1) प्रारंभ में ईश्वर ने स्वर्ग और पृथ्वी की सृष्टि की।
2) पृथ्वी उजाड़ और सुनसान थी। अर्थाह गर्त पर अन्धकार छाया हुआ था और ईश्वर का आत्मा सागर पर विचरता था।
3) ईश्वर ने कहा, ''प्रकाश हो जाये'', और प्रकाश हो गया।
4) ईश्वर को प्रकाश अच्छा लगा और उसने प्रकाश और अन्धकार को अलग कर दिया।
5) ईश्वर ने प्रकाश का नाम 'दिन' रखा और अन्धकार का नाम 'रात'। सन्ध्या हुई और फिर भोर हुआ यह पहला दिन था।
6) ईश्वर ने कहा, ''पानी के बीच एक छत बन जाये, जो पानी को पानी से अलग कर दे'', और ऐसा ही हुआ।
7) ईश्वर ने एक छत बनायी और नीचे का पानी और ऊपर का पानी अलग कर दिया।
8) ईश्वर ने छत का नाम 'आकाश' रखा। सन्ध्या हुई और फिर भोर हुआ यह दूसरा दिन था।
9) ईश्वर ने कहा, ''आकाश के नीचे का पानी एक ही जगह इक्कट्ठा हो जाये और थल दिखाई पड़े'', और ऐसा ही हुआ।
10) ईश्वर ने थल का नाम 'पृथ्वी' रखा और जलसमूह का नाम 'समुद्र'। और वह ईश्वर को अच्छा लगा।
11) ईश्वर ने कहा ''पृथ्वी पर हरियाली लहलहाये, बीजदार पौधे और फलदार पेड़ उत्पन्न हो जायें, जो अपनीअपनी जाति के अनुसार बीजदार फल लाये'', और ऐसा ही हुआ।
12) पृथ्वी पर हरियाली उगने लगी : अपनीअपनी जाति के अनुसार बीज पैदा करने वाले पौधे और बीजदार फल देने वाले पेड़। और यह ईश्वर को अच्छा लगाा।
13) सन्ध्या हुई और फिर भोर हुआ यह तीसरा दिन था।
14) ईश्वर ने कहा, ''दिन और रात को अलग कर देने के लिए आकाश में नक्षत्र हों। उनके सहारे पर्व निर्धारित किये जायें और दिनों तथा वर्षों की गिनती हो।
15) वे पृथ्वी को प्रकाश देने के लिए आकाश में जगमगाते रहें'' और ऐसा ही हुआ।
16) ईश्वर ने दो प्रधान नक्षत्र बनाये, दिन के लिए एक बड़ा और रात के लिए एक छोटा; साथसाथ तारे भी।
17) ईश्वर ने उन को आकाश में रख दिया, जिससे वे पृथ्वी को प्रकाश दें,
18) दिन और रात का नियंत्रण करें और प्रकाश तथा अन्धकार को अलग कर दें और यह ईश्वर को अच्छा लगा।
19) सन्ध्या हुई और फिर भोर हुआ यह चौथा दिन था।
20) ईश्वर ने कहा, ''पानी जीवजन्तुओं से भर जाये और आकाश के नीचे पृथ्वी के पक्षी उड़ने लगें''।
21) ईश्वर ने मकर और नाना प्रकार के जीवजन्तुओं की सृष्टि की, जो पानी में भरे हुए हैं और उसने नाना प्रकार के पक्षियों की भी सृष्टि की, और यह ईश्वर को अच्छा लगा।
22) ईश्वर ने उन्हें यह आशीर्वाद दिया, ''फलोफूलो। समुद्र के पानी में भर जाओ और पृथ्वी पर पक्षियों की संख्या बढ़ती जाये''।
23) सन्ध्या हुई और फिर भोर हुआ यह पाँचवा दिन था।
24) ईश्वर ने कहा, ''पृथ्वी नाना प्रकार के घरेलू और जमीन पर रेंगने वाले जीवजन्तुओं को पैदा करें'', और ऐसा ही हुआ।
25) ईश्वर ने नाना प्रकार के जंगली, घरेलू और जमीन पर रेंगने वाले जीवजन्तुओं को बनाया और यह ईश्वर को अच्छा लगा।
26) ईश्वर ने कहा, ''हम मनुष्य को अपना प्रतिरूप बनायें, यह हमारे सदृश हो। वह समुद्र की मछलियों, आकाश के पक्षियों घरेलू और जंगली जानवरों और जमीन पर रेंगने वाले सब जीवजन्तुओं पर शासन करें।''
27) ईश्वर ने मनुष्य को अपना प्रतिरूप बनाया; उसने उसे ईश्वर का प्रतिरूप बनाया; उसने नर और नारी के रूप में उनकी सृष्टि की।
28) ईश्वर ने यह कह कर उन्हें आशीर्वाद दिया, ''फलोफूलो। पृथ्वी पर फैल जाओ और उसे अपने अधीन कर लो। समुद्र की मछलियों, आकाश के पक्षियों और पृथ्वी पर विचरने वाले सब जीवजन्तुओं पर शासन करो।''
29) ईश्वर ने कहा, मैं तुम को पृथ्वी भर के बीज पैदा करने वाले सब पौधे और बीजदार फल देने वाले सब पेड़ देता हूँ। वह तुम्हारा भोजन होगा। मैं सब जंगली जानवरों को, आकाश के सब पक्षियों को,
30) पृथ्वी पर विचरने वाले जीवजन्तुओं को उनके भोजन के लिए पौधों की हरियाली देता हूँ'' और ऐसा ही हुआ।
31) ईश्वर ने अपने द्वारा बनाया हुआ सब कुछ देखा और यह उसको अच्छा लगा। सन्ध्या हुई और फिर भोर हुआ यह छठा दिन था।
1) इस प्रकार आकाश तथा पृथ्वी और, जो कुछ उन में है, सब की सृष्टि पूरी हुई।
2) सातवें दिन ईश्वर का किया हुआ कार्य समाप्त हुआ। उसने अपना समस्त कार्य समाप्त कर, सातवें दिन विश्राम किया।
1) ईश्वर ने इब्राहीम की परीक्षा ली। उसने उस से कहा, ''इब्राहीम! इब्राहीम!'' इब्राहीम ने उत्तर दिया, ''प्रस्तुत हूँ।''
2) ईश्वर ने कहा, ''अपने पुत्र को, अपने एकलौते को परमप्रिय इसहाक को साथ ले जा कर मोरिया देश जाओ। वहाँ, जिस पहाड़ पर मैं तुम्हें बताऊँगा, उसे बलि चढ़ा देना।''
3) इब्राहीम बड़े सबेरे उठा। उसने अपने गधे पर जीन बाँध कर दो नौकरों और अपने पुत्र इसहाक को बुला भेजा। उसने होम-बली के लिए लकड़ी तैयार कर ली और उस जगह के लिए प्रस्थान किया, जिसे ईश्वर ने बताया था।
4) तीसरे दिन, इब्राहीम ने आँखें ऊपर उठायीं और उस जगह को दूर से देखा।
5) इब्राहीम ने अपने नौकरों से कहा, ''तुम लोग गधे के साथ यहाँ ठहरो। मैं लड़के के साथ वहाँ जाऊँगा। आराधना करने के बाद हम तुम्हारे पास लौट आयेंगे।
6) इब्राहीम ने होम-बली की लकड़ी अपने पुत्र इसहाक पर लाद दी। उसने स्वयं आग और छुरा हाथ में ले लिया और दोनों साथ-साथ चल दिये।
7) इसहाक ने अपने पिता इब्राहीम से कहा, ''पिताजी!'' उसने उत्तर दिया, ''बेटा! क्या बात है?'' उसने उत्तर दिया, ''देखिए, आग और लकड़ी तो हमारे पास है; किन्तु होम को मेमना कहाँ है?''
8) इब्राहीम ने उत्तर दिया, ''बेटा! ईश्वर होम के मेमने का प्रबन्ध कर देगा'', और वे दोनों साथ-साथ आगे बढ़े।
9) जब वे उस जगह पहुँच गये, जिसे ईश्वर ने बताया था, तो इब्राहीम ने वहाँ एक वेदी बना ली और उस पर लकड़ी सजायी। इसके बाद उसने अपने पुत्र इसहाक को बाँधा और उसे वेदी के ऊपर रख दिया।
10) तब इब्राहीम ने अपने पुत्र को बलि चढ़ाने के लिए हाथ बढ़ा कर छुरा उठा लिया।
11) किन्तु प्रभु का दूत स्वर्ग से उसे पुकार कर बोला, ''इब्राहीम! ''इब्राहीम! उसने उत्तर दिया, ''प्रस्तुत हूँ।''
12) दूत ने कहा, ''बालक पर हाथ नहीं उठाना; उसे कोई हानि नहीं पहुँचाना। अब मैं जान गया कि तुम ईश्वर पर श्रद्धा रखते हो - तुमने मुझे अपने पुत्र, अपने एकलौते पुत्र को भी देने से इनकार नहीं किया।
13) इब्राहीम ने आँखें ऊपर उठायीं और सींगों से झाड़ी में फँसे हुए एक मेढ़े को देखा। इब्राहीम ने जाकर मेढ़े को पकड़ लिया और उसे अपने पुत्र के बदले बलि चढ़ा दिया।
14) इब्राहीम ने उस जगह का नाम ''प्रभु का प्रबन्ध'' रखा; इसलिए लोग आजकल कहते हैं, ''प्रभु पर्वत पर प्रबन्ध करता है।''
15) ईश्वर का दूत इब्राहीम को दूसरी बार पुकार कर
16) बोला, ''यह प्रभु की वाणी है। मैं शपथ खा कर कहता हूँ - तुमने यह काम किया : तुमने मुझे अपने पुत्र, अपने एकलौते पुत्र को भी देने से इनकार नहीं किया;
17) इसलिए मैं तुम पर आशिष बरसाता रहूँगा। मैं आकाश के तारों और समुद्र के बालू की तरह तुम्हारे वंशजों को असंख्य बना दूँगा और वे अपने शत्रुओं के नगरों पर अधिकार कर लेंगे।
18) तुमने मेरी आज्ञा का पालन किया है; इसलिए तुम्हारे वंश के द्वारा पृथ्वी के सभी राष्ट्रों का कल्याण होगा।''
15) प्रभु ने मूसा से कहा, ''तुम मेरी दुहाई क्यों दे रहे हो? इस्राएलियों को आगे बढ़ने का आदेश दो।
16) तुम अपना डण्डा उठा कर अपना हाथ सागर के ऊपर बढ़ाओ और उसे दो भागों में बाँट दो, जिससे इस्राएली सूखे पाँव समुद्र की तह पर चल सकें।
17) मैं मिस्रियों का हृदय कठोर बनाऊँगा और वे इस्राएलियों का पीछा करेंगे। तब मैं फिराउन, उसकी सेना, उसके रथ और घुड़सवार, सब को हरा कर अपना सामर्थ्य प्रदर्शित करूँगा
18) और जब मैं फिराउन, उसकी सेना, उसके रथ और उसके घुड़सवार सब को हरा कर अपना सामर्थ्य प्रदर्शित कर चुका होऊँगा, तब मिस्री जान जायेंगे कि मैं प्रभु हूँ।''
19) प्रभु का दूत, जो इस्राएली सेना के आगे-आगे चल रहा था, अपना स्थान बदल कर सेना के पीछे-पीछे चलने लगा। बादल का खम्भा, जो सामने था, लोगों के पीछे आ गया
20) और मिस्रियों तथा इस्राएलियों, दोनों सेनाओं के बीच खड़ा रहा। बादल एक तरफ अँधेरा था और दूसरी तरफ रात में प्रकाश दे रहा था। इसलिए उस रात को दोनों सेनाएँ एक दूसरे के पास नहीं आ सकी।
21) तब मूसा ने सागर के ऊपर हाथ बढ़ाया और प्रभु ने रात भर पूर्व की ओर जोरों की हवा भेज कर सागर को पीछे हटा दिया। सागर दो भागों में बँट कर बीच में सूख गया।
22) इस्राएली सागर के बीच में सूखी भूमि पर आगे बढ़ने लगे। पानी उनके दायें और बायें दीवार बन कर ठहर गया। मिस्री उसका पीछा करते थे।
23) फिराउन के सब घोड़े, उसके रथ और उसके घुड़सवार, सागर की तह पर उनके पीछे चलते थे।
24) रात के पिछले पहर, प्रभु ने आग और बादल के खम्भे में से मिस्रियों की सेना की ओर देखा और उसे तितर-बितर कर दिया।
25) रथों के पहिये निकल कर अलग हो जाते थे और वे कठिनाई से आगे बढ़ पाते थे। तब मिस्री कहने लगे, ''प्रभु उनकी ओर से मिस्रियों के विरुद्ध लड़ता है।''
26) उस समय प्रभु ने मूसा से कहा, ''सागर के ऊपर अपना हाथ बढ़ाओं, जिससे पानी लौट कर मिस्रियों, उनके रथों और उनके घुड़सवारों पर लहराये।''
27) मूसा ने सागर के ऊपर हाथ बढ़ा दिया और भोर होते ही सागर फिर भर गया। मिस्री भागते हुए पानी में जा घुसे और प्रभु ने उन्हें सागर के बीच में ढकेल दिया।
28) समुद्र की तह पर इस्राएलियों का पीछा करने वाली फिराउन की सारी सेना के रथ और घुड़सवार लौटने वाले पानी में डूब गये। उन में एक भी नहीं बचा।
29) इस्राएली तो समुद्र की सूखी तह पार कर गये। पानी उनके दायें और बायें दीवार बन कर ठहर गया था।
30) उस दिन प्रभु ने इस्राएलियों को मिस्रियों के हाथ से छुड़ा दिया। इस्राएलियों ने समुद्र के किनारे पर पड़े हुए मरे मिस्रियों को देखा।
31) इस्राएली मिस्रियों के विरुद्ध किया हुआ प्रभु का यह महान् कार्य देख कर प्रभु से डरने लगे। उन्होंने प्रभु में और उसके सेवक मूसा में विश्वास किया।
15: 1) तब मूसा और इस्राएली प्रभु के आदर में यह भजन गाने लगे : मैं प्रभु का गुणगान करना चाहता हूँ। उसने अपनी महिमा प्रकट की है उसने घोड़े के साथ घुड़सवार को समुद्र में फेंक दिया है।
5) “तेरा सृष्टिकर्ता ही तेरा पति है। उसका नाम है- विश्वमण्डल का प्रभु। इस्राएल का परमपावन ईश्वर तेरा उद्धार करता है। वह समस्त पृथ्वी का ईश्वर कहलाता है।
6) “परित्यक्ता स्त्री की तरह दुःख की मारी! प्रभु तुझे वापस बुलाता है। क्या कोई अपनी तरुणाई की पत्नी को भुला सकता है?“ यह तेरे ईश्वर का कथन है।
7) “मैंने थोड़ी ही देर के लिए तुझे छोड़ा था। अब मैं तरस खा कर, तुझे अपने यहाँ ले जाऊँगा।
8) मैंने क्रेाध के आवेश में क्षण भर तुझ से मुँह फेर लिया था। अब मैं अनन्त प्रेम से तुझ पर दया करता रहूँगा।“ यह तेरे उद्धारकर्ता ईश्वर का कथन है।
9) “नूह के समय मैंने शपथ खा कर कहा था कि प्रलय की बाढ़ फिर पृथ्वी पर नहीं आयेगी। उसी तरह मैं शपथ खा कर कहता हूँ कि मैं फिर तुझ पर क्रोध नहीं करूँगा और फिर तुझे धमकी नहीं दूँगा।
10) “चाहे पहाड़ टल जायें और पहाड़ियाँ डाँवाडोल हो जायें, किन्तु तेरे प्रति मेरा प्रेम नहीं टलेगा और तेरे लिए मेरा शान्ति-विधान नहीं डाँवाडोल होगा।“ यह तुझ पर तरस खाने वाले प्रभु का कथन है।
11) “दुर्भाग्यशालिनी! आँधी और दुःख की मारी! मैं तेरे पत्थर चुन-चुन कर लगवा दूँगा और तेरी नींव नीलमणियों पर डालूँगा।
12) मैं तेरे कंगूरे लालमणियों से, तेरे फाटक स्फटिक से और तेरे परकोटे रत्नों से बनाऊँगा।
13) तेरी प्रजा प्रभु से शिक्षा ग्रहण करेगी और उसकी सुख-शान्ति की सीमा नहीं रहेगी।
14) तेरी नींव न्याय पर डाली जायेगी। तुझे कोई नहीं सतायेगा, तू कभी भयभीत नहीं होगी। आतंक तुझ से कोसों दूर रहेगा।
1) “तुम सब, जो प्यासे हो, पानी के पास चले आओ। यदि तुम्हारे पास रुपया नहीं हो, तो भी आओ। मुफ़्त में अन्न ख़रीद कर खाओ, दाम चुकाये बिना अंगूरी और दूध ख़रीद लो।
2) जो भोजन नहीं है, उसके लिए तुम लोग अपना रुपया क्यों ख़र्च करते हो? जो तृप्ति नहीं दे सकता है, उसके लिए परिश्रम क्यों करते हो? मेरी बात मानो। तब खाने के लिए तुम्हें अच्छी चीज़ें मिलेंगी और तुम लोग पकवान खा कर प्रसन्न रहोगे।
3) कान लगा कर सुनो और मेरे पास आओ। मेरी बात पर ध्यान दो और तुम्हारी आत्मा को जीवन प्राप्त होगा। मैंने दाऊद से दया करते रहने की प्रतिज्ञा की थी। उसके अनुसार मैं तुम लोगों के लिए, एक चिरस्थायी विधान ठहराऊँगा।
4) मैंने राष्ट्रों के साक्य देने के लिए दाऊद को चुना और उसे राष्ट्रों का पथप्रदर्शक तथा अधिपति बना दिया है।
5) “तू उन राष्ट्रों को बुलायेगी, जिन्हें तू नहीं जानती थी और जो तुझे नहीं जानते थे, वे दौड़ते हुए तेरे पास जायेंगे। यह इसलिए होगा कि प्रभु, तेरा ईश्वर, इस्राएल का परमपावन ईश्वर, तुझे महिमान्वित करेगा।
6) “जब तक प्रभु मिल सकता है, तब तक उसके पास चली जा। जब तक वह निकट है, तब तक उसकी दुहाई देती रह।
7) पापी अपना मार्ग छोड़ दे और दुष्ट अपने बुरे विचार त्याग दे। वह प्रभु के पास लौट आये और वह उस पर दया करेगा; क्योंकि हमारा ईश्वर दयासागर है।
8) प्रभु यह कहता है- तुम लोगों के विचार मेरे विचार नहीं हैं और मेरे मार्ग तुम लोगों के मार्ग नहीं हैं।
9) जिस तरह आकश पृथ्वी के ऊपर बहुत ऊँचा है, उसी तरह मेरे मार्ग तुम्हारे मार्गों से और मेरे विचार तुम्हारे विचारों से ऊँचे हैं।
10) जिस तरह पानी और बर्फ़ आकाश से उतर कर भूमि सींचे बिना, उसे उपजाऊ बनाये और हरियाली से ढके बिना वहाँ नहीं लौटते, जिससे भूमि बीज बोने वाले को बीज और खाने वाले को अनाज दे सके,
11) उसी तरह मेरी वाणी मेरे मुख से निकल कर व्यर्थ ही मेरे पास नहीं लौटती। मैं जो चाहता था, वह उसे कर देती है और मेरा उद्देश्य पूरा करने के बाद ही वह मेरे पास लौट आती है।
15) कौन प्रज्ञा के निवासस्थान तक पहुँचा है? किसने उसके खजाने में प्रवेश किया है?
32) सर्वज्ञ ही उसका मार्ग जानता है, उसने अपनी बुद्धि से उसका पता लगाया है। उसने सदा के लिए पृथ्वी की नींव डाली है और उसे जीव-जन्तुओं से भर दिया है।
33) वह प्रकाश भेज देता है और वह फैल जाता है। वह उसे वापस बुलाता है और वह काँपते हुए उसकी आज्ञा मानता है।
34) तारे अपने-अपने स्थान पर आनन्दपूर्वक जगमगाते रहते हैं;
35) जब वह उन्हें बुलाता है, तो वे उत्तर देते, “हम प्रस्तुत हैं“; और वे अपने निर्माता के लिए आनन्द पूर्वक चमकते हैं।
36) वही हमारा ईश्वर है। उसकी बराबरी कोई नहीं कर सकता।
37) उसने ज्ञान के सभी मार्गों का पता लगाया है और उसे अपने सेवक याकूब को, अपने परमप्रिय इस्राएल को बता दिया है।
38) इस पर प्रज्ञा पृथ्वी पर प्रकट हुई और उसने मनुष्यों के बीच निवास किया।
1) प्रज्ञा यह है- ईश्वर की आज्ञाओं का ग्रन्थ, वह संहिता, जो सदा बनी रहेगी। जो उसका पालन करेगा, वह जीता रहेगा; जो उसे छोड़ देगा, वह मर जायेगा।
2) याकूब! लौट कर उसे ग्रहण करो, उसके प्रकाश में महिमा की ओर आगे बढ़ो।
3) न तो दूसरों को अपना गौरव दो और न विदेशियों को अपना विशेष अधिकार।
4) इस्राएल! हम कितने सौभाग्यशाली है! ईश्वर की इच्छा हम पर प्रकट की गयी है।
16) प्रभु की वाणी मुझे यह कहते हुए सुनाई पड़ी,
17) "मानवपुत्र! इस्राएल के लोगों ने, अपनी निजी देश में रहते समय, उसे अपने आचरण और व्यवहार से अशुद्ध कर दिया।
18) उन्होंने देश में रक्त बहा कर और देवमूर्तियों को स्थापित कर उसे अपवित्र कर दिया, इसलिए मैंने उन पर अपना क्रोध प्रदार्शित किया।
19) मैंने उन्हें राष्ट्रों में तितर-बितर कर दिया और वे विदेशों में बिखर गये। मैंने उनके आचरण और व्यवहार के अनुसार उनका न्याय किया है।
20) उन्होंने दूसरे राष्ट्रों में पहुँच कर मेरे पवित्र नाम का अनादर कराया। लोग उनके विषय में कहते थे, ’यह प्रभु की प्रजा है, फिर भी इन्हें अपना देश छोड़ना पड़ा।’
21) परंतु मुझे अपने पवित्र नाम का ध्यान है, जिसका अनादर इस्राएलियों ने देश-विदेश में, जहाँ वे गये थे, कराया है।
22) "इसलिए इस्राएल की प्रजा से कहना- प्रभु-ईश्वर यह कहता हैः इस्राएल की प्रजा! मैं जो करने जा रहा हूँ वह तुम्हारे कारण नहीं करूँगा, बल्कि अपने पवित्र नाम के कारण, जिसका अनादर तुम लोगों ने देश-विदेश में कराया।
23) मैं अपने महान् नाम की पवित्रता प्रमाणित करूँगा, जिस पर देश-विदेश में कलंक लग गया है और जिसका अनादर तुम लोगों ने वहाँ जा कर कराया है। जब मैं तुम लोगों के द्वारा राष्ट्रों के सामने अपने पवित्र नाम की महिमा प्रदर्शित करूँगा, तब वे जान जायेंगे कि मैं ही प्रभु हूँ।
24) "मैं तुम लोगों को राष्ट्रों में से निकाल कर और देश-विदेश से एकत्र कर तुम्हारे अपने देश वापस ले जाऊँगा।
25) मैं तुम लोगों पर पवित्र जल छिडकूँगा और तुम पवित्र हो जाओगे। मैं तुम लोगों को तुम्हारी सारी अपवित्रता से और तुम्हारी सब देवमूर्तियों के दूषण से शुद्ध कर दूँगा।
26) मैं तुम लोगों को एक नया हृदय दूँगा और तुम में एक नया आत्मा रख दूँगा। मैं तुम्हारे शरीर से पत्थर का हृदय निाकल कर तुम लोगों को रक्त-मांस का हृदय प्रदान करूँगा।
27) मैं तुम लोगों में अपना आत्मा रख दूँगा, जिससे तुम मेरी संहिता पर चलोगे और ईमानदारी से मेरी आज्ञाओं का पालन करोग।
28) तुम लोग उस देश में निवास करोगे, जिसे मैंने तुम्हारे पूर्वजों को दिया है। तुम मेरी प्रजा होगे और मैं तुम्हारा ईश्वर होऊँगा।
3) क्या आप लोग यह नहीं जानते कि ईसा मसीह का तो बपतिस्मा हम सबों को मिला है, वह उनकी मृत्यु का बपतिस्मा हैं?
4) हम उनकी मृत्यु का बपतिस्मा ग्रहण कर उनके साथ इसलिए दफनाये गये हैं कि जिस तरह मसीह पिता के सामर्थ्य से मृतकों में से जी उठे हैं, उसी तरह हम भी एक नया जीवन जीयें।
5) यदि हम इस प्रकार उनके साथ मर कर उनके साथ एक हो गये हैं, तो हमें भी उन्हीं की तरह जी उठना चाहिए।
6) हमें कभी नहीं भूलना चाहिए कि हमारा पुराना स्वभाव उन्हीं के साथ क्रूस पर चढ़ाया जा चुका हैं, जिससे पाप का शरीर मर जाये और हम फिर पाप के दास न बने;
7) क्योंकि जो मर चुका है, वह पाप की गुलामी से मुक्त हो गया हैं।
8) हमें विश्वास है कि यदि हम मसीह के साथ मर गये हैं, तो हम उन्ही के जीवन के भी भागी होंगे;
9) क्योंकि हम जानते हैं कि मसीह मृतको में से जी उठने के बाद फिर कभी नहीं मरेंगे। अब मृत्यु का उन पर कोई वश नहीं।
10) वह पाप का हिसाब चुकाने के लिए एक बार मर गये और अब वह ईश्वर के लिए ही जीते हैं।
11) आप लोग भी अपने को ऐसा ही समझें-पाप के लिए मरा हुआ और ईसा मसीह में ईश्वर के लिए जीवित।
1) सप्ताह के प्रथम दिन, पौ फटते ही, वे तैयार किये हुए सुगन्धित द्रव्य ले कर क़ब्र के पास गयीं।
2) उन्होंने पत्थर को क़ब्र से अलग लुढ़काया हुआ पाया,
3) किन्तु भीतर जाने पर उन्हें प्रभु ईसा का शव नहीं मिला।
4) वे इस पर आश्चर्य कर ही रही थीं कि उजले वस्त्र पहने दो पुरुष उनके पास आ कर खड़े हो गये।
5) स्त्रियों ने भयभीत हो कर धरती की ओर सिर झुका लिया। उन पुरुषों ने उन से कहा, "आप लोग जीवित को मृतकों में क्यों ढूँढ़ती हैं?
6) वे यहाँ नहीं हैं- वे जी उठे हैं। गलीलिया में रहते समय उन्होंने आप लोगों से जो कहा था, वह याद कीजिए।
7) उन्होंने यह कहा था कि मानव पुत्र को पापियों के हवाले कर दिया जाना होगा, क्रूस पर चढ़ाया जाना और तीसरे दिन जी उठना होगा।"
8) तब स्त्रियों को ईसा का यह कथन याद आया।
9) कब्र से लौट कर मरियम मगदलेना, योहन्ना, और याकूब की माता मरियम ने यह सब ग्यारहों और दूसरे शिष्यों को भी बताया।
10) जो अन्य नारियाँ उनके साथ थीं, उन्होंने भी प्रेरितों से यही कहा;
11) परन्तु उन्होंने इन सब बातों को प्रलाप ही समझा और स्त्रियों पर विश्वास नहीं किया।
12) फिर भी पेत्रुस उठ क़र दौड़ते हुए क़ब्र के पास पहुँचा। उसने झुक कर देखा कि पट्टियों के अतिरिक्त वहाँ कुछ भी नहीं है और वह इस पर आश्चर्यचकित हो कर चला गया।