वर्गीय पिता की वाणी को सुनना है, “तू मेरा प्रिय पुत्र है, तू मेरी प्रिय पुत्री है, मैं तुझसे अत्यन्त प्रसन्न हूँ।” पिता ईश्वर की वह वाणी हमें भी प्रभु येसु की तरह रूपांतरित कर देगी। आमेन।
✍ - फादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)
Today we celebrate the Feast of the Transfiguration of the Lord. Jesus took his three very close disciples to a high mountain and there he was transfigured. Prophets Moses and Elijah come to discuss with Jesus and at the end voice of God the Father is heard saying, “this is my beloved son, with whom I am well pleased, Listen to him.”
This is among most important events of Jesus’ human life. Although all the events in Jesus’ life were important because everything was planned and according to God’s will, but some events like Baptism of Jesus, Fasting for forty days and forty nights, Transfiguration, Triumphal Entry into Jerusalem, Agony in the garden etc are very important events leading to the ultimate sacrifice on the Cross.
The purpose of Jesus’ coming was to sacrifice himself on the cross and make salvation available to all. This process was going to be painful, perhaps most painful of all the events in Jesus’ life and here Father acknowledges his love for his Son, that certainly gives strength to Jesus. God loves each one of us. When we are faced with difficulties and challenges, we need to go to our inner mountain and hear the voice of the Father. That would certainly transfigure us. Amen.
✍ -Fr. Johnson B.Maria (Gwalior)