4) उसी रात प्रभु की वाणी नातान को यह कहते हुए सुनाई पड़ी,
5) "मेरे सेवक दाऊद के पास जाकर कहो - प्रभु यह कहता है:
12) जब तुम्हारे दिन पूरे हो जायेंगे और तुम अपने पूर्वजों के साथ विश्राम करोगे, तो मैं तुम्हारे पुत्र को तुम्हारा उत्तराधिकारी बनाऊँगा और उसका राज्य बनाये रखूँगा।
13) वही मेरे आदर में एक मन्दिर बनवायेगा और मैं उसका सिंहासन सदा के लिए सुदृढ़ बना दूँगा।
14) मैं उसका पिता होऊँगा, और वह मेरा पुत्र होगा।
16) इस तरह तुम्हारा वंश और तुम्हारा राज्य मेरे सामने बना रहेगा और उसका सिंहासन अनन्त काल तक सुदृढ़ रहेगा।"
13) ईश्वर ने इब्राहीम और उनके वंश से प्रतिज्ञा की कि वे पृथ्वी के उत्तराधिकारी होंगे। यह इसलिए नहीं हुआ कि इब्राहीम ने संहिता का पालन किया, बल्कि इसलिए कि उन्होंने विश्वास किया और ईश्वर ने उन्हें धार्मिक माना है।
16) सब कुछ विश्वास पर और इसलिए कृपा पर भी, निर्भर रहता है। वह प्रतिज्ञा न केवल उन लोगों पर, जो संहिता का पालन करते हैं, बल्कि समस्त वंश पर लागू होती है- उन सबों पर, जो इब्राहीम की तरह विश्वास करते हैं।
17) इब्राहीम हम सबों के पिता हैं। जैसा कि लिखा है-मैंने तुम को बहुत-से राष्ट्रों का पिता नियुक्त किया है। ईश्वर की दृष्टि में इब्राहीम हमारे पिता हैं। उन्होंने उस ईश्वर में विश्वास किया, जो मृतकों को पुनर्जीवित करता है और जो नहीं है, उसे भी अस्तित्व में लाता है।
18) इब्राहीम ने निराशाजनक परिस्थिति में भी आशा रख कर विश्वास किया और वह बहुत-से राष्ट्रों के पिता बन गये, जैसा कि उन से कहा गया था- तुम्हारे असंख्य वंशज होंगे।
22) इस विश्वास के कारण ईश्वर ने उन्हें धार्मिक माना है।
(16) याकूब से मरियम का पति यूसुफ़़, और मरियम से ईसा उत्पन्न हुए, जो मसीह कहलाते हैं।
(18) ईसा मसीह का जन्म इस प्रकार हुआ। उनकी माता मरियम की मँगनी यूसुफ से हुई थी, परंतु ऐसा हुआ कि उनके एक साथ रहने से पहले ही मरियम पवित्र आत्मा से गर्भवती हो गयी।
(19) उसका पति यूसुफ चुपके से उसका परित्याग करने की सोच रहा था, क्योंकि वह धर्मी था और मरियम को बदनाम नहीं करना चाहता था।
(20) वह इस पर विचार कर ही रहा था कि उसे स्वप्न में प्रभु का दूत यह कहते दिखाई दिया, ’’यूसुफ! दाऊद की संतान! अपनी पत्नी मरियम को अपने यहाँ लाने में नहीं डरे,क्योंकि उनके जो गर्भ है, वह पवित्र आत्मा से है।
(21) वे पुत्र प्रसव करेंगी और आप उसका नाम ईसा रखेंगें, क्योंकि वे अपने लोगों को उनके पापों से मुक्त करेगा।’’
(24) यूसुफ नींद से उठ कर प्रभु के दूत की आज्ञानुसार अपनी पत्नी को अपने यहाँ ले आया।
एक बार गृहयुद्ध के दौरान अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहिम लिंकन अपने मंत्रियों के साथ प्रार्थना करने के लिये बैठे। इस दौरान एक मंत्री ने कहा, ’’चलो हम प्रार्थना करे कि ईश्वर हमारे साथ हो।’’ इस पर अब्राहिम लिंकन ने टोकते हुये कहा, ’’ऐसे प्रार्थना करना सही दृष्टिकोण नहीं है। हमें प्रार्थना करना चाहिये कि हम ईश्वर के साथ हो।’’ लिंकन ने अपने साथी मंत्रियों को याद दिलाया कि ईश्वर ऐसा औजार और हथियार नहीं है जिसे हम अपने उद्देश्य के इस्तेमाल कर सके बल्कि यह हमें ईश्वर की योजना की ओर खुलने के लिये एक निमंत्रण है।
संत यूसुफ के चरित्र की सबसे बडी खासियत उनकी ईश्वर की योजना में शामिल होेने की तीव्रता एवं तत्परता। जब यूसुफ को यह मालूम हुआ कि मरियम गर्भवती है तो उन्हें गहरा दुख हुआ। उन्होंने मरियम को चुपचाप त्यागने का निर्णय लिया। किन्तु रात को स्वर्गदूत ने उन्हें सपने में बताया कि मरियम को अपने पत्नी स्वीकारने में डरे नहीं। क्योंकि उसके जो गर्भ में है वह ईश्वर के द्वारा है। यह अविश्वनीय बात थी। किन्तु उन्होंने ईश्वर की बात पर विश्वास किया और उठकर मरियम को अपने घर ले आये।
बाइबिल उन लोगों को धार्मिक मानती है जो हर असंभव सी लगने वाली ईश्वरीय योजना में विश्वास करते है। इब्राहिम ने ईश्वर की प्रतिज्ञाओं पर उन परिस्थितियों में भी विश्वास किया जब वे परी-कथाओं जैसी प्रतीत होती थी। इब्राहिम की कोई संतान नहीं थी किन्तु उनसे प्रतिज्ञा की गयी कि उनके वंशज होंगे। ’’ईश्वर ने अब्राम को बाहर ले जाकर कहा, आकाश की और दृष्टि लगाओ और सम्भव हो, तो तारों की गिनती करो। उसने उस से यह भी कहा, तुम्हारी सन्तति इतनी ही बड़ी होगी। अब्राम ने ईश्वर में विश्वास किया और इस कारण प्रभु ने उसे धार्मिक माना। (उत्पत्ति 15:4-6) संत पौलुस रोमियों के नाम पत्र में इब्राहिम को उनके विश्वास के कारण धार्मिक मानते हैं, ’’इब्राहीम ने निराशाजनक परिस्थिति में भी आशा रख कर विश्वास किया .....उन्हें पक्का विश्वास था कि ईश्वर ने जिस बात की प्रतिज्ञा की है, वह उसे पूरा करने में समर्थ है। इस विश्वास के कारण ईश्वर ने उन्हें धार्मिक माना है।’’ (रोमियों 4:18-22)
जब ईश्वर ने नूह को पोत बनाने को कहा जो उसने वह सब किया जो ईश्वर ने उससे कहा था। इसलिये बाइबिल नूह को धार्मिक तथा सदाचारी बताती है। (उत्पति 6:9)
संत युसूफ ने ईश्वर की बात मानकर वह सब किया जो ईश्वर उनसे चाहता था। इसलिये बाइबिल उन्हें धार्मिक कहकर संबोधित करती है। संत यूसुफ का जीवन सिखलाता है कि हमारी सच्ची धार्मिकता ईश्वर की इच्छा पूरी करने में हैं। हम अपने जीवन में अनेक निर्णय लेते हैं। क्या हम यह सोचते है कि ईश्वर हम से क्या चाहते हैं? क्या हमने ईश्वर की योजना और इच्छा को जानने की कोशिश की? आईये प्रार्थना तथा वचन में हम हमारे लिये ईश्वर की योजना को पहचाने और लागू करे।
✍ - फादर रोनाल्ड वाँन
During the US civil war Abraham Lincoln met with a group of ministers for a prayer breakfast. Lincoln was not a church-goer but was a man of deep, if at times unorthodox, faith. At one point one of the ministers said, “Mr President, let us pray that God is on our side”. Lincoln’s response showed far greater insight, “No, gentlemen, let us pray that we are on God’s side.”
Lincoln reminded those ministers that religion is not a tool by which we get God to do what we want but an invitation to open ourselves to being and doing what God wants.
One of the characteristics that stand out in describing St. Joseph’s willingness and conviction to be on God’s side. When Joseph learnt of Mary’s pregnancy he was deeply disturbed as it is very natural for a man. He was thinking of abandoning Mary but at that moment God intervenes and ask Joseph to believe that Mary conceived by the power of the Holy Spirit hence not to abandon her. Contrary all that Joseph was thinking, when he got up from the sleep, he brought Mary to his house as his wife.
Bible considers the righteous is the one who believes no matter what the condition was. Abraham believed in God and his promises when there was nothing concrete. He had no son but God asked him to believe in the descendents he will have. “Then he said to him, ‘So shall your descendants be.’ And he believed the Lord; and the Lord reckoned it to him as righteousness.” (Genesis 15:5-6) St. Paul in the letter to the Romans reckons this faith of Abraham in God in the wake of utter impossibility as the something righteousness. “Hoping against hope, he believed that he would become ‘the father of many nations’, No distrust made him waver concerning the promise of God,…being fully convinced that God was able to do what he had promised. Therefore his faith ‘was reckoned to him as righteousness.’(Romans 4:18-22)
Book of Genesis 6:9 says, “Noah was a righteous man,” God asked Noah to do a strange job. He asked him to build a boat when there wasn’t even a lake or an ocean around. God told Noah that He was going to flood the whole earth with water. The boat that God asked him to build was to be huge! It was to be large enough to hold Noah and his family and also some of each kind of animal that lived on the earth. It may have seemed like a strange request from God, but Noah obeyed.
St. Joseph was a righteous man. Because he did what God wanted him to do inspite of all human logic. It is a great thing to reflect upon how could he believe something impossible? How he changed his decision overnight and set upon a journey of faith. St. Joseph truly lived by faith and not by sight.
In our lives we constantly make decisions. We consider the human arithmetic logic of profit and loss. We hardly consider what God wants us to do. We rarely seek his will in prayer and in the Word. It is God the promise of God that if we seek him we will find him. Come let learn from St. Joseph the virtue of seeking God’s will and obeying it against our own feelings, calculation and conviction. For we would never be disappointed if we obey him.
✍ -Fr. Ronald Vaughan