11 जून

सन्त बरनाबस; प्रेरित

पहला पाठ : प्रेरित-चरित 11:21b-26; 13:1-3

21) बहुत से लोग विश्वासी बन कर प्रभु की ओर अभिमुख हो गये।

22) येरुसालेम की कलीसिया ने उन बातों की चर्चा सुनी और उसने बरनाबस को अंताखिया भेजा।

23) जब बरनाबस ने वहाँ पहुँच कर ईश्वरीय अनुग्रह का प्रभाव देखा, तो वह आनन्दित हो उठा। उसने सबों से अनुरोध किया कि वे सारे हृदय से प्रभु के प्रति ईमानदार बने रहें

24) क्योंकि वह भला मनुष्य था और पवित्र आत्मा तथा विश्वास से परिपूर्ण था। इस प्रकार बहुत-से लोग प्रभु के शिष्यों मे सम्मिलित हो गये।

25) इसके बाद बरनाबस साऊल की खोज में तरसुस चला गया

26) और उसका पता लगा कर उसे अंतखिया ले आया। दोनों एक पूरे वर्ष तक वहाँ की कलीसिया के यहाँ रह कर बहत-से लोगों को शिक्षा देते रहे। अंताखिया में शिष्यों को पहेले पहल ’मसीही’ नाम मिला।

1) अंताखिया की कलीसिया में कई नबी और शिक्षक थे- जैसे बरनाबस, सिमेयोन, जो नीगेर कहलाता था, लुकियुस कुरेनी, राजा हेरोद का दूध-भाई मनाहेन और साऊल।

2) वे किसी दिन उपवास करते हुए प्रभु की उपासना कर ही रहे थे कि पवित्र आत्मा ने कहा, ’’मैंने बरनाबस तथा साऊल को एक विशेष कार्य के लिए निर्दिष्ट किया हैं। उन्हें मेरे लिए अलग कर दो।’’

3) इसलिए उपवास तथा प्रार्थना समाप्त करने के बाद उन्होंने बरनाबस तथा साऊल पर हाथ रखे और उन्हें जाने की अनुमति दे देी।

सुसमाचार : सन्त मत्ती का सुसमाचार 10:7-13

7) राह चलते यह उपदेश दिया करो- स्वर्ग का राज्य निकट आ गया है।

8) रोगियों को चंगा करो, मुरदों को जिलाआ, कोढि़यों को शुद्ध करो, नरकदूतों को निकालो। तुम्हें मुफ़्त में मिला है, मुफ़्त में दे दो।

9) अपने फेंटे में सोना, चाँदी या पैसा नहीं रखो।

10) रास्ते के लिए न झोली, न दो कुरते, न जूते, न लाठी ले जाओ; क्योंकि मज़दूर को भोजन का अधिकार है।

11) ’’किसी नगर या गाँव में पहुँचने पर एक सम्मानित व्यक्ति का पता लगा लो और नगर से विदा होने तक उसी के यहाँ ठहरो।

12) उस घर में प्रवेश करते समय उसे शांति की आशिष दो।

13) यदि वह घर योग्य होगा, तो तुम्हारी शान्ति उस पर उतरेगी। यदि वह घर योग्य नहीं होगा, तो तुम्हारी शान्ति तुम्हारे पास लौट आयेगी।

📚 मनन-चिंतन

बरनाबस, कुप्रुस में जन्मा एक यहूदी था। उसका मूल नाम यूसुफ था। प्रेरित चरित 4:34-35 में सर्वप्रथम हम उनके बारे में सुनते हैं। उसने अपनी जमीन बेचकर उसकी कीमत प्रेरितों को समर्पित की दी थी तथा प्रथम दीक्षार्थियों के समुदाय के साथ रहा करता था। येरूसालेम की कलीसिया ने बराबस को पर्यवेक्षक बनाकर अंताखिया, सीरिया भेजा। वहॉ पहुँचकर बरनाबस ने,’’ईश्रीय अनुग्रह का प्रभाव देखा, तो वह आनन्दित हो उठा। उसने सबों से अनुरोध किया कि वे सारे हृदय से प्रभु के प्रति ईमानदार बने रहें।’’ (प्रेरित चरित 11:23)

बरनाबस का अर्थ है, ’’सान्त्वना-पुत्र’’। अपने इस उपनाम के अनुरूप उसने अनेक लोगों को विश्वास में दृढ़ बने रहने के लिये प्रोत्साहित किया। पौलुस उनमें एक महत्वपूर्ण नाम है जिसे बरनाबस से बहुत प्रोत्साहन प्राप्त हुआ। प्रेरितों को पौलुस को लेकर बहुत संशय था इसलिये बरनाबस ने पहल कर प्रेरितों को इस बात के लिये तैयार किया कि वे पौलुस जो पहले ख्रीस्त विरोधी था को अपने समूह में शामिल करे। पौलुस और बरनासब ने प्रचार के लिये अनेक यात्रायें की तथा प्रेरित चरित 14:22 में हम पढते हैं, ’’वे शिष्यों को ढारस बंधाते और यह कहते हुये विश्वास में दृढ़ रहने के लिये अनुरोध करते कि हमें बहुत से कष्ट सह कर ईश्वर के राज्य में प्रवेश करना है।’’

अपने प्रोत्साहन के द्वारा बरनाबस ने पौलुस के जीवन को ढाला तथा दिशा प्रदान की। उन्हेंने ये काम दूर से या मात्र शब्दों से नहीं किया किन्तु पौलुस के साथ रहकर, उसके दुखों को एकसाथ झेलकर किया। उन्होंने अनेक अवसरों पर उनके साथ यात्रायें की। बरानाबस ने अपना समय, उर्जा तथा प्रेम द्वारा पौलुस का प्रोत्साहन किया। जब हम इस प्रकार लोगों के जीवन में उनके दुख-सुख के भागीदारी बनते है तो वह वास्तव में प्रोत्साहन कहलाता है

हम ईश्वर को उन सभी लोगों के लिये धन्यवाद दे जिनके प्रोत्साहन से हमें जीवन में आगे बढ सके हैं। बरनासब का जीवन हमें भी लोगों का प्रोत्साहन करने की शिक्षा तथा प्रेरणा देता है।

-फादर रोनाल्ड वाँन, भोपाल


📚 REFLECTION

Barnabas was a Jew, born in Cyprus and named Joseph. First time we hear about him is that he sold his property, gave the proceeds to the Apostles, who gave him the name Barnabas, and lived in common with the earliest converts to Christianity in Jerusalem.(Acts 4:34-35). Barnabas was sent by the Church in Jerusalem to Antioch in Syria to oversee what was happening there. We are told: “When he came and saw the grace of God, he rejoiced, and he exhorted them all to remain faithful to the Lord with steadfast devotion” (Acts 11:23)

Barnabas is called the son of encouragement and his encouragement led to many people persevering in their faith. And Paul was one of the prominent persons who in particular was helped by Barnabas. It was Barnabas who persuaded the apostles to accept Paul as one among them. Paul and Barnabas travelled widely together and in Acts 14:22 we hear, “they put fresh heart into the disciples, encouraging them to persevere in the faith.”

By his encouragement Barnabas actually gives shape to Paul’s life. And he does that not from a distance or by some vague well-wishing but by staying with Paul; by accompanying and sharing his troubles. He accompanied Paul on many important occasions. He invested his time and love and energy in the person Paul. That is encouragement.

Let thank God for the people who invested in us, who encouraged us to be who we are. And let us pray that when the time comes, we too can be a Barnabas.

-Rev. Fr. Ronald Vaughan, Bhopal


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Praise the Lord!