4) प्रभु की वाणी मुझे यह कहते हुए सुनाई पड़ी-
5) “माता के गर्भ में तुम को रचने से पहले ही, मैंने तुम को जान लिया। तुम्हारे जन्म से पहले ही, मैंने तुम को पवित्र किया। मैंने तुम को राष्ट्रों का नबी नियुक्त किया।“
6) मैंने कहा, “आह, प्रभु-ईश्वर! मुझे बोलना नहीं आता। मैं तो बच्चा हूँ।“
7) परन्तु प्रभु ने उत्तर दिया, “यह न कहो- मैं तो बच्चा हूँ। मैं जिन लोगों के पास तुम्हें भेजूँगा, तुम उनके पास जाओगे और जो कुछ तुम्हें बताऊगा, तुम वही कहोगे।
8) उन लोगों से मत डरो। मैं तुम्हारे साथ हूँ। मैं तुम्हारी रक्षा करूँगा। यह प्रभु वाणी है।“
9) तब प्रभु ने हाथ बढ़ा कर मेरा मुख स्पर्श किया और मुझ से यह कहा, “मैं तुम्हारे मुख में अपने शब्द रख देता हूँ।
19) आप लोग अब परेदशी या प्रवासी नहीं रहे, बल्कि सन्तों के सहनागरिक तथा ईश्वर के घराने के सदस्य बन गये हैं।
20) आप लोगों का निर्माण भवन के रूप में हुआ है, जो प्रेरितों तथा नबियों की नींव पर खड़ा है और जिसका कोने का पत्थर स्वयं ईसा मसीह हैं।
21) उन्हीं के द्वारा समस्त भवन संघटित हो कर प्रभु के लिए पवित्र मन्दिर का रूप धारण कर रहा है।
22) उन्हीं के द्वारा आप लोग भी इस भवन में जोड़े जाते हैं, जिससे आप ईश्वर के लिए एक आध्यात्मिक निवास बनें।
24) ईसा के आने के समय बारहों में से एक थोमस जो यमल कहलाता था, उनके साथ नहीं था।
25) दूसरे शिष्यों ने उस से कहा, ’’हमने प्रभु को देखा है’’। उसने उत्तर दिया, ’’जब तक मैं उनके हाथों में कीलों का निशान न देख लूँ, कीलों की जगह पर अपनी उँगली न रख दूँ और उनकी बगल में अपना हाथ न डाल दूँ, तब तक मैं विश्वास नहीं करूँगा।
26) आठ दिन बाद उनके शिष्य फिर घर के भीतर थे और थोमस उनके साथ था। द्वार बन्द होने पर भी ईसा उनके बीच आ कर खडे हो गये और बोले, ’’तुम्हें शांति मिले!’’
27) तब उन्होने थोमस से कहा, ’’अपनी उँगली यहाँ रखो। देखो- ये मेरे हाथ हैं। अपना हाथ बढ़ाकर मेरी बगल में डालो और अविश्वासी नहीं, बल्कि विश्वासी बनो।’’
28 थोमस ने उत्तर दिया, ’’मेरे प्रभु! मेरे ईश्वर!’’
29) ईसा ने उस से कहा, ’’क्या तुम इसलिये विश्वास करते हो कि तुमने मुझे देखा है? धन्य हैं वे जो बिना देखे ही विश्वास करते हैं।’’
आज हम प्रेरित थॉमस का त्योहार मना रहे हैं जो अक्सर "संदेह करने वाले थॉमस" के रूप में जाने जाते हैं। संदेह करना अपने आप में बुरा नहीं है, लेकिन संदेह में रहना बुरा हो सकता है। संत थॉमस की महानता यह है कि वे संदेह में रहना नहीं चाहते थे, बल्कि स्पष्टीकरण चाहते थे, वह भी केवल प्रभु से। वे प्रभु की प्रतीक्षा करने के लिए तैयार थे। इससे पहले कि वे वांछित स्पष्टीकरण प्राप्त कर सके, उन्हें एक सप्ताह तक इंतजार करना पड़ा। एक सप्ताह के बाद ही प्रभु उन्हें स्पष्टीकरण देने के लिए दर्शन देते हैं। फिर भी उन्होंने धैर्यपूर्वक अपने संदेह मिटाने के लिए प्रभु की प्रतीक्षा की। उन्होंने अन्य लोगों से यह उम्मीद नहीं की कि वे उन्हें सांत्वना दें या उनका संदेह मिटा दें।
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि संत थॉमस चाहते थे कि उन्हें प्रभु येसु के घावों का अनुभव प्राप्त हो। वास्तव में वे क्रूस पर चढ़ाये गये प्रभु के अनुभव के लिए तरस रहे थे। उन्होंने जोर देकर कहा, "जब तक मैं उनके हाथों में कीलों का निशान न देख लूँ, कीलों की जगह पर अपनी उँगली न रख दूँ और उनकी बगल में अपना हाथ न डाल दूँ, तब तक मैं विश्वास नहीं करूँगा।" (योहन 20:25)। हम जानते हैं कि प्रभु येसु का दुखभोग तथा क्रूस मरण ईश्वर के देहधारण के केन्द्रीय रहस्यों का प्रभुख हिस्सा है। येसु की शिक्षाओं में क्रूस का एक विशेष स्थान है। 1कुरिन्थियों 1: 22-24 में, संत पौलुस कहते हैं, "यहूदी चमत्कार माँगते और यूनानी ज्ञान चाहते हैं, किन्तु हम क्रूस पर आरोपित मसीह का प्रचार करते हैं। यह यहूदियों के विश्वास में बाधा है और गै़र-यहूदियों के लिए ’मूर्खता’। किन्तु मसीह चुने हुए लोगों के लिए, चाहे वे यहूदी हों या यूनानी, ईश्वर का सामर्थ्य और ईश्वर की प्रज्ञा है”। संत थॉमस की आध्यात्मिकता भी घायल और क्रूसित प्रभु पर केंद्रित है। जबकि अधिकांश शिष्य क्रूस और कष्टों से भागना पसंद करते थे, संत थॉमस उस वास्तविकता का सामना करना चाहते थे।
इसलिए जब उन्हें लाजरुस की मृत्यु का संदेश मिला, तब वे येसु के साथ बेथानिया जाने का जोखिम उठाना चाहते थे। उन्होंने अपने साथियों से कहा, “हम भी चलें और इनके साथ मर जायें” (योहन 11:16)। आइए हम प्रभु से प्रार्थना करें कि हम क्रूस से भागने की कोशिश न करें, लेकिन इसे प्रेम के साथ स्वीकारें, क्योंकि क्रूस हमारे उद्धार का साधन है।
✍ -फादर फ्रांसिस स्करिया
Today we celebrate the feast of Apostle Thomas who is often referred to as “The Doubting Thomas”. Doubting in itself is not bad, but remaining in doubt can be bad. The greatness of St. Thomas is that he wanted clarification, that too from the Lord and the Lord alone. He was ready to wait for the Lord. He had to wait for a week before he could get the clarification he desired. Yet he patiently waited for the Lord to clear his doubts. He did not seek other people to comfort or console him. Secondly St. Thomas wanted to have an experience of the wounds of Jesus. In fact he was longing for an experience of the crucified Lord. He insisted, “Unless I see the mark of the nails in his hands, and put my finger in the mark of the nails and my hand in his side, I will not believe” (Jn 20:25). We know that the sufferings and crucifixion of Jesus are realities, very central to the mystery of incarnation. In the teachings of Jesus the Cross has a special place. In 1Cor 1:22-24, St. Paul says, “For Jews demand signs and Greeks desire wisdom, but we proclaim Christ crucified, a stumbling block to Jews and foolishness to Gentiles, but to those who are the called, both Jews and Greeks, Christ the power of God and the wisdom of God”. The Spirituality of St. Thomas too is centred around the wounded and crucified Lord. While most of the disciples would have liked to run away from the cross and sufferings, St. Thomas wanted to confront that reality. That is why he wanted to take the risk of going with Jesus to Bethany when they received the message of the death of Lazarus. He said to his companions, “Let us also go, that we may die with him” (Jn 11:16). Let us pray to the Lord that we may not try to escape from the cross but carry it with love, because the cross is the instrument of our redemption.
✍ -Fr. Francis Scaria