18) “मैं सभी भाषाओं के राष्ट्रों को एकत्र करूँगा। वे मेरी महिमा के दर्शन करने आयेंगे।
19) मैं उन में एक चिन्ह प्रकट करूँगा। जो बच गये होंगे, उन में से कुछ लोगों को मैं राष्ट्रों के बीच भेजूँगा- तरशीश, पूट, धनुर्धारी लूद, तूबल, यूनान और उन सुदूर द्वीपों को, जिन्होंने अब तक न तो मेरे विषय में सुना है और न मेरी महिमा देखी है। उन राष्ट्रों में वे मेरी महिमा प्रकट करेंगे।
20) वे प्रभु की भेंटस्वरूप सभी राष्ट्रों में से तुम्हारे सब भाइयों को ले आयेंगे।“ प्रभु कहता है, “जिस तरह इस्राएली शुद्ध पात्रों में चढ़ावा लिये प्रभु के मन्दिर आते हैं, उसी तरह वे उन्हें घोड़ों, रथों, पालकियों, खच्चरों और साँड़नियों पर बैठा कर मेरे
21) मैं उन मे से कुछ को याजक बनाऊँगा और कुछ लोगों को लेवी।“ यह प्रभु का कहना है।
5) क्या आप लोग धर्मग्रन्थ का यह उपदेश भूल गये हैं, जिस में आप को पुत्र कह कर सम्बोधित किया गया है? -मेरे पुत्र! प्रभु के अनुशासन की उपेक्षा मत करो और उसकी फटकार से हिम्मत मत हारो;
6) क्योंकि प्रभु जिसे प्यार करता है, उसे दण्ड देता है और जिसे पुत्र मानता है, उसे कोड़े लगाता है।
7) आप जो कष्ट सहते हैं, उसे पिता का दण्ड समझें, क्योंकि वह इसका प्रमाण है, कि ईश्वर आप को पुत्र समझ कर आपके साथ व्यवहार करता है। और कौन पुत्र ऐसा है, जिसे पिता दण्ड नहीं देता?
11) जब दण्ड मिल रहा है, तो वह सुखद नहीं, दुःखद प्रतीत होता है; किन्तु जो दण्ड द्वारा प्रशिक्षित होते हैं, वे बाद में धार्मिकता का शान्तिप्रद फल प्राप्त करते हैं।
12) इसलिए ढीले हाथों तथा शिथिल घुटनों को सबल बना लें।
13) और सीधे पथ पर आगे बढ़ते जायें, जिससे लंगड़ा भटके नहीं, बल्कि चंगा हो जाये।
22) ईसा नगर-नगर, गाँव-गाँव, उपदेश देते हुए येरूसालेम के मार्ग पर आगे बढ़ रहे थे।
23) किसी ने उन से पूछा, "प्रभु! क्या थोड़े ही लोग मुक्ति पाते हैं?’ इस पर ईसा ने उन से कहा,
24) "सँकरे द्वार से प्रवेश करने का पूरा-पूरा प्रयत्न करो, क्योंकि मैं तुम से कहता हूँ - प्रयत्न करने पर भी बहुत-से लोग प्रवेश नहीं कर पायेंगे।
25) जब घर का स्वामी उठ कर द्वार बन्द कर चुका होगा और तुम बाहर रह कर द्वार खटखटाने और कहने लगोगे, ’प्रभु! हमारे लिए खोल दीजिए’, तो वह तुम्हें उत्तर देगा, ’मैं नहीं जानता कि तुम कहाँ के हो’।
26) तब तुम कहने लगोगे, ’हमने आपके सामने खाया-पीया और आपने हमारे बाज़ारों में उपदेश दिया’।
27) परन्तु वह तुम से कहेगा, ’मैं नहीं जानता कि तुम कहाँ के हो। कुकर्मियो! तुम सब मुझ से दूर हटो।’
28) जब तुम इब्राहीम, इसहाक, याकूब और सभी नबियों को ईश्वर के राज्य में देखोगे, परन्तु अपने को बहिष्कृत पाओगे, तो तुम रोओगे और दाँत पीसते रहोगे।
29) पूर्व तथा पश्चिम से और उत्तर तथा दक्षिण से लोग आयेंगे और ईश्वर के राज्य में भोज में सम्मिलित होंगे।
30) देखो, कुछ जो पिछले हैं, अगले हो जायेंगे और कुछ जो अगले हैं, पिछले हो जायेंगे।"
नये व्यवस्थान के चारों सुसमाचारों में से दो सुसमाचारों में प्रभु येसु की वंशावली का वर्णन है, जिसमें सन्त लूकस आदम से लेकर प्रभु येसु तक की वंशावली का वर्णन करते हैं (लूकस 3:23-38) जबकि सन्त मत्ती प्रभु येसु की वंशावली को धर्म-पिता इब्राहीम से प्रारम्भ करते हैं (मत्ती 1:1-16)। इसमें कोई दो राय नहीं कि इब्राहीम को हम अपने विश्वास के पिता के रूप में मानते हैं क्योंकि ईश्वर ने उनके उनके देश, कुटुम्ब आदि को छोड़कर बुलाया और वे अपना सब कुछ छोड़कर ईश्वर के बुलाबे के अनुसार सब कुछ छोड़कर प्रतिज्ञात देश के लिए रवाना हुए। (देखें इब्रानियों के नाम पत्र 11:8-19)। ईश्वर ने इब्राहीम से प्रतिज्ञा की कि वह इब्राहीम को राष्ट्रों का पिता बनाएगा और उसके द्वारा पृथ्वी भर के वंश आशीर्वाद प्राप्त करेंगे (उत्पत्ति 12:4)। ईश्वर ने उसके साथ एक विधान ठहराया, और वही विधान बाद में इसहाक, याकूब व आने वाली पीढ़ियों के साथ भी दुहराया और वह विधान यह था कि ईश्वर सदा उनका ईश्वर बना रहेगा और वे उसकी प्रिय प्रजा बने रहेंगे, ईश्वर सदा उनकी रक्षा करेगा और उन्हें संभालेगा, बदले में उनकी चुनी हुई प्रजा सदा ईश्वर को ही अपना प्रभु मानेंगे और उसकी आज्ञाओं का पालन करेंगे। मानव इतिहास और मुक्ति इतिहास इस बात के साक्षी हैं कि ईश्वर ने कभी अपने विधान की प्रतिज्ञाओं को नहीं तोडा, बल्कि मनुष्य ने ही ईश्वर की आज्ञाओं की अवेहलना की और ईश्वर के रास्ते से भटक गया। पुराने व्यवस्थान में प्रभु ने इस्राएल को अपनी चुनी हुई प्रजा बनाया था, और नये व्यवस्थान में ईश्वर की वही चुनी हुई प्रजा नया इस्राएल अर्थात् प्रभु येसु में विश्वास करने वाले उनके अनुयायी हैं।
हमारी धर्मशिक्षा हमें सिखाती है कि जब हम प्रभु येसु में बप्तिस्मा ग्रहण करते हैं तो हम उसी ईश्वरीय प्रजा के सदस्य बन जाते हैं; हम चुने हुए लोगों में सम्मिलित हो जाते हैं। हम प्रभु येसु के कलवारी के बलिदान के फल के सहभागी बन जाते हैं, इसी सहभागिता पर हम गर्व करते हैं। लेकिन अगर हम प्रभु येसु की मुक्ति के सहभागी बनते हैं तो हमारी भी कुछ जिम्मेदारी बनती है। ईश्वर द्वारा ठहराये हुए विधान में दो पक्षकार हैं- एक स्वयं ईश्वर और दूसरा उनकी चुनी हुई प्रजा। दोनों ही पक्षों को अपनी-अपनी जिम्मेदारी निभानी है, तभी वह विधान सफल माना जायेगा। नये विधान की शर्ते पुराने विधान की शर्तों से अलग नहीं हैं, लेकिन क्या हम ईश्वर के उस विधान की शर्तों का पालन कर पाते हैं?
भले ही प्रभु येसु ने क्रूस पर पूरी दुनिया के लिए अपने प्राण न्यौछावर किये हों, और संसार के सब लोगों को मुक्ति प्रदान की है, लेकिन आज की दुनिया में हम अगर नज़र दौडायें तो हम भी आज के सुसमाचार में शिष्यों की तरह प्रभु से पूछ उठेंगे, “प्रभु क्या थोड़े ही लोग मुक्ति पाते हैं?” जब तक हम प्रभु को अपना मुक्तिदाता नहीं स्वीकार करेंगे तब तक कैसे हम उस मुक्ति के सहभागी होंगे? जब तक हम ईश्वर के विधान की शर्तों के अनुसार व्यवहार नहीं करेंगे तो ईश्वर की चुनी हुई प्रजा कैसे बनेंगे? क्या कभी ताली एक हाथ से बज सकती है? हमारा ध्यान संकरे मार्ग की ओर नहीं बल्कि चौड़े मार्ग की ओर है क्योंकि सँकरे मार्ग पर चलना कठिन और चुनौतीपूर्ण है।
चूंकि बप्तिस्मा के द्वारा हम ईश्वर की चुनी हुई प्रजा हैं, और मुक्ति के बारे में निश्चिन्त हो जाते हैं और कभी-कभी ये गर्व हमारे लिए घमण्ड बन जाता है और मुक्ति से वंचित होने का कारण भी बन सकता है। हम ख्रीस्तीय हैं, बचपन से ही प्रभु के बारे में बहुत कुछ जानते हैं, प्रभु येसु कौन हैं, उनका जन्म कहाँ हुआ, उन्होंने क्या-क्या चमत्कार किये, और उनकी मृत्यु और पुनुरुत्थान कैसे हुआ इत्यादि। लेकिन क्या ईश्वर के साथ हमारा व्यक्तिगत सम्बन्ध है? क्या हम प्रभु येसु से व्यक्तिगत रूप से जुड़े हैं? कभी-कभी हम सोचते हैं कि हम तो ख्रीस्तीय हैं, बस इतना ही काफी है, इसी से हम स्वर्ग में प्रवेश पा लेंगे। अगर एक बच्चे के माता-पिता शिक्षक हैं, तो इसका मतलब ये नहीं कि वह बच्चा बिना मेहनत किये ही होशियार हो जायेगा। उसे अगर अपने माता-पिता का नाम रोशन करना है और होशियार (बुद्धिमान) बनना है तो इसके लिए उसे मेहनत करनी होगी। उसी तरह यदि हम स्वर्गीय पिता की संताने हैं, तो उसके योग्य बनने के लिए हमें मेहनत करनी पड़ेगी, “पूरा-पूरा प्रयत्न” करना पड़ेगा। पिता ईश्वर की योग्य संतानें बनने के लिए हमें उनकी आज्ञाओं का पालन करना पड़ेगा, ईश्वरीय विधान की शर्तों को पूरा करना पड़ेगा। ईश्वर की राह कठिन है, लेकिन जो लगन के साथ इस पर डटे रहते हैं, वही ईश्वर को जान लेते हैं, और ईश्वर उन्हें पहचान लेते हैं।
✍ -फादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)