2) पुरोहित एज्ऱा सभा में संहिता का ग्रन्थ ले आया। सभा में पुरुष, स्त्रियाँ और समझ सकने वाले बालक उपस्थित थे। यह सातवें मास का पहला दिन था।
3) उसने सबेरे से ले कर दोपहर तक जलद्वार के सामने के चैक में स्त्री-पुरुषों और समझ सकने वाले बालकों को ग्रन्थ पढ़ कर सुनाया। सब लोग संहिता का ग्रन्थ ध्यान से सुनते रहे।
4) शास्त्री एज़ा विशेष रूप से तैयार किये हुए लकड़ी के मंच पर खड़ा था। उसकी दाहिनी और मत्तित्या, शेमा, अनाया, ऊरीया, हिलकीया और मासेया थे और उसकी बायीं ओर पदाया, मीशाएल, मलकीया, हाशुम, हशबद्दाना, ज़कर्या और मशुल्लाम थे।
5) एज्ऱा लोगों से ऊँची जगह पर था। उसने सबों के देखने में ग्रन्थ खोल दिया। जब ग्रन्थ खोला गया, तो सारी जनता उठ खड़ी हुई।
6) तब एज्ऱा ने प्रभु, महान् ईश्वर का स्तुतिगान किया और सब लोगों ने हाथ उठा कर उत्तर दिया, "आमेन, आमेन!" इसके बाद वे झुक गये और मुँह के बल गिर कर उन्होंने प्रभु को दण्डवत् किया।
8) उन्होंने ईश्वर की संहिता का ग्रन्थ पढ़ कर सुनाया, इसका अनुवाद किया और इसका अर्थ समझाया, जिससे लोग पाठ समझ सकें।
9) इसके बाद राज्यपाल, नहेम्या, याजक तथा शास्त्री एज़्रा और लोगों को समझाने वाले लेवियों ने सारी जनता से कहा, "यह दिन तुम्हारे प्रभु-ईश्वर के लिए पवित्र है। उदास हो कर मत रोओ"; क्योंकि सब लोग संहिता का पाठ सुन कर रोते थे।
10) तब एज्ऱा ने उन से कहा, "जा कर रसदार मांस खाओ, मीठी अंगूरी पी लो और जिसके लिए कुछ नहीं बन सका, उसके पास एक हिस्सा भेज दो; क्योंकि यह दिन हमारे प्रभु के लिए पवित्र है। उदास मत हो। प्रभु के आनन्द में तुम्हारा बल है।"
12) मनुष्य का शरीर एक है, यद्यपि उसके बहुत-से अंग होते हैं और सभी अंग, अनेक होते हुए भी, एक ही शरीर बन जाते हैं। मसीह के विषय में भी यही बात है।
13) हम यहूदी हों या यूनानी, दास हों या स्वतन्त्र, हम सब-के-सब एक ही आत्मा का बपतिस्मा ग्रहण कर एक ही शरीर बन गये हैं। हम सबों को एक ही आत्मा का पान कराया गया है।
14) शरीर में भी तो एक नहीं, बल्कि बहुत-से अंग हैं।
15) यदि पैर कहे, "मैं हाथ नहीं हूँ, इसलिए शरीर का नहीं हूँ, तो क्या वह इस कारण शरीर का अंग नहीं?
16) यदि कान कहे, ’मैं आँख नहीं हूँ, इसलिए शरीर का नहीं हूँ’, तो क्या वह इस कारण शरीर का अंग नहीं?
17) यदि सारा शरीर आँख ही होता, तो वह कैसे सुन सकता? यदि सारा शरीर कान ही होता, तो वह कैसे सूँघ सकता?
18) वास्तव में ईश्वर ने अपनी इच्छानुसर शरीर में एक-एक अंग को अपनी-अपनी जगह रचा।
19) यदि सब-के-सब एक ही अंग होते, तो शरीर कहाँ होता?
20) वास्तव में बहुत-से अंग होने पर भी शरीर एक ही होता है।
21) आँख हाथ से नहीं कह सकती, ’मुझे तुम्हारी ज़रूरत नहीं’, और सिर पैरों से नहीं कह सकता, ’मुझे तुम्हारी ज़रूरत नहीं’।
22) उल्टे, शरीर के जो अंग सब से दुर्बल समझे जाते हैं, वे अधिक आवश्यक हैं।
23) शरीर के जिन अंगों को हम कम आदणीय समझते है।, उनका अधिक आदर करते हैं और अपने अशोभनीय अंगों की लज्जा का अधिक ध्यान रखते हैं।
24) हमारे शोभनीय अंगों को इसकी जरूरत नहीं होती। तो, जो अंग कम आदरणीय हैं, ईश्वर ने उन्हें अधिक आदर दिलाते हुए शरीर का संगठन किया है।
25) यह इसलिए हुआ कि शरीर में फूट उत्पन्न न हो, बल्कि उसके सभी अंग एक दूसरे का ध्यान रखें।
26) यदि एक अंग को पीड़ा होती है, तो उसके साथ सभी अंगों को पीड़ा होती हैं और यदि एक अंग का सम्मान किया जाता है, तो उसके साथ सभी अंग आनन्द मनाते हैं।
27) इसी तरह आप सब मिल कर मसीह का शरीर हैं और आप में से प्रत्येक उसका एक अंग है।
28) ईश्वर ने कलीसिया में भिन्न-भिन्न लोगों को नियुक्त किया है- पहले प्रेरितों को, दूसरे भविष्यवक्ताओं को, तीसरे शिक्षकों और तब चमत्कार दिखाने वालों को। इसके बाद स्वस्थ करने वालों, परोपकारकों, प्रशासकों, अनेक भाषाएँ बोलने वालों को।
29) क्या सब प्रेरित हैं? सब भविष्यवक्ता हैं? सब शिक्षक हैं? सब चमत्कार दिखने वाले हैं? सब भाषाएँ बोलने वाले हैं? सब व्याख्या करने वाले हैं?
30) सब स्वस्थ करने वाले हैं? सब भाषाएँ बोलने वाले हैं? सब व्याख्या करने वाले हैं?
1:1) जो प्रारम्भ से प्रत्यक्षदर्शी और सुसमाचार के सेवक थे, उन से हमें जो परम्परा मिली, उसके आधार पर
2) बहुतों ने हमारे बीच हुई घटनाओं का वर्णन करने का प्रयास किया है।
3) मैंने भी प्रारम्भ से सब बातों का सावधानी से अनुसन्धान किया है; इसलिए श्रीमान् थेओफि़लुस, मुझे आपके लिए उनका क्रमबद्ध विवरण लिखना उचित जान पड़ा,
4) जिससे आप यह जान लें कि जो शिक्षा आप को मिली है, वह सत्य है।
14) आत्मा के सामर्थ्य से सम्पन्न हो कर ईसा गलीलिया लौटे और उनकी ख्याति सारे प्रदेश में फैल गयी।
15) वह उनके सभागृहों में शिक्षा दिया करते और सब उनकी प्रशंसा करते थे।
16) ईसा नाज़रेत आये, जहाँ उनका पालन-पोषण हुआ था। विश्राम के दिन वह अपनी आदत के अनुसार सभागृह गये। वह पढ़ने के लिए उठ खड़े हुए
17) और उन्हें नबी इसायस की पुस्तक़ दी गयी। पुस्तक खोल कर ईसा ने वह स्थान निकाला, जहाँ लिखा हैः
18) प्रभु का आत्मा मुझ पर छाया रहता है, क्योंकि उसने मेरा अभिशेक किया है। उसने मुझे भेजा है, जिससे मैं दरिद्रों को सुसमाचार सुनाऊँ, बन्दियों को मुक्ति का और अन्धों को दृष्टिदान का सन्देश दूँ, दलितों को स्वतन्त्र करूँ
19) और प्रभु के अनुग्रह का वर्ष घोषित करूँ।
20) ईसा ने पुस्तक बन्द कर दी और वह उसे सेवक को दे कर बैठ गये। सभागृह के सब लोगों की आँखें उन पर टिकी हुई थीं।
21) तब वह उन से कहने लगे, "धर्मग्रन्थ का यह कथन आज तुम लोगों के सामने पूरा हो गया है"।
आज के सुसमाचार में संत लूकस बडे़ ही सुन्दर शब्दों में प्रभु येसु के द्वारा अपने गॉव के सभागृह में किये गये कार्यों को हमें बताते हुये कहते हैं - वे खड़े होते हैं, पवित्र ग्रन्थ को अपने हाथों में लेते हैं और पवित्र ग्रन्थ में नबी इसायाह से एक पाठ पढ़ते हैं। इसके तत्पश्चात वे किताब को बन्द करते हैं और अपने स्थान पर बैठ जाते हैं। हर एक ख्रीस्तीय को ध्यानपूर्वक इन शब्दों को सुनना चाहिये जिसे प्रभु येसु ने हम सबों के लिये चुना है। इसी कार्य को आगे बढ़ाने के लिये ईश्वर ने संत लूकस को चुना। संत लूकस कभी भी किसी धर्म को सही ढ़ंग से चलाने की बात नहीं करते और न ही अधिक योग्य रीति से पूजा करने की बात करते हैं, परन्तु वे स्वतत्रता को बढ़ावा देकर, विश्वास, ज्योति, गरीबों के लिये आर्शीवाद का कारण बनने की बात करते हैं। ये ही वे शब्द हैं जिन्हें प्रभु येसु पढ़ते हैं, ‘प्रभु का आत्मा मुझ पर छाया रहता है,...उसने मुझे भेजा है, जिससे मैं दरिद्रों को सुसमाचार सुनाऊँ।’’
येसु के मिशन को आज के सुसमाचार में एक महान विचार के रूप में व्यक्त किया गया है। यर्दन नदी में उन पर जो पवित्र आत्मा उतरे थे, वे जीवन देने के तरीके को सिखाने में अग्रसर थे। हमें बताया गया है कि उन्होंने विश्राम के दिन सभागृह में प्रवेश किया, जैसा कि वे आम तौर पर किया करते थे। येसु का ऐसा करना एक नये युग के आरंभ होने की घोषणा थी। नबी इसायस ने स्पष्ट रूप से भविष्यवाणी की थी कि जब मसीह आयेंगे तो क्या होगा।
येसु मसीह की शिक्षाओं को जीना और उनकी घोषणा करना आसान नहीं है। जो लोग सबसे अधिक पीड़ित होते हैं उनसे दूर रह कर हम किस सुसमाचार कर रहे हैं, किस येसु का हम अनुसरण कर रहे हैं? किस आध्यात्मिकता को बढ़ावा दे रहे हैं? अगर स्पश्ट शब्दों में कहा जाये तो आज की कलीसियाई समुदायों के बारे में हमारी क्या धारणा है? क्या हम उसी दिशा में चल रहे हैं जिसे येसु ने प्रकट किया था?
येसु ने उस अदभुत वाक्य को पढ़ा, फिर स्क्रोल को आगे बढ़ाया और घोषणा की कि आज ये शब्द मेरे बोलते हुये सच हो रहे हैं। इस बात को लोग स्वीकार नहीं कर पाये।
येसु के मिशन को आज के सुसमाचार में बहुत बल के साथ व्यक्त किया गया है। कुछ बुनियादी विद्रोह और गर्व अन्धापन और उत्पीड़न की ओर ले जाता है। ऐसा कुछ नहीं है जिसे हम बाहर से कुछ मदद के बिना हल कर सकते हैं। लेकिन हम से जुड़ने के लिये, हमारे नेतृत्व करने के लिये, हमें बचाने के लिये येसु हमारे साथ हैं। यह वह शक्तिशाली खुशखबरी है जिसकी घोषणा उन्होंने नाजरेत के सभागृह में की थी। प्रभु का आत्मा मुझ पर छाया रहता है, क्योंकि उन्होंने गरीबों के लिये मेरा अभिशेक किया है।
येसु का जीवन ज़रूरतमन्दों के लिए समर्पित था और वे चाहते हैं कि हम भी जो उनके चेले हैं, ज़रूरतमन्दों की सेवा करें। वास्तव में येसु के शिष्य येसु के मिशन-कार्य को ही आगे बढ़ाते हैं। हम भी उनके मिशन-कार्य को जारी रखते हैं। हम भी दरिद्रों को सुसमाचार सुनाने, बन्दियों को मुक्ति का और अन्धों को दृष्टिदान का सन्देश देने, दलितों को स्वतन्त्र करने के लिए बुलाये गये हैं। हमारी प्रतिक्रिया क्या है?
✍ -फादर डोमिनिक वेगस एस.वी.डी