14 मई

प्रेरित सन्त मथियस

पहला पाठ : प्रेरित-चरित 1:15-17,20-26

15) उन दिनों पेत्रुस भाइयों के बीच खड़े हो गये। वहाँ लगभग एक सौ बीस व्यक्ति एकत्र थे। पेत्रुस ने कहा,

16) ’’भाइयो! यह अनिवार्य था कि धर्मग्रन्थ की वह भविष्यवाणी पूरी हो जाये, जो पवित्र आत्मा ने दाऊद के मुख से यूदस के विषय में की थी। यूदस ईसा को गिरफ्तार करने वालों का अगुआ बन गया था।

17) वह हम लोगों में एक और धर्मसेवा में हमारा साथी था।

20) स्त्रोत-संहिता मे यह लिखा है-उसकी ज़मीन उजड़ जाये; उस पर कोई भी निवास नहीं करे और-कोई दूसरा उसका पद ग्रहण करे।

21) इसलिए उचित है कि जितने समय तक प्रभु ईसा हमारे बीच रहे,

22) अर्थात् योहन के बपतिस्मा से ले कर प्रभु के स्वर्गारोहण तक जो लोग बराबर हमारे साथ थे, उन में से एक हमारे साथ प्रभु के पुनरुत्थान का साक्षी बनें’’।

23) इस पर इन्होंने दो व्यक्तियों को प्रस्तुत किया-यूसुफ को, जो बरसब्बास कहलाता था और जिसका दूसरा नाम युस्तुस था, और मथियस को।

24) तब उन्होंने इस प्रकार प्रार्थना की, ’’प्रभु! तू सब का हृदय जानता है। यह प्रकट कर कि तूने इन दोनों में से किस को चुना है,

25) ताकि वह धर्मसेवा तथा प्रेरितत्व में वह पद ग्रहण करे, जिस से पतित हो कर यूदस अपने स्थान गया।

26) उन्होंने चिट्ठी डाली। चिट्ठी मथियस के नाम निकली और उसकी गिनती ग्यारह प्रेरितों में हो गयी।

सुसमाचार : सन्त योहन 15:9-17

9) जिस प्रकार पिता ने मुझ को प्यार किया है, उसी प्रकार मैंने भी तुम लोगों को प्यार किया है। तुम मेरे प्रेम से दृढ बने रहो।

10) यदि तुम मेरी आज्ञओं का पालन करोगे तो मेरे प्रेम में दृढ बने रहोगे। मैंने भी अपने पिता की आज्ञाओं का पालन किया है और उसके प्रेम में दृढ बना रहता हूँ।

11) मैंने तुम लोगों से यह इसलिये कहा है कि तुम मेरे आनंद के भागी बनो और तुम्हारा आनंद परिपूर्ण हो।

12) मेरी आज्ञाा यह है जिस प्रकार मैंने तुम लोगो को प्यार किया, उसी प्रकार तुम भी एक दूसरे को प्यार करो।

13) इस से बडा प्रेम किसी का नहीं कि कोई अपने मित्रों के लिये अपने प्राण अर्पित कर दे।

14) यदि तुम लोग मेरी आज्ञाओं का पालन करते हो, तो तुम मेरे मित्र हो।

15) अब से मैं तुम्हें सेवक नहीं कहूँगा। सेवक नहीं जानता कि उसका स्वामी क्या करने वाला है। मैंने तुम्हें मित्र कहा है क्योंकि मैने अपने पिता से जो कुछ सुना वह सब तुम्हें बता दिया है।

16) तुमने मुझे नहीं चुना बल्कि मैंने तुम्हें इसलिये चुना और नियुक्त किया कि तुम जा कर फल उत्पन्न करो, तुम्हारा फल बना रहे और तुम मेरा नाम लेकर पिता से जो कुछ माँगो, वह तुम्हें वही प्रदान करे।

17) मैं तुम लोगों को यह आज्ञा देता हूँ एक दूसरे को प्यार करो।

📚 मनन-चिंतन

ईश्वर ने मानव के कल्याण के लिए कई नियम और आज्ञाएँ दीं हैं। लेकिन प्रभु येसु एक नई आज्ञा देते हैं, जिससे ना केवल स्वयं का कल्याण होगा बल्कि दूसरों का भी कल्याण होगा। वह नई आज्ञा है - भात्र-प्रेम की आज्ञा। ‘जिस प्रकार मैंने तुम लोगों को प्यार किया है, वैसे तुम भी एक दूसरे को प्यार करो।’ प्रभु येसु ना केवल हमें कुछ करने की आज्ञा देते हैं, बल्कि उसे पूरा करने के लिए रास्ता भी दिखाते हैं। क्योंकि पहले उन्होंने खुद उसे पूरा किया है। प्रभु येसु ने कैसे हमें प्यार किया है? वह ईश्वर के पुत्र हैं लेकिन उन्होंने हमारी ख़ातिर अपने आप को दास बना लिया और क्रूस पर मृत्यु को गले लगा लिया।(फ़िलिप्पियों २:५-८)।दूसरों को प्रेम करने के लिए हमें अपना अहम् त्यागना है, हो सकता है अपने आप को छोटा बनाना पड़े, दूसरों का दास बनना पड़े। प्रभु येसु हमें प्रेम करने के लिए हमारे जैसे बन गये, हमारे सुख-दुःख को महसूस किया। हमें दूसरों को प्रेम करने के लिए दूसरों के जैसे बनना पड़ेगा, उनके दुःख-तकलीफ़ में, ख़ुशी और ग़म में शामिल होना पड़ेगा। सन्त पौलुस कहते हैं, “मैं सबों के लिए सब कुछ बन गया हूँ__”(१कोरिंथियों ९:२२)। जैसे ईश्वर ने मुझे प्रेम किया है, क्या मैंने भी उसी तरह दूसरों को प्रेम किया है?

- फादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)


📚 REFLECTION

God has given many rules and regulations (commandments) for well being of man. Jesus gives us a new commandment which will not only bring salvation to an individual but also to others through that individual. And that new commandment is - the commandment of brotherly love. ‘Love one another as I have loved you.’ Jesus not only asks us to do something but also he himself does it first and sets an example for us. First he himself has fulfilled this commandment of love. How has he loved us? He is the son of God, but for our sake he has made himself a slave, and accepted death even a cruel and humiliating death on the cross. (Cf. Philippians 2:5-8). We have to give up our ego and pride before loving others, and even we have to make ourselves humble even to becoming servant of all, and that’s what Jesus wants of us. To express his love for us Jesus became like one of us and experienced our pain and suffering. We have to become one with others in order to really love them, we have to unite ourselves with others in their times of joys and sorrows. Then we can say with Saint Paul, “I have become all things to all…”(1 Cor. 9:22). May God give us the strength to love one another as he has loved us. Amen.

-Fr. Johnson B.Maria (Gwalior)


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Praise the Lord!