14) इसलिए जैसा कि एलीशा ने उस से कहा था, उसने जा कर यर्दन नदी में सात बार डुबकी लगायी और उसका शरीर फिर छोटे बालक के शरीर-जैसा स्वच्छ हो गया।
15) वह अपने सब परिजनों के साथ एलीशा के यहाँ लौटा। वह भीतर जा कर उसके सामने खड़ा हो गया और बोला, "अब मैं जान गया हूँ कि इस्राएल को छोड़ कर और कहीं पृथ्वी पर कोई देवता नहीं है। अब मेरा निवेदन है कि आप अपने सेवक से कोई उपहार स्वीकार करें।"
16) एलीशा ने उत्तर दिया, "उस प्रभु की शपथ, जिसकी मैं सेवा करता हूँ! मैं कुछ भी स्वीकार नहीं करूँगा"। नामान के अनुरोध करने पर भी उसने स्वीकार नहीं किया।
17) तब नामान ने कहा, "जैसी आपकी इच्छा। आज्ञा दीजिए कि मुझे दो खच्चरों का बोझ मिट्टी मिल जाये, क्योंकि मैं अब से प्रभु को छोड़ कर किसी और देवता को होम अथवा बलि नहीं चढ़ाऊँगा।
8) दाऊद के वंश में उत्पन्न, मृतकों में से पुनर्जीवित ईसा मसीह को बराबर याद रखो- यह मेरे सुसमाचार का विषय है।
9) मैं इस सुसमाचार की सेवा में कष्ट पाता हूँ और अपराधी की तरह बन्दी हूँ;
10) मैं चुने हुए लोगों के लिए सब कुछ सहता हूँ, जिससे वे भी ईसा मसीह द्वारा मुक्ति तथा सदा बनी रहने वाली महिमा प्राप्त करें।
11) यह कथन सुनिश्चित है- यदि हम उनके साथ मर गये, तो हम उनके साथ जीवन भी प्राप्त करेंगे।
12) यदि हम दृढ़ रहे, तो उनके साथ राज्य करेंगे। यदि हम उन्हें अस्वीकार करेंगे, तो वह भी हमें अस्वीकार करेंगे।
13) यदि हम मुकर जाते हैं, तो भी वह सत्य प्रतिज्ञ बने रहेंगे; क्योंकि वह अपने स्वभाव के विरुद्ध नहीं जा सकते।
11) ईसा येरूसालेम की यात्रा करते हुए समारिया और गलीलिया के सीमा-क्षेत्रों से हो कर जा रहे थे।
12) किसी गाँव में प्रवेश करने पर उन्हें दस कोढ़ी मिले,
13) जो दूर खड़े हो गये और ऊँचे स्वर से बोले, "ईसा! गुरूवर! हम पर दया कीजिए"।
14) ईसा ने उन्हें देख कर कहा, "जाओ और अपने को याजकों को दिखलाओ", और ऐसा हुआ कि वे रास्ते में ही नीरोग हो गये।
15) तब उन में से एक यह देख कर कि वह नीरोग हो गया है, ऊँचे स्वर से ईश्वर की स्तुति करते हुए लौटा।
16) वह ईसा को धन्यवाद देते हुए उनके चरणों पर मुँह के बल गिर पड़ा, और वह समारी था।
17) ईसा ने कहा, "क्या दसों नीरोग नहीं हुए? तो बाक़ी नौ कहाँ हैं?
18) क्या इस परदेशी को छोड़ और कोई नहीं मिला, जो लौट कर ईश्वर की स्तुति करे?"
19) तब उन्होंने उस से कहा, "उठो, जाओ। तुम्हारे विश्वास ने तुम्हारा उद्धार किया है।"
प्रभु ईश्वर के उपहारों के बारे में हमारी क्या प्रतिक्रिया है? आज के सुसमाचार में, हम दस कोढ़ियों को देखते हैं जो चंगे हो गए थे। उनमें से केवल एक ही प्रभु को धन्यवाद देने के लिए वापस आता है। उसकी प्रतिक्रिया स्पष्ट रूप से बाइबल में दर्ज है। “उन में से एक यह देख कर कि वह नीरोग हो गया है, ऊँचे स्वर से ईश्वर की स्तुति करते हुए लौटा। वह ईसा को धन्यवाद देते हुए उनके चरणों पर मुँह के बल गिर पड़ा।“ (लूकस 17:15-16) उसने प्रभु को विपुलता से धन्यवाद दिया। दस चंगे हो गए। नौ जश्न मनाने जाते हैं; केवल एक ईश्वर को धन्यवाद देने के लिए वापस आता है। क्या यह आज हमारे जीवन की भी वास्तविकता नहीं है? धन्यवाद उपहार की स्वीकृति है। एक उपहार केवल तभी पूरा होता है जब उसे किसी के द्वारा कृतज्ञता के साथ स्वीकार किया जाता है। जब समारी कोढ़ी ईश्वर का शुक्रिया अदा करने के लिए वापस आता है, तब उसे एक अतिरिक्त आशीर्वाद मिलता है, जो दूसरों को नहीं मिलता – “उठो, जाओ। तुम्हारे विश्वास ने तुम्हारा उद्धार किया है” (लूकस 17:19)। पवित्र मिस्सा बलिदान में हम यह स्वीकार करते हैं कि प्रभु को हमारी प्रशंसा की कोई आवश्यकता नहीं है; फिर भी हमारा धन्यवाद करने की इच्छा भी उनका उपहार है। स्तोत्रकार कहता है, “प्रभु के सब उपकारों के लिए मैं उसे क्या दे सकता हूँ? मैं मुक्ति का प्याला उठा कर प्रभु का नाम लूँगा।“ (स्तोत्र 116:12-13) एक अन्य सन्दर्भ में वह कहता है, “मैं हर समय प्रभु को धन्य कहूँगा; मेरा कण्ठ निरन्तर उसकी स्तुति करेगा” (स्तोत्र 34:1)। उसका यह भी कहना है – “प्रभु! मैं सारे हृदय से तुझे धन्यवाद दूँगा। मैं तेरे सब अपूर्व कार्यों का बखान करूँगा”(स्तोत्र 9:1)। हमारे इश्वर एक अद्भुत ईश्वर हैं जो अपने विस्मयकारी उपहारों से हमें लगातार आश्चर्यचकित करते रहते हैं। क्या हमें हर पल उनके प्रति कृतज्ञ नहीं बने रहना चाहिए?
✍ -फादर फ्रांसिस स्करिया
What is our response to God’s gifts? In today’s Gospel, we have ten lepers who were healed. Only one of them comes back to thank the Lord. His response is vividly recorded in the Bible. “When he saw that he was healed, (he) turned back, praising God with a loud voice. He prostrated himself at Jesus’ feet and thanked him.” (Lk 17:15-16) He profusely thanked the Lord. Ten were healed. Nine go to celebrate; only one comes back to God to thank Him. Is this not also a reality of our lives today? Thanksgiving is an acknowledgement of the gift. A gift is complete only when it is gratefully received and acknowledged by someone. When the Samaritan leper comes back to thank God, he receives an additional blessing which others do not – “Get up and go on your way; your faith has made you well” (Lk 17:19). In the Holy Mass acknowledge that the Lord has no need of our praise; yet our desire to thank him is itself his gift. The Psalmist says, “What shall I return to the Lord for all his bounty to me? I will lift up the cup of salvation and call on the name of the Lord,” (Ps 116:12-13). Elsewhere, he says, “I will bless the Lord at all times; his praise shall continually be in my mouth” (Ps 34:1). He also says, “I will give thanks to the Lord with my whole heart; I will tell of all your wonderful deeds” (Ps 9:1). We have an amazing God who continually amazes us with his wonderful gifts. Should not every moment be lived in gratefulness towards Him?
✍ -Fr. Francis Scaria