चक्र - स - वर्ष का पच्चीसवाँ इतवार



पहला पाठ : आमोस 8:4-7

4) तुम लोग मेरी यह बात सुनो, तुम जो दीन-हीन को रौंदते हो और देश के गरीबों को समाप्त कर देना चाहते हो।

5) तुम कहते हो, "अमावस का पर्व कब बीतेगा, जिससे हम अपना अनाज बेच सकें ? विश्राम का दिन कब बीतेगा, जिससे हम अपना गेहूँ बेच सकें? हम अनाज की नाप छोटी कर देंगे, रुपये का वजन बढ़ायेंगे और तराजू को खोटा बनायेंगे।

6) हम चाँदी के सिक्के से दरिद्र को खरीद लेंगे और जूतों की जोड़ी के दाम पर कंगाल को। हम गेहूँ का कचरा तक बेच देंगे।"

7) प्रभु याकूब के अहँ का शपथ खा कर कहता है- "तुम लोगों ने जो कुछ किया, मैं वह सब याद रखूँगा।

8) क्या यह सुन कर धरती नहीं काँप उठेगी? क्या उसके सब निवासी विलाप नहीं करेंगे? सारी पृथ्वी नील नदी की बाढ़ की तरह हिलोरित हो उठेगी और फिर मिस्र की नील नदी की तरह शान्त हो जायेगी।"

दूसरा पाठ : 1 तिमथि 2:1-8

1 (1-2) मैं सब से पहले यह अनुरोध करता हूँ कि सभी मनुष्यों के लिए, विशेष रूप से राजाओं और अधिकारियों के लिए, अनुनय-विनय, प्रार्थना निवेदन तथा धन्यवाद अर्पित किया जाये, जिससे हम भक्ति तथा मर्यादा के साथ निर्विघ्न तथा शान्त जीवन बिता सकें।

3) यह उचित भी है और हमारे मुक्तिदाता ईश्वर को प्रिय भी,

4) क्योंकि वह चाहता है कि सभी मनुष्य मुक्ति प्राप्त करें और सत्य को जानें।

5) क्योंकि केवल एक ही ईश्वर है और ईश्वर तथा मनुष्यों के केवल एक ही मध्यस्थ हैं, अर्थात् ईसा मसीह,

6) जो स्वयं मनुष्य हैं और जिन्होंने सब के उद्धार के लिए अपने को अर्पित किया। उन्होंने उपयुक्त समय पर इसके सम्बन्ध में अपना साक्ष्य दिया।

7) मैं सच कहता हूँ, झूठ नहीं बोलता। मैं इसी का प्रचारक तथा प्रेरित, गैर-यहूदियों के लिए विश्वास तथा सत्य का उपदेशक नियुक्त हुआ हूँ।

8) मैं चाहता हूँ कि सब जगह पुरुष, बैर तथा विवाद छोड़ कर, श्रद्धापूर्वक हाथ ऊपर उठा कर प्रार्थना करें।

सुसमाचार : सन्त लूकस 16:1-13

1) ईसा ने अपने शिष्यों से यह भी कहा, "किसी धनवान् का एक कारिन्दा था। लोगों ने उसके पास जा कर कारिन्दा पर यह दोष लगाया कि वह आपकी सम्पत्ति उड़ा रहा है।

2) इस पर स्वामी ने उसे बुला कर कहा, ‘यह मैं तुम्हारे विषय में क्या सुन रहा हूँ? अपनी कारिन्दगरी का हिसाब दो, क्योंकि तुम अब से कारिन्दा नहीं रह सकते।’

3) तब कारिन्दा ने मन-ही-मन यह कहा, ‘मै क्या करूँ? मेरा स्वामी मुझे कारिन्दगरी से हटा रहा है। मिट्टी खोदने का मुझ में बल नहीं; भीख माँगने में मुझे लज्जा आती है।

4) हाँ, अब समझ में आया कि मुझे क्या करना चाहिए, जिससे कारिन्दगरी से हटाये जाने के बाद लोग अपने घरों में मेरा स्वागत करें।’

5) उसने अपने मालिक के कर्ज़दारों को एक-एक कर बुला कर पहले से कहा, ’तुम पर मेरे स्वामी का कितना ऋण है?’

6) उसने उत्तर दिया, ‘सौ मन तेल’। कारिन्दा ने कहा, ‘अपना रुक्का लो और बैठ कर जल्दी पचास लिख दो’।

7) फिर उसने दूसरे से पूछा, ‘तुम पर कितना ऋण है?’ उसने कहा, ‘सौ मन गेंहूँ। कारिन्दा ने उस से कहा, ‘अपना रुक्का लो और अस्सी लिख दो’।

8) स्वामी ने बेईमान कारिन्दा को इसलिए सराहा कि उसने चतुराई से काम किया; क्योंकि इस संसार की सन्तान आपसी लेन-देन में ज्योति की सन्तान से अधिक चतुर है।

9) "और मैं तुम लोगों से कहता हूँ, झूठे धन से अपने लिए मित्र बना लो, जिससे उसके समाप्त हो जाने पर वे परलोक में तुम्हारा स्वागत करें।

10) "जो छोटी-से-छोटी बातों में ईमानदार है, वह बड़ी बातों में भी ईमानदार है और जो छोटी-से-छोटी बातों बेईमान है, वह बड़ी बातों में भी बेईमान है।

11) यदि तुम झूठे धन में ईमानदार नहीं ठहरे, तो तुम्हें सच्चा धन कौन सौंपेगा?

12) और यदि तुम पराये धन में ईमानदार नहीं ठहरे, तो तुम्हें तुम्हारा अपना धन कौन देगा?

13) "क़ोई भी सेवक दो स्वामियों की सेवा नहीं कर सकता; क्योंकि वह या तो एक से बैर और दूसरे से प्रेम करेगा, या एक का आदर और दूसरे का तिरस्कार करेगा। तुम ईश्वर और धन-दोनों क़ी सेवा नहीं कर सकते।"

मनन-चिंतन

सन 258 ईस्वी में जब सन्त पापा सिक्स्तुस द्वितीय सन्त पापा थे तो उस समय उपयाजक सन्त लॉरेंस कलीसिया की धन-सम्पत्ति के प्रबन्धक थे। अगस्त 258 में रोमी सम्राट वेलेरियन ने राजाज्ञा निकाली कि समस्त धर्माध्यक्षों, पुरोहितों, उपयाजकों एवं कलीसिया के अधिकारियों को मौत के घाट उतार दिया जाये और कलीसिया की सारी संपत्ति को राजकोष में शामिल कर लिया जाये। कलीसिया की सारी संपत्ति के प्रबन्धक होने के कारण सन्त लॉरेंस को सम्राट के समक्ष हाजिर किया गया। सन्त लॉरेंस ने सम्राट से कहा, “हुजुर, मुझे तीन दिन का समय दीजिये, मैं कलीसिया की सारी सम्पत्ति आपको सौंप दूंगा।” राजा ने समय दे दिया। सन्त लॉरेंस ने कलीसिया की सारी धन सम्पत्ति दरिद्रों, अनाथों, विधवाओं, बूढ़े, लाचार-बीमारों में बाँट दी। तीन दिन बाद वे उन सभी के साथ फिर राजा के दरबार में प्रस्तुत हुए, और दरिद्रों, अनाथों, विधवाओं, बूढ़े, लाचार-बीमारों को आगे करते हुए कहा, “ले लीजिये, यही है कलीसिया की सारी धन-सम्पत्ति।”

यह बात हमें भले ही थोड़ी सी अटपटी लगे, लेकिन ईश्वर के राज्य में सच्ची धन-संपत्ति यही निराश्रित, दरिद्र, अनाथ आदि हैं। आज की दुनिया में हम देखते हैं कि मनुष्य जीवन की भाग-दौड़ में बड़ा व्यस्त है। उसकी इच्छाएं असीम हैं। अगर उसने दो पैसे कमाये हैं तो वह उसे बढ़ा कर चार पैसे करना चाहेगा। उसी तरह अगर किसी ने एक लाख रूपये कमाये हों, और ये उसके लिए पर्याप्त हों लेकिन फिर भी उसे और अधिक कमाने की ललक रहती है। इन्सान के लालची स्वभाव का जीता-जागता उदाहरण हमें इसी बात में मिलता है कि अगर एक व्यक्ति अच्छी सरकारी नौकरी करता है, और 35-40 हज़ार तक वेतन लेता है, सारी सरकारी सुविधाएँ लेता है, उसके बावजूद कई बार ऐसी घटनाएँ देखने को मिलती हैं जब वही व्यक्ति 5-7 हजार तनख्वाह पाने वाले व्यक्ति का काम करवाने के एवज में हज़ार-दो हज़ार रूपये ऐंठ लेता है। क्या उसकी तनख्वाह उसके लिए पर्याप्त नहीं है? लेकिन फिर भी वह लालची और भ्रष्ट क्यों है? क्योंकि जब तक हमारी एक इच्छा पूरी नहीं होती तब तक दूसरी जन्म ले लेती है। और इन्ही इच्छाओ की पूर्ती करते-करते एक दिन हम मर जाते हैं। उपदेशक ग्रन्थ हमें बताता है- “जिसे पैसा प्रिय है, वह हमेशा और (अधिक) पैसा चाहता है। जिसे सम्पत्ति प्रिय है, वह कभी अपनी आमदनी से संतुष्ट नहीं होता है। यह भी व्यर्थ है।” (उपदेशक-ग्रन्थ 5:9)। क्या यह सब धन-दौलत हमारे साथ जायेगा? वास्तव में सच्चाई यही है कि यह सब इस पृथ्वी पर मूल्यवान होगा लेकिन स्वर्ग में इसका कोई मोल नहीं है।

जब हम विदेश जाते हैं, तो उस देश की मुद्रा की हमें ज़रूरत पड़ती है। उदाहरण के लिए यदि एक व्यक्ति भारत से अमरीका जाता है तो उसे अमरीका में उपयोग करने के लिए वहाँ की मुद्रा चाहिए, इसके लिए भारत की मुद्रा ‘रूपये’ को अमरीका की मुद्रा ‘डॉलर’ में परिवर्तित करना पड़ेगा। वहाँ रूपये का कोई उपयोग नहीं। हम पृथ्वी पर कुछ ही समय के लिए आते हैं, हमारा वास्तविक निवास, स्थायी स्वदेश स्वर्ग ही है। स्वर्ग की मुद्रा यहाँ पृथ्वी की मुद्रा से भिन्न है। स्वर्ग में हमारा पुण्य, हमारी भलाई, हमारी अच्छाई वहाँ की मुद्रा बन जाते हैं। हमें यहाँ की धन-दौलत को स्वर्ग की धन-दौलत में बदलना होगा। इसलिए प्रभु येसु कहते हैं, “...झूठे धन से अपने लिये मित्र बना लो, जिससे उसके समाप्त हो जाने पर वे परलोक में तुम्हारा स्वागत करें।” (लूकस 16:9)। इस पृथ्वी का धन झूठा है, सच्ची दौलत तो स्वर्ग की दौलत है। हमारी भलाई और उद्दार इसी में है कि हम उसी दौलत को कमायें और स्वर्ग में जमा करें। “स्वर्ग में अपने लिए पूँजी जमा करो, जहाँ न तो मोरचा लगता है, न कीड़े खाते हैं और न चोर सेंध लगाकर चुराते हैं।” (मत्ती 6:20)।

अब मन में सवाल उठेगा कि स्वर्ग में हम अपने लिए धन-दौलत कैसे जमा कर सकते हैं? छोटी-छोटी बातों में इमानदार रहकर भूखों को भोजन खिलाकर, प्यासे को पानी पिलाकर, निराश्रितों को आश्रय देकर, जिनके पास कपड़े नहीं हैं, उन्हें कपड़े पहनाकर, बीमारों से भेंट कर एवं उनकी सेवा करके, बंदियों से मिलकर उनकी हिम्मत बंधा कर, क्योंकि इसी आधार पर हमारी स्वर्गीय पूँजी का मूल्यांकन होगा। (देखें मत्ती 25:35)। या अगर सीधे-सीधे बोलें तो दुनिया की धन-दौलत को दूसरों की भलाई में लगाकर पुण्य कमायें वही हमारी सबसे बड़ी पूँजी होगी। हम चाहे कितने भी धनवान हों लेकिन यदि उस धन का उपयोग हम स्वर्गीय दौलत कमाने के लिए नहीं करते तो वह व्यर्थ है। धनी युवक की कहानी (मत्ती 19:16-22) भी हमें यही सिखाती है। उस धनी युवक के साथ-साथ प्रभु येसु हमसे भी यही कहते हैं, “यदि तुम पूर्ण होना चाहते हो, तो जाओ, अपनी सारी संपत्ति बेचकर गरीबों को दे दो और स्वर्ग में तुम्हारे लिए पूँजी रखी रहेगी। तब आकर मेरा अनुसरण करो।” (मत्ती 19:21)।

-फादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)


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