29 जून

प्रेरित सन्त पेत्रुस और पौलुस का पर्व

पहला पाठ : प्रेरित-चरित 12:1-11

1) उस समय राजा हेरोद ने कलीसिया के कुछ सदस्यों पर अत्याचार किया।

2) उसने योहन के भाई याकूब को तलवार के घाट उतार दिया

3) और जब उसने देखा कि इस से यहूदी प्रसन्न हुए, तो उसने पेत्रुस को भी गिरफ्तार कर लिया। उन दिनों बेख़मीर रोटियों का पर्व था।

4) उसने पेत्रुस को पकड़वा कर बंदीग्रह में डलवाया और उसे चार-चार सैनिकों के चार दलों के पहरे में रख दिया। वह पास्का पर्व के बाद उसे लोगों के सामने पेश करना चाहता था

5) जब पेत्रुस पर इस प्रकार बंदीगृह में पहरा बैठा हुआ था, तो कलीसिया उसके लिए आग्रह के साथ ईश्वर से प्रार्थना करती रही।

6) जिस दिन हेरोद उसे पेश करने वाला था, उसके पहले की रात को पेत्रुस, दो हथकडि़यों से बँधा हुआ, दो सैनिकों के बीच सो रहा था और द्वार के सामने भी संतरी पहरा दे रहे थे।

7) प्रभु का दूत अचानक उसके पास आ खड़ा हो गया और कोठरी में ज्योति चमक उठी। उसने पेत्रुस की बगल थपथपा कर उसे जगाया और कहा, ’’जल्दी उठिए!’’ इस पर पेत्रुस की हाथकडि़याँ गिर पड़ी।

8) तब दूत ने उस से कहा, ’’कमर बाँधिए और चप्पल पहन लीजिए’’। उसने यही किया। दूत ने फिर कहा ’’चादर ओढ़ कर मेरे पीछे चले आइए’’।

9) पेत्रुस उसके पीछे-पीछे बाहर निकल गया। उसे पता नहीं था कि जो कुछ दूत द्वारा हो रहा है, वह सच ही हैं। वह समझ रहा था कि मैं स्वप्न देख रहा हूँ।

10) वे पहला पहरा और फिर दूसरा पहरापार कर उस लोहे के फाटक तक पहुँचे, जो शहर की ओर ले जाता हैं। वह उनके लिए अपने आप खुल गया। वे बाहर निकल कर गली के छोर तक आये कि दूत अचानक उसे छोड़ कर चला गया।

11) तब पेत्रुस होश में आ कर बोल उठा, ’’अब मुझे निश्चय हो गया कि प्रभु ने अपने दूत को भेज कर मुझे हेरोद के पंजे से छुड़ाया और यहूदियों की सारी आशाओं पर पानी फेर दिया है।’’

दूसरा पाठ: तिमथी के नाम सन्त पौलुस का दूसरा पत्र 4:6-8,17-18

6) मैं प्रभु को अर्पित किया जा रहा हूँ। मेरे चले जाने का समय आ गया है।

7) मैं अच्छी लड़ाई लड़ चुका हूँ, अपनी दौड़ पूरी कर चुका हूँ और पूर्ण रूप से ईमानदार रहा हूँ।

8) अब मेरे लिए धार्मिकता का वह मुकुट तैयार है, जिसे न्यायी विचारपति प्रभु मुझे उस दिन प्रदान करेंगे - मुझ को ही नहीं, बल्कि उन सब को, जिन्होंने प्रेम के साथ उनके प्रकट होने के दिन की प्रतीक्षा की है।

17) परन्तु प्रभु ने मेरी सहायता की और मुझे बल प्रदान किया, जिससे मैं सुसमाचार का प्रचार कर सकूँ और सभी राष्ट्र उसे सुन सकें। मैं सिंह के मुँह से बच निकला।

18) प्रभु मुझे दुष्टों के हर फन्दे से छुड़ायेगा। वह मुझे सुरक्षित रखेगा और अपने स्वर्गराज्य तक पहुँचा देगा। उसी को अनन्त काल तक महिमा! आमेन!

सुसमाचार : सन्त मत्ती का सुसमाचार 16:13-19

13) ईसा ने कैसरिया फि़लिपी प्रदेश पहुँच कर अपने शिष्यों से पूछा, ’’मानव पुत्र कौन है, इस विषय में लोग क्या कहते हैं?’’

14) उन्होंने उत्तर दिया, ’’कुछ लोग कहते हैं- योहन बपतिस्ता; कुछ कहते हैं- एलियस; और कुछ लोग कहते हैं- येरेमियस अथवा नबियों में से कोई’’।

15) ईस पर ईसा ने कहा, ’’और तुम क्सा कहते हो कि मैं कौन हूँ?

16) सिमोन पुत्रुस ने उत्तर दिया, ’’आप मसीह हैं, आप जीवन्त ईश्वर के पुत्र हैं’’।

17) इस पर ईसा ने उस से कहा, ’’सिमोन, योनस के पुत्र, तुम धन्य हो, क्योंकि किसी निरे मनुष्य ने नहीं, बल्कि मेरे स्वर्गिक पिता ने तुम पर यह प्रकट किया है।

18) मैं तुम से कहता हूँ कि तुम पेत्रुस अर्थात् चट्टान हो और इस चट्टान पर मैं अपनी कलीसिया बनाऊँगा और अधोलोक के फाटक इसके सामने टिक नहीं पायेंगे।

19) मैं तुम्हें स्वर्गराज्य की कुंजिया प्रदान करूँगा। तुम पृथ्वी पर जिसका निषेध करोगे, स्वर्ग में भी उसका निषेध रहेगा और पृथ्वी पर जिसकी अनुमति दोगे, स्वर्ग में भी उसकी अनुमति रहेगी।’’

📚 मनन-चिंतन

संत पेत्रुस और पौलुस कलीसिया के दो आधार स्तंभ माने जाते हैं। प्रभु येसु ने इन्हें चुना तथा नियुक्त किया। हालांकि वे अपने व्यक्त्तिव में भिन्न थे किन्तु सुसमाचार के प्रति उत्साह, ईशशास्त्र के योगदान, कलीसियाई सेवा, मिशनरी कार्यों तथा शहादत में एक थे। पेत्रुस यहूदियों के प्रेरित माने जाते हैं तो पौलुस को गैर-यहूदियों का प्रेरित माना जाता है। उनकी शिक्षा तथा उपदेश कलीसिया के आधारभूत सिद्धांत बन गये। पेत्रुस अपने विश्वास की घोषणा तथा पौलुस अपने सुसमाचार के प्रचार के कारण विश्वास में हमारे अग्रणी बन गये।

पेत्रुस, योना के पुत्र, तबरियस के तट पर बसे बेदसाईदा के निवासी थे। वह और उसका भाई अंद्रेयस गेनेसरेत के तालाब में मछली पकडा करते थे। ये दोनों भाई संत लूकस के सुसमाचार अध्याय 5 में येसु से मिलते है जहां येसु उन्हें प्रेरित नियुक्त करते हैं, ’’ईसा ने सिमोन से कहा, ’डरो मत। अब से तुम मनुष्यों को पकड़ा करोगे।’ वे नावों को किनारे लगा कर और सब कुछ छोड़ कर ईसा के पीछे हो लिये।’’ (लूकस 5:10-11)

पेत्रुस सभी साथियों में प्रथम माने जाते थे। वे प्रथम पोप भी थे। वे अपरिपक्व, आवेगी थे तथा उनकी शुरूआत भी बहुत ही विनम्र रही। येसु ने उन्हें चटटान के तौर पर अभिषिक्त किया जिस पर वे अपनी कलीसिया का निर्माण करेंगे, ’’मैं तुम से कहता हूँ कि तुम पेत्रुस अर्थात् चट्टान हो और इस चट्टान पर मैं अपनी कलीसिया बनाऊँगा और अधोलोक के फाटक इसके सामने टिक नहीं पायेंगे।’’(मत्ती 16:18) परंपरा के अनुसार सन् 64 में नीरो के धर्मसतावट के काल में संत पेत्रुस को क्रूस पर उल्टा लटका कर मार दिया गया था। पेत्रुस का क्रूस उल्टा था क्योंकि उन्होंने स्वयं को येसु के समान क्रूस पर मरने के अयोग्य पाया।

संत पौलुस कलीसिया के सबसे प्रसिद्ध, बुद्धिमान तथा प्रभावशाली संत माने जाते हैं। प्रारंभिक कलीसिया में संत पौलुस एक अग्रणी व्यक्ति माने जाते हैं। संत पौलुस के योगदान तथा भूमिका को बताये बिना कलीसिया के आरंभिक विकास को बताना लगभग असंभव है। उनके पत्र पवित्र धर्मग्रंथ की पुस्तकें बन गये हैं। उन्होंने पनपती कलीसिया के विकास में मार्गदर्शन देते हुये उसके द्वार गैर-यहूदियों के लिये खुलवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। संत पौलुस का जन्म तारसुस में हुआ था तथा उनका मूल नाम साउल था। वे फरीसी थे जिन्हें रोमन नागरिकता प्राप्त थी। अपने मन-परिवर्तन के पूर्व उन्होंने ख्रीस्तीय पर अत्याचार किये तथा संत स्तेफानुस की शहादत को देख रहा था। दमिश्क जाते समय उन्हें मार्ग में येसु के दर्शन हुये जिसके अनुभव के बाद वे ख्राीस्तीय बन गये। उन्होंने बपतिस्मा ग्रहण किया तथा पौलुस नाम धारण किया।

अपने हृदय परिवर्तत के बाद उन्होंने फिर कभी पीछे मुडकर नहीं देखा। वे ख््राीस्त में अपनी बुलाहट के प्रति इतने दृढ थे कि वे कहते थे, ’’कौन हम को मसीह के प्रेम से वंचित कर सकता है?’’ (रोमियों 8:35)उन्होंने सुसमाचार के प्रचार तथा विश्वास के फैलाव के लिये अनेक कठिन यात्राएं की तथा घोर संकटों का सामना किया। रोम में नीरों के धर्मसतावट के दौरान उनको मार डाला गया।

आज कलीसिया अपने इस प्रिय पुत्रांे का त्योहार मना रही है। आईये हम भी प्रेरित संत पेत्रुस और पौलुस से प्रार्थना करे कि हम उनके उदाहरणों पर चल सके।

-फादर रोनाल्ड वाँन, भोपाल


📚 REFLECTION

St. Peter and St. Paul are the two important tenets of the Church. Both of them had been chosen and appointed by the Lord Jesus. Although their personalities differexceedingly yet they were united in their zeal for the gospel, theological contribution, pastoral work, missionary endeavoursand even in martyrdom. Peter is known as an apostle to the Jews while Paul is considered to be an apostle to the gentiles. Their teachings and preaching have come downto us as the foundational principles of Christianity. Peter by his confession and Paul by his preaching have come before us as the ideal disciples of Christ.

Peter was a native of Bethsaida, near Lake Tiberias and was the son of Jonah. He and his brother Andrew were fishermen on Lake Gennesaret. Thebrothers met Jesus in Luke chapter 5 and were subsequently appointed as apostles, “Then Jesus said to Simon, ‘Do not be afraid; from now on you will be catching people.’When they had brought their boats to shore, they left everything and followed him." (Luke 5:10-11)

Peter was considered first among the equals, and the first Pope. He was imperfect, impulsive and had humble beginning. He was ordained by Jesus as the "Rock” on which the future Church was to be built. “You are Peter, and on this rock, I will build my church, and the gates of Hades will not prevail against it.” (Mt.16:17-18)According to tradition, around 64 AD, during the persecution of Nero, St. Peter was crucified upside down because he felt unworthy to die in the same manner as Jesus Christ.

St. Paul is one of the most famous, intelligent and influential saints and the dominantpersonality of the early church. It is almost impossible to describe the development of the church without his contribution and the role he played. His writings are the books of the Bible. He helped and guided the church in her nascent stage and played a key role in opening its doors to the gentile world.

He was born in Tarsus, originally known as Saul, and was a Roman citizen and a Pharisee. He even presided over the persecutions of the early Christians and was present at the martyrdom of St. Stephen.However, Saul experienced a powerful vision that caused him to convert to Christianity while on the road to Damascus. He was duly baptized and took the name Paul.

Since then he never looked back. He was so much convinced of his mission that in own words, ‘nothing could separate him from the love of Christ.’ (Romans 8:35) He suffered and underwent hardship for the sake of gospels and made it known to the then known world. He was killed in Rome during the persecution of the Emperor Nero.

Today as the mother church celebrate the feast of her most important sons peter and Paul let pray that through their intercession we may gain courage to emulate their examples.

-Rev. Fr. Ronald Vaughan, Bhopal


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Praise the Lord!