2) साऊल इस्राएल के तीन हज़ार चुने हुए योद्धाओं को ले कर ज़ीफ़ के उजाड़खण्ड की ओर चल दिया, जिससे वह ज़ीफ़ के उजाड़खण्ड में दाऊद का पता लगाये।
7) दाऊद और अबीशय रात को उन लोगों के पास पहुँचे। उन्होंने पड़ाव में साऊल को सोया हुआ पाया। उसका भाला उसके सिरहाने जमीन में गड़ा हुआ था। अबनेर और दूसरे योद्धा उसके चारों ओर लेटे हुए थे।
8) तब अबीशय ने दाऊद से कहा, ‘‘ईश्वर ने आज आपके शत्रु को आपके हाथ दे दिया है। मुझे करने दीजिए- मैं उसे उसके अपने भाले के एक ही बार से ज़मीन में जकड दूँगा। मुझे दूसरी बार वार करने की ज़रूरत नहीं पडे़गी।’’
9) दाऊद ने अबीशय को यह उत्तर दिया, ‘‘उसे मत मारो। कौन प्रभु के अभिषिक्त को मार कर दण्ड से बच सकता है?’’
12) दाऊद ने वह भाला और साऊल के सिरहाने के पास रखी हुई पानी की सुराही ले ली और वे चले गये। न किसी ने यह सब देखा, न किसी को इसका पता चला और न कोई जगा। वे सब-के-सब सोये हुए थे; क्योंकि प्रभु की ओर से भेजी हुई गहरी नींद उन पर छायी हुई थी।
13) दाऊद घाट पार कर दूर की पहाड़ी पर खड़ा हो गया- दोनों के बीच बड़ा अन्तर था।
22) दाऊद ने उत्तर दिया, ‘‘यह राजा का भाला है। नवयुवकों में से कोई आ कर इसे ले जाये।
23 (23-24) प्रभु हर एक को उसकी धार्मिकता तथा ईमानदारी का फल देगा। आज प्रभु ने आप को मेरे हाथ दे दिया था, किन्तु मैंने प्रभु के अभिषिक्त पर हाथ उठाना नहीं चाहा; क्योंकि आज आपका जीवन मेरी दृष्टि में मूल्यवान् था। इसलिए मेरा जीवन भी प्रभु की दृष्टि में मूल्यवान हो और वह मुझे सब संकटों से बचाता रहे।"
45) धर्मग्रन्थ में लिखा है कि प्रथम मनुष्य आदम जीवन्त प्राणी बन गया और अन्तिम आदम जीवन्तदायक आत्मा।
46) जो पहला है, वह आध्यात्मिक नहीं, बल्कि प्राकृत है। इसके बाद ही आध्यात्मिक आता है।
47) पहला मनुष्य मिट्टी का बना है और पृथ्वी का है, दूसरा स्वर्ग का है।
48) मिट्टी का बना मनुष्य जैसा था, वैसे ही मिट्टी के बने मनुष्य हैं और स्वर्ग का मनुष्य जैसा है, वैसे ही सभी स्वर्गी होंगे;
49) जिस तरह हमने मिट्टी के बने मनुष्य का रूप धारण किया है, उसी तरह हम स्वर्ग के मनुष्य का भी रूप धारण करेंगे।
27) ’’मैं तुम लोगों से, जो मेरी बात सुनते हो, कहता हूँ-अपने शत्रुओं से प्रेम करो। जो तुम से बैर करते हैं, उनकी भलाई करो।
28) जो तुम्हें शाप देते है, उन को आशीर्वाद दो। जो तुम्हारे साथ दुव्र्यवहार करते हैं, उनके लिए प्रार्थना करो।
29) जो तुम्हारे एक गाल पर थप्पड़ मारता है, दूसरा भी उसके सामने कर दो। जो तुम्हारी चादर छीनता है, उसे अपना कुरता भी ले लेने दो।
30) जो तुम से माँगता है, उसे दे दो और जो तुम से तुम्हारा अपना छीनता है, उसे वापस मत माँगो।
31) दूसरों से अपने प्रति जैसा व्यवहार चाहते हो, तुम भी उनके प्रति वैसा ही किया करो।
32) यदि तुम उन्हीं को प्यार करते हो, जो तुम्हें प्यार करते हैं, तो इस में तुम्हारा पुण्य क्या है? पापी भी अपने प्रेम करने वालों से प्रेम करते हैं।
33) यदि तुम उन्हीं की भलाई करते हो, जो तुम्हारी भलाई करते हैं, तो इस में तुम्हारा पुण्य क्या है? पापी भी ऐसा करते हैं।
34) यदि तुम उन्हीं को उधार देते हो, जिन से वापस पाने की आशा करते हो, तो इस में तुम्हारा पुण्य क्या है? पूरा-पूरा वापस पाने की आशा में पापी भी पापियों को उधार देते हैं।
35) परन्तु अपने शत्रुओं से प्रेम करो, उनकी भलाई करो और वापस पाने की आशा न रख कर उधार दो। तभी तुम्हारा पुरस्कार महान् होगा और तुम सर्वोच्च प्रभु के पुत्र बन जाओगे, क्योंकि वह भी कृतघ्नों और दुष्टों पर दया करता है।
36) ’’अपने स्वर्गिक पिता-जैसे दयालु बनो। दोष न लगाओ और तुम पर भी दोष नहीं लगाया जायेगा।
37) किसी के विरुद्ध निर्णय न दो और तुम्हारे विरुद्ध भी निर्णय नहीं दिया जायेगा। क्षमा करो और तुम्हें भी क्षमा मिल जायेगी।
38) दो और तुम्हें भी दिया जायेगा। दबा-दबा कर, हिला-हिला कर भरी हुई, ऊपर उठी हुई, पूरी-की-पूरी नाप तुम्हारी गोद में डाली जायेगी; क्योंकि जिस नाप से तुम नापते हो, उसी से तुम्हारे लिए भी नापा जायेगा।’’
हर इन्सान खुद का मित्र है या शत्रु। अक्सर देखा जाता है कि हमारे विरोधी या शत्रु हमारे दिमाग और मन में ज्यादा समय निवास करते हैं। प्रेम सब कुछ प्रेमपूर्ण बनाता। घृणा सब कुछ घृणित बनाती हैं।
समूएल के पहले ग्रंथ में राजा दाऊद और राजा साऊल की कहानी काफी रोचक है। दाऊद की बालक के सदृश्य प्रगति, असर और प्रभाव और दाऊद के प्रति साऊल की जलन को हम जानते हैं।
राजा साऊल दाऊद का सर्वनाश करना चाहता था और पीछा करता था - एक शत्रु और दुश्मन के तौर पर। दाऊद के हाथ में फंस जाने पर भी उसने साऊल की हत्या नहीं की। क्योंकि वह ईश्वर के द्वारा अभिषिक्त का आदर करता था। यह सच है कि इस्राएलियों की पराम्परा में राजा ईश्वर का प्रतिनिधित्व करता था। इसलिए राजा का तिरस्कार करना अर्थात ईश्वर का तिरस्कार करना था और दाऊद की यह बड़ी उदार, निस्वार्थ सोच, मनोभाव साऊल के जीवन में परिवर्तन लाता है, न सिर्फ परिवर्तन लाता है बल्कि साऊल के नजर में दाऊद आर्शीवाद का पात्र बनता है।
जान लेना पाप है।
ईश्वर की नियुक्ति पर विरोध नहीं करना चाहिये।
दयालुता अर्थात बडे दिल वाला होना है।
प्रेम और क्षमा इन्सान को बदल देती है। प्रेम से सब कुछ पर विजय प्राप्त की जा सकती है।
येसु ख्रीस्त ने एक बहुत ही क्रांतिकारी शिक्षा पेश की और उनकी यह क्रांतिकारी शिक्षा प्रभावशाली इसलिए है कि बहुतों ने उस शिक्षा को अपने जीवन में लागू किया। यह दुनिया की आम सोच से बिल्कुल अलग या हट के है। दुनिया की रीति है कि जो हमें प्यार करते है उन्हीं से हम प्यार करते हैं और जो हमसे बैर रखते उनसे बैर। लेकिन इसके ठीक विपरीत वे कहते हैं अपने शत्रु से प्रेम करो, उनकी शुभ चिंता रखो और उनके लिए प्रार्थना भी करो। हम बदले की भावना या गलती के लिए दण्ड देना सामाजिक दृष्टि से न्याय समझते हैं। लेकिन वे कहते है कि कोई तुम्हें एक गाल पर थापड़ मारे तो दूसरा गाल भी दिखा दो। हमें यह सब इसलिए करना है कि हम उस स्वर्गिक पिता की संतान हैं जो अत्यंत प्रेमी, दयालु, क्षमाशील हैं और यह उचित है कि उनकी संतान, जो येसु में विश्वास करती है उनके सदृश्य बने। ख्रीस्तीयों के लिए येसु मसीह उच्च कोटि का मापदण्ड/जीने का standard प्रस्तुत करते हैं। और यह दुनिया को बदल देता है| जैसे उदाहरण के लिए चोट के बदले प्रतिक्रियात्मक ढंग ये बदला ले तो यह cycle क्रिया चलती ही रहेगी। गैर ख्रीस्तीय और ख्रीस्तीय में फिर क्या फर्क है? इसलिए येसु कहते हैं कि हमें नमक जैसे बन जाना चाहिए, दीपक जैसे बन जाना है ताकि सब कुछ नया हो जाएगा। एक प्रकार से प्रतिक्रिया न करके, दूसरे तरीके से हम हमारे शत्रु पर विजय पाते हैं और उनमें परिवर्तन या बदलाव लाते हैं।
येसु मसीह स्वर्गराज्य का निर्माण करने आये और उस राज्य के नियम, संहिता, सिध्दांत बिल्कुल सर्वोपरि गुणवत्ता quality के हो। ख्रीस्तीय प्रेम इसी में प्रदर्शित होता है और दिखाई देता है अपनी ऑखों के सामने ही स्वयं येसु ने अपने शत्रुओं को मरते समय क्षमा किया। “प्रभु इन्हें क्षमा कर क्योंकि ये नहीं जानते कि वे क्या कर रहे हैं”। यदि हर कोई बदला ले तो इस संसार में सब अन्धे, लगड़े, लूले ही मिलेगें।
दूसरे दृष्टिकोण से यह भी बोला जा सकता है कि पड़ोसी-प्रेम का सिंध्दात् यह है कि मेरे प्रेम से, दूसरों की भलाई में कोई भी वंचित न रहें। ईश्वर की शिक्षा का सांराश यही है कि हम पिता के सदृश्य दयालु बने अर्थात् ईश्वर प्रेम में बढ़े, साथ ही साथ येसु के सदृश्य पड़ोसी प्रेम में भी बढ़ते जाएँ अर्थात यह काफी नहीं कि सिर्फ मैं चिंता ही करूँ कि कैसे स्वर्ग पहुँच जाऊँ किन्तु यह भी आवश्यक है कि मैं अकेले नहीं अपने पड़ोसी को भी स्वर्गराज्य का सदृश्य बनाऊँ, साथ ले चलुँ।
क्षमाशीलता ही ख्रीस्तीय धर्म का सारांश है।
✍ -फादर पयस लकड़ा एस.वी.डी