1) इस्राएल के सभी वंशों ने हेब्रोन में दाऊद के पास आकर कहा, "देखिए, हम आपके रक्त-सम्बन्धी हैं।
2) जब साऊल हम पर राज्य करते थे, तब पहले भी आप ही इस्राएलियों को युद्ध के लिए ले जाते और वापस लाते थे। प्रभु ने आप से कहा है, ‘तुम ही मेरी प्रजा इस्राएल के चरवाहा, इस्राएल के शासक बन जाओगे।"
3) इस्राएल के सभी नेता हेब्रोन में राजा के पास आये और दाऊद ने हेब्रोन में प्रभु के सामने उनके साथ समझौता कर लिया। उन्होंने दाऊद का इस्राएल के राजा के रूप में अभिशेक किया।
12) सब कुछ आनन्द के साथ सह सकेंगे और पिता को धन्यवाद देंगे, जिसने आप को इस योग्य बनाया है कि आप ज्योति के राज्य में रहने वाले सन्तों के सहभागी बनें।
13) ईश्वर हमें अन्धकार की अधीनता से निकाल कर अपने प्रिय पुत्र के राज्य में ले आया।
14) उस पुत्र के द्वारा हमारा उद्धार हुआ है, अर्थात् हमें पापों की क्षमा मिली है।
15) ईसा मसीह अदृश्य ईश्वर के प्रतिरूप तथा समस्त सृष्टि के पहलौठे हैं;
16) क्योंकि उन्हीं के द्वारा सब कुछ की सृष्टि हुई है। सब कुछ - चाहे वह स्वर्ग में हो या पृथ्वी पर, चाहे दृश्य हो या अदृश्य, और स्वर्गदूतों की श्रेणियां भी - सब कुछ उनके द्वारा और उनके लिए सृष्ट किया गया है।
17) वह समस्त सृष्टि के पहले से विद्यमान हैं और समस्त सृष्टि उन में ही टिकी हुई है।
18) वही शरीर अर्थात् कलीसिया के शीर्ष हैं। वही मूल कारण हैं और मृतकों में से प्रथम जी उठने वाले भी, इसलिए वह सभी बातों में सर्वश्रेष्ठ हैं।
19) ईश्वर ने चाहा कि उन में सब प्रकार की परिपूर्णता हो।
20) मसीह ने क्रूस पर जो रक्त बहाया, उसके द्वारा ईश्वर ने शान्ति की स्थापना की। इस तरह ईश्वर ने उन्हीं के द्वारा सब कुछ का, चाहे वह पृथ्वी पर हो या स्वर्ग में, अपने से मेल कराया।
35) जनता खड़ी हो कर यह सब देख ही थी। नेता यह कहते हुए उनका उपहास करते थे, "इसने दूसरों को बचाया। यदि यह ईश्वर का मसीह और परमप्रिय है, तो अपने को बचाये।"
36) सैनिकों ने भी उनका उपहास किया। वे पास आ कर उन्हें खट्ठी अंगूरी देते हुए बोले,
37) "यदि तू यहूदियों का राजा है, तो अपने को बचा"।
38) ईसा के ऊपर लिखा हुआ था, "यह यहूदियों का राजा है"।
39) क्रूस पर चढ़ाये हुए कुकर्मियों में एक इस प्रकार ईसा की निन्दा करता था, "तू मसीह है न? तो अपने को और हमें भी बचा।"
40) पर दूसरे ने उसे डाँट कर कहा, "क्या तुझे ईश्वर का भी डर नहीं? तू भी तो वही दण्ड भोग रहा है।
41) हमारा दण्ड न्यायसंगत है, क्योंकि हम अपनी करनी का फल भोग रहे हैं; पर इन्होंने कोई अपराध नहीं किया है।"
42) तब उसने कहा, "ईसा! जब आप अपने राज्य में आयेंगे, तो मुझे याद कीजिएगा"।
43) उन्होंने उस से कहा, "मैं तुम से यह कहता हूँ कि तुम आज ही परलोक में मेरे साथ होगे"।
समुएल के पहले ग्रन्थ के अध्याय 8 में हम देखते हैं कि जब इस्राएली लोगों ने समुएल से उनके लिए एक राजा को नियुक्त करने की मांग की, तो वे वास्तव में, ईश्वर को अपने राजा के रूप में अस्वीकार कर रहे थे। प्रभु ने तब समुएल से कहा कि वे उनकी आवाज सुनें और साऊल को उनके राजा के रूप में अभिषिक्त करें, परन्तु उससे पहले वे उन्हें मानव राजाओं के शोषण और उत्पीड़न के तरीकों के बारे में चेतावनी दें। तत्पश्चात् कई राजाओं ने इस्राएल का शासन किया। परन्तु इस्राएल में राजशाही विफल थी। प्रभु येसु ईश्वर के मन के अनुरूप राजा है। जब ज्योतिषी येसु की खोज में पूरब से आए थे, तो उन्होंने हेरोद से कहा, “यहूदियों के नवजात राजा कहाँ हैं? हमने उनका तारा उदित होते देखा। हम उन्हें दण्डवत् करने आये हैं।”(मत्ती 2:2) लेकिन इस राजा का जन्म एक चरनी में हुआ था। उन्हें हेरोद के प्रकोप से बचना था जो उसे मारना चाहते थे। इसलिए यूसुफ और मरियम उन्हें मिस्र ले गए। उन्होंने सादगी का जीवन व्यतीत किया। लगभग तीस वर्षों तक उन्होंने एक प्रकार से गुप्त जीवन जिया। उसके बाद उन्होंने लगभग तीन साल का सार्वजनिक जीवन बिताया। अपने सार्वजनिक कार्य की शुरुआत में नथानिएल ने उन्हें ’इस्राएल के राजा’ माना (देखें योहन 1:49)। रोटियों के चमत्कार के बाद, भीड़ उसे एक सांसारिक राजा बनाना चाहती थी, लेकिन वे बच कर पहाडी पर चले गये (देखें योहन 6:15)। अपने सार्वजनिक जीवन के अंत में, उन्हें बहुत कुछ सहना पड़ा और क्रूस पर मरना पड़ा। जब पिलातुस के द्वारा सवाल किया गया, तो उन्होंने स्वीकार किया कि वे राजा हैं लेकिन उन्होंने कहा कि उनका राज्य इस दुनिया का नहीं है (देखें योहन 18:36)। येसु सांसारिक राजाओं के समान नहीं है। वे राजा है जो प्यार करता है और सेवा करता है। वे दया और करुणा से भरे हैं। वे राजाओं का राजा और प्रभुओं का प्रभु हैं। सन 1925 में संत पापा पीयुस ग्यारहवें ने हर चीज और हर किसी पर प्रभु येसु की संप्रभुता को स्वीकार करने के लिए ख्रीस्त राजा के पर्व की घोषणा की। जब वे सिंहासन पर विराजमान हैं तब हम सभी सेवक होते हैं। वे चाहते हैं कि हम नम्रता से एक-दूसरे की सेवा करें।
✍ -फादर फ्रांसिस स्करिया
In 1 Sam 8, when the people of Israel demanded Samuel to anoint someone as a king for them, they were, in fact, rejecting God as their king. God then told Samuel to listen to their voice and anoint Saul as their king, after warning them about the exploiting and harassing ways of human kings. Monarchy in Israel was a failure. Jesus is King according to God’s mind. When the wise men came from the east in search of child Jesus, they said to Herod, “Where is the child who has been born king of the Jews? For we observed his star at its rising, and have come to pay him homage.” (Mt 2:2) But this king was born in a manger. He had to also escape the fury of Herod who wanted to kill him. Hence Joseph and Mary carried him to Egypt. He lived a simple life. For almost thirty years he lived an unassuming life. Then he had about three years of public life. At the beginning of his ministry Nathanael acknowledged him as the king of Israel (cf. Jn 1:49). After the multiplication of the bread, the crowd wanted to make him an earthly king, but “he withdrew again to the mountain by himself” (Jn 6:15). At the end of his public ministry, he had to suffer so much and die on the cross. When questioned by Pilate, he acknowledged that he was king but he added that his kingdom was not of this world (cf. Jn 18:36). Jesus is king unlike other earthly kings. He is a king who loves and serves. He is full of mercy and compassion. He is the King of kings and the Lord of lords. In 1925 Pope Pius XI instituted the Feast of Christ the King to acknowledge Jesus’ sovereignty over everything and everyone. When he is on the throne we are all his servants. He wants us to serve one another in humility.
✍ -Fr. Francis Scaria