28) इतना कह कर ईसा येरुसालेम की ओर आगे बढ़े।
29) जब ईसा जैतून नामक पहाड़ के समीप-बेथफ़गे और बेथानिया के निकट पहुँचे, तो उन्होंने दो शिष्यों को यह कहते हुए भेजा,
30) ‘‘सामने के गाँव जाओ। वहाँ पहुँच कर तुम एक बछेड़ा बँधा हुआ पाओगे, जिस पर अब तक कोई नहीं सवार हुआ है।
31) उसे खोल कर यहाँ ले आओ। यदि कोई तुम से पूछे कि तुम उसे क्यों खोल रहे हो, तो उत्तर देना-प्रभु को इसकी जरूरत है।’’
32) जो भेजे गये थे, उन्होंने जा कर वैसा ही पाया, जैसा ईसा ने कहा था।
33) जब वे बछेड़ा खोल रहे थे, तो उसके मालिकों ने उन से कहा, ‘‘इस बछेड़े को क्यों खोल रहे हो?’’
34) उन्होंने उत्तर दिया, ‘‘प्रभु को इसकी ज़रूरत है’’।
35) वे बछेड़ा ईसा के पास ले आये और उस बछेड़े पर अपने कपड़े बिछा कर उन्होंने ईसा को उस पर चढ़ाया।
36) ज्यों-ज्यों ईसा आगे बढ़ते जा रहे थे, लोग रास्ते पर अपने कपड़े बिछाते जा रहे थे।
37) जब वे जैतून पहाड़ की ढाल पर पहुँचे, तो पूरा शिष्य-समुदाय आनंदविभोर हो कर आँखों देखे सब चमत्कारों के लिए ऊँचे स्वर से इस प्रकार ईश्वर की स्तुति करने लगा-
38) धन्य हैं वह राजा, जो प्रभु के नाम पर आते हैं! स्वर्ग में शान्ति! सर्वोच्च स्वर्ग में महिमा!
39) भीड़ में कुछ फ़रीसी थे। उन्होंने ईसा से कहा, ‘‘गुरूवर! अपने शिष्यों को डाँटिए’’।
40) परन्तु ईसा ने उत्तर दिया, ‘‘मैं तुम से कहता हूँ, यदि वे चुप रहें, तो पत्थर ही बोल उठेंगे’’।
4) प्रभु ने मुझे शिय बना कर वाणी दी है, जिससे मैं थके-माँदे लोगों को सँभाल सकूँ। वह प्रतिदिन प्रातः मेरे कान खोल देता है, जिससे मैं शिय की तरह सुन सकूँ।
5) प्रभु ने मेरे कान खोल दिये हैं; मैंने न तो उसका विरोध किया और न पीछे हटा।
6) मैंने मारने वालों के सामने अपनी पीठ कर दी और दाढ़ी नोचने वालों के सामने अपना गाल। मैंने अपमान करने और थूकने वालों से अपना मुख नहीं छिप़ाया।
7) प्रभु मेरी सहायता करता है; इसलिए मैं अपमान से विचलित नहीं हुआ। मैंने पत्थर की तरह अपना मुँह कड़ा कर लिया। मैं जानता हूँ कि अन्त में मुझे निराश नही होना पड़ेगा।
6) वह वास्तव में ईश्वर थे और उन को पूरा अधिकार था कि वह ईश्वर की बराबरी करें,
7) फिर भी उन्होंने दास का रूप धारण कर तथा मनुष्यों के समान बन कर अपने को दीन-हीन बना लिया और उन्होंने मनुष्य का रूप धारण करने के बाद
8) मरण तक, हाँ क्रूस पर मरण तक, आज्ञाकारी बन कर अपने को और भी दीन बना लिया।
9) इसलिए ईश्वर ने उन्हें महान् बनाया और उन को वह नाम प्रदान किया, जो सब नामों में श्रेष्ठ है,
10) जिससे ईसा का नाम सुन कर आकाश, पृथ्वी तथा अधोलोक के सब निवासी घुटने टेकें
11) और पिता की महिमा के लिए सब लोग यह स्वीकार करें कि ईसा मसीह प्रभु हैं।
14) समय आने पर ईसा प्रेरितों के साथ भोजन करने बैठे
15) और उन्होंने उन से कहा, ‘‘मैं कितना चाहता था कि दुःख भोगने से पहले पास्का का यह भोजन तुम्हारे साथ करूँ;
16) क्योंकि मैं तुम लोगों से कहता हूँ, जब तक यह ईश्वर के राज्य में पूर्ण न हो जाये, मैं इसे फिर नहीं खाऊँगा’’।
17) इसके बाद ईसा ने प्याला लिया, धन्यवाद की प्रार्थना पढ़ी और कहा, ‘‘इसे ले लो और आपस में बाँट लो;
18) क्योंकि मैं तुम लोगों से कहता हूँ, जब तक ईश्वर का राज्य न आये, मैं दाख का रस फिर नहीं पिऊँगा’’।
19) उन्होंने रोटी ली और धन्यवाद की प्रार्थना पढ़ने के बाद उसे तोड़ा और यह कहते हुए शिष्यों को दिया, ‘‘यह मेरा शरीर है, जो तुम्हारे लिए दिया जा रहा है। यह मेरी स्मृति में किया करो’’।
20) इसी तरह उन्होंने भोजन के बाद यह कहते हुए प्याला दिया, ‘‘यह प्याला मेरे रक्त का नूतन विधान है। यह तुम्हारे लिए बहाया जा रहा है।
21) ‘‘देखो, मेरे विश्वासघाती का हाथ मेरे साथ मेज़ पर है।
22) मानव पुत्र तो, जैसा लिखा है, चला जाता है; किन्तु धिक्कार उस मनुष्य को, जो उसे पकड़वाता है!’
23) वे एक दूसरे से पूछने लगे कि हम लोगों में कौन यह काम करने वाला है।
24) उन में यह विवाद छिड़ गया कि हम में किस को सब से बड़ा समझा जाना चाहिए।
25) ईसा ने उन से कहा, ‘‘संसार में राजा अपनी प्रजा पर निरंकुश शासन करते हैं और सत्ताधारी संरक्षक कहलाना चाहते हैं।
26) परन्तु तुम लोगों में ऐसा नहीं है। जो तुम में बड़ा है, वह सब से छोटे-जैसा बने और जो अधिकारी है, वह सेवक-जैसा बने।
27) आखि़र बड़ा कौन है-वह, जो मेज़ पर बैठता है अथवा वह, जो परोसता है? वहीं न, जो मेज़ पर बैठता है। परन्तु मैं तुम लोगों में सेवक-जैसा हूँ।
28) ‘‘तुम लोग संकट के समय मेरा साथ देते रहे।
29) मेरे पिता ने मुझे राज्य प्रदान किया है, इसलिए मैं तुम्हें यह वरदान देता हूँ
30) कि तुम मेरे राज्य में मेरी मेज़ पर खाओगे-पियोगे और सिंहासनों पर बैठ कर इस्राएल के बारह वंशों का न्याय करोगे।
31) ‘‘सिमोन! सिमोन! शैतान को तुम लोगों को गेहूँ की तरह फटकने की अनुमति मिली है।
32) परन्तु मैंने तुम्हारे लिए प्रार्थना की है, जिससे तुम्हारा विश्वास नष्ट न हो। जब तुम फिर सही रास्ते पर आ जाओगे, तो अपने भाइयों को भी सँभालोगे।’’
33) ‘‘पेत्रुस ने उन से कहा, ‘‘प्रभु! मैं आपके साथ बन्दीगृह जाने और मरने को भी तैयार हूँ’’।
34) किन्तु ईसा के कहा, ‘‘पेत्रुस! मैं तुम से कहता हूँ कि आज, मुर्गे के बाँग देने से पहले ही, तुम तीन बार यह अस्वीकार करोगे कि तुम मुझे जानते हो’’।
35) ईसा ने उन से कहा, ‘‘जब मैंने तुम्हें थैली, झोली और जूतों के बिना भेजा तो क्या तुम्हें किसी बात की कमी हुई थी?’’
36) उन्होंने उत्तर दिया, ‘‘किसी बात की नहीं’’। इस पर ईसा ने कहा, ‘‘परन्तु अब जिसके पास थैली है, वह उसे ले ले और अपनी झोली भी और जिसके पास नहीं है, वह अपना कपड़ा बेच कर तलवार ख़रीद ले;
37) क्योंकि मैं तुम से कहता हूँ कि धर्मग्रन्थ का यह कथन मुझ में अवश्य पूरा होगा-उसकी गिनती कुकर्मियों में हुई। और जो कुछ मेरे विषय में लिखा है, वह पूरा होने को है।’’
38) शिष्यों ने कहा, ‘‘प्रभु! देखिए, यहाँ दो तलवारें हैं’’। परन्तु ईसा ने कहा, ‘‘बस! बस!’’
39) ईसा बाहर निकल कर अपनी आदत के अनुसार जैतून पहाड़ गये। उनके शिष्य भी उनके साथ हो लिये।
40) ईसा ने वहाँ पहुँच कर उन से कहा, ‘‘प्रार्थना करो, जिससे तुम परीक्षा में न पड़ो’’।
41) तब वे पत्थर फेंकने की दूरी तक उन से अलग हो गये और घुटने टेक कर उन्होंने यह कहते हुए प्रार्थना की,
42) ‘‘पिता! यदि तू ऐसा चाहे, तो यह प्याला मुझ से हटा ले। फिर भी मेरी नहीं, बल्कि तेरी ही इच्छा पूरी हो।’’
43) तब उन्हें स्वर्ग का एक दूत दिखाई पड़ा, जिसने उन को ढारस बँधाया।
44) वे प्राणपीड़ा में पड़ने के कारण और भी एकाग्र हो कर प्रार्थना करते रहे और उनका पसीना रक्त की बूँदों की तरह धरती पर टपकता रहा।
45) वे प्रार्थना से उठ कर अपने शिष्यों के पास आये और यह देख कर कि वे उदासी के कारण सो गये हैं,
46) उन्होंने उन से कहा, ‘‘तुम लोग क्यों सो रहे हो? उठो और प्रार्थना करो, जिससे तुम परीक्षा में न पड़ो।’’
47) ईसा यह कह ही रहे थे कि एक दल आ पहुँचा। यूदस, बारहों में से एक, उस दल का अगुआ था। उसने ईसा के पास आ कर उनका चुम्बन किया।
48) ईसा ने उस से कहा, ‘‘यूदस! क्या तुम चुम्बन दे कर मानव पुत्र के साथ विश्वासघात कर रहे हो?’’
49) ईसा के साथियों ने यह देख कर कि क्या होने वाला है, उन से कहा, ‘‘प्रभु! क्या हम तलवार चलायें?’’
50) और उन में एक ने प्रधानयाजक के नौकर पर प्रहार किया और उसका दाहिना कान उड़ा दिया।
51) किन्तु ईसा ने कहा, ‘‘रहने दो, बहुत हुआ’’, और उसका कान छू कर उन्होंने उसे अच्छा कर दिया।
52) जो महायाजक, मन्दिर-आरक्षी के नायक और नेता ईसा को पकड़ने आये थे, उन से उन्होंने कहा, ‘‘क्या तुम मुझ को डाकू समझ कर तलवारें और लाठियाँ ले कर निकले हो?
53) मैं प्रतिदिन मन्दिर में तुम्हारे साथ रहा और तुमने मुझ पर हाथ नहीं डाला। परन्तु यह समय तुम्हारा है-अब अन्धकार का बोलबाला है।’’
54) तब उन्होंने ईसा को गिरफ़्तार कर लिया और उन्हें ले जा कर प्रधानयाजक के यहाँ पहुँचा दिया। पेत्रुस कुछ दूरी पर उनके पीछे-पीछे चला।
55) लोग प्रांगण के बीच में आग जला कर उसके चारों ओर बैठ रहे थे। पेत्रुस भी उनके साथ बैठ गया।
56) एक नौकरानी ने आग के प्रकाश में पेत्रुस को बैठा हुआ देखा और उस पर दृष्टि गड़ा कर कहा, ‘‘यह भी उसी के साथ था’’।
57) किन्तु उसने अस्वीकार करते हुए कहा, ‘‘नहीं भई! मैं उसे नहीं जानता’’।
58 थोड़ी देर बाद किसी दूसरे ने पेत्रुस को देख कर कहा, ‘‘तुम भी उन्हीं लोगों में एक हो’’। पेत्रुस ने उत्तर दिया, ‘‘नहीं भई! मैं नही हूँ’’।
59) क़रीब घण्टे भर बाद किसी दूसरे ने दृढ़तापूर्वक कहा, ‘‘निश्चय ही यह उसी के साथ था। यह भी तो गलीली है।’’
60) पेत्रुस ने कहा, ‘‘अरे भई! मैं नहीं समझता कि तुम क्या कह रहे हो’’। वह बोल ही रहा था कि उसी क्षण मुर्गे ने बाँग दी
61) और प्रभु ने मुड़ कर पेत्रुस की ओर देखा। तब पेत्रुस को याद आया कि प्रभु ने उस से कहा था कि आज मुर्गे के बाँग देने से पहले ही तुम मुझे तीन बार अस्वीकार करोगे,
62) और वह बाहर निकल कर फूट-फूट कर रोया।
63) ईसा पर पहरा देने वाले प्यादे उनका उपहास और उन पर अत्याचार करते थे।
64) वे उनकी आँखों पर पट्टी बाँध कर उन से पूछते थे, ‘‘यदि तू नबी है, तो हमें बता-तुझे किसने मारा?’’
65) वे उनका अपमान करते हुए उन से और बहुत-सी बातें कहते रहे।
66) दिन निकलने पर जनता के नेता, महायाजक और शास्त्री एकत्र हो गये और उन्होंने ईसा को अपनी महासभा में बुला कर उन से कहा,
67) ‘‘यदि तुम मसीह हो, तो हमें बता दो’’। उन्होंने उत्तर दिया, यदि मैं आप लोगों से कहूँगा, तो आप विश्वास नहीं करेंगे
68) और यदि मैं प्रश्न करूँगा, तो आप लोग उत्तर नहीं देंगे।
69) परन्तु अब से मानव पुत्र सर्वशक्तिमान् ईश्वर के दाहिने विराजमान होगा।’’
70) इस पर सब-के-सब बोल उठे, ‘‘तो क्या तुम ईश्वर के पुत्र हो?’ ईसा ने उत्तर दिया, ‘‘आप लोग ठीक ही कहते हैं। मैं वही हूँ।’’
71) इस पर उन्होंने कहा, ‘‘हमें और गवाही की ज़रूरत ही क्या है? हमने तो स्वयं इसके मुँह से सुन लिया है।’’
1) तब सारी सभा उठ खड़ी हो गयी और वे उन्हें पिलातुस के यहाँ ले गये।
2) वे यह कहते हुए ईसा पर अभियोग लगाने लगे, ‘‘हमें पता चला कि यह मनुष्य हमारी जनता में विद्रोह फैलाता है, कैसर को कर देने से लोगों को मना करता और अपने को मसीह, राजा कहता’’।
3) पिलातुस ने ईसा से यह प्रश्न किया, ‘‘क्या तुम यहूदियों के राजा हो?’’ ईसा ने उत्तर दिया, ‘‘आप ठीक ही कहते हैं’’।
4) तब पिलातुस ने महायाजकों और भीड़ से कहा, ‘‘मैं इस मनुष्य में कोई दोष नहीं पाता’’।
5) उन्होंने यह कहते हुए आग्रह किया, ‘‘यह गलीलिया से लेकर यहाँ तक, यहूदिया के कोने-कोने में अपनी शिक्षा से जनता को उकसाता है’’।
6) पिलातुस ने यह सुन कर पूछा कि क्या वह मनुष्य गलीली है
7) और यह जान कर कि यह हेरोद के राज्य का है, उसने ईसा को हेरोद के पास भेजा। वह भी उन दिनों येरुसालेम में था।
8) हेरोद ईसा को देख कर बहुत प्रसन्न हुआ। वह बहुत समय से उन्हें देखना चाहता था, क्योंकि उसने ईसा की चर्चा सुनी थी और उनका कोई चमत्कार देखने की आशा करता था।
9) वह ईसा से बहुत से प्रश्न करता रहा, परन्तु उन्होंने उसे उत्तर नहीं दिया।
10) इस बीच महायाजक और शास्त्री ज़ोर-ज़ोर से ईसा पर अभियोग लगाते रहे।
11) तब हेरोद ने अपने सैनिकों के साथ ईसा का अपमान तथा उपहास किया और उन्हें भड़कीला वस्त्र पहना कर पिलातुस के पास भेजा।
12) उसी दिन हेरोद और पिलातुस मित्र बन गयें-पहले तो उन दोनों में शत्रुता थी।
13) अब पिलातुस ने महायाजकों, शासकों और जनता को बुला कर
14) उन से कहा, ‘‘आप लोगों ने यह अभियोग लगा कर इस मनुष्य को मेरे सामने पेश किया कि यह जनता में विद्रोह फैलाता है। मैंने आपके सामने इसकी जाँच की; परन्तु आप इस मनुष्य पर जिन बातों का अभियोग लगाते हैं, उनके विषय में मैंने इस में कोई दोष नहीं पाया
15) और हेरोद ने भी दोष नहीं पाया; क्योंकि उन्होंने इसे मेरे पास वापस भेजा है। आप देख रहे हैं कि इसने प्राणदण्ड के योग्य कोई अपराध नहीं किया है।
16) इसलिए मैं इसे पिटवा कर छोड़ दूँगा।’’
17) पर्व के अवसर पर पिलातुस को यहूदियों के लिए एक बन्दी रिहा करना था।
18) वे सब-के-सब एक साथ चिल्ला उठे, ‘‘इसे ले जाइए, हमारे लिए बराब्बस को रिहा कीजिए।’’
19) बराब्बस शहर में हुए विद्रोह के कारण तथा हत्या के अपराध में क़ैद किया गया था।
20) पिलातुस ने ईसा को मुक्त करने की इच्छा से लोगों को फिर समझाया,
21) किन्तु वे चिल्लाते रहे, ‘‘इसे क्रूस दीजिए! इसे क्रूस कीजिए!’’
22) पिलातुस ने तीसरी बार उन से कहा, ‘‘क्यों? इस मनुष्य ने कौन-सा अपराध किया है? मैं इस में प्राणदण्ड के योग्य कोई दोष नहीं पाता। इसलिए मैं इसे पिटवा कर छोड़ दूँगा।’
23) परन्तु वे चिल्ला-चिल्ला कर आग्रह करते रहे कि इसे क्रूस दिया जाये और उनका कोलाहल बढ़ता जा रहा था।
24) तब पिलातुस ने उनकी माँग पूरी करने का निश्चय किया।
25) जो मनुष्य विद्रोह और हत्या के कारण क़ैद किया गया था और जिसे वे छुड़ाना चाहते थे, उसने उसी को रिहा किया और ईसा को लोगों की इच्छा के अनुसार सैनिकों के हवाले कर दिया।
26) जब वे ईसा को ले जा रहे थे, तो उन्होंने देहात से आते हुए सिमोन नामक कुरेने निवासी को पकड़ा और उस पर क्रूस रख दिया, जिससे वह उसे ईसा के पीछे-पीछे ले जाये।
27) लोगों की भारी भीड़ उनके पीछे-पीछे चल रही थी। उन में नारियाँ भी थीं, जो अपनी छाती पीटते हुए उनके लिए विलाप कर रही थी।
28) ईसा ने उनकी ओर मुड़ कर कहा, ‘‘येरुसालेम की बेटियो ! मेरे लिए मत रोओ। अपने लिए और अपने बच्चों के लिए रोओ,
29) क्योंकि वे दिन आ रहे हैं, जब लोग कहेंगे-धन्य हैं वे स्त्रियाँ, जो बाँझ है; धन्य हैं वे गर्भ, जिन्होंने प्रसव नहीं किया और धन्य है वे स्तन, जिन्होंने दूध नहीं पिलाया!
30) तब लोग पहाड़ों से कहने लगेंगे-हम पर गिर पड़ों, और पहाडि़यों से-हमें ढक लो;
31) क्योंकि यदि हरी लकड़ी का हाल यह है, तो सूखी का क्या होगा?’’
32) वे ईसा साथ दो कुकर्मियों को भी प्राणदण्ड के लिए ले जा रहे थे।
33) वे ‘खोपड़ी की जगह’ नामक स्थान पहुँचे। वहाँ उन्होंने ईसा को और उन दो कुकर्मियों को भी क्रूस पर चढ़ाया-एक को उनके दायें और एक को उनके बायें।
34) ईसा ने कहा, ‘‘पिता! इन्हें क्षमा कर, क्योंकि ये नहीं जानते कि क्या कर रहे हैं’’। तब उन्होंने उनके कपड़े के कई भाग किये और उनके लिए चिट्ठी निकाली।
35) जनता खड़ी हो कर यह सब देख ही थी। नेता यह कहते हुए उनका उपहास करते थे, ‘‘इसने दूसरों को बचाया। यदि यह ईश्वर का मसीह और परमप्रिय है, तो अपने को बचाये।’’
36) सैनिकों ने भी उनका उपहास किया। वे पास आ कर उन्हें खट्ठी अंगूरी देते हुए बोले,
37) ‘‘यदि तू यहूदियों का राजा है, तो अपने को बचा’’।
38) ईसा के ऊपर लिखा हुआ था, ‘‘यह यहूदियों का राजा है’’।
39) क्रूस पर चढ़ाये हुए कुकर्मियों में एक इस प्रकार ईसा की निन्दा करता था, ‘‘तू मसीह है न? तो अपने को और हमें भी बचा।’’
40) पर दूसरे ने उसे डाँट कर कहा, ‘‘क्या तुझे ईश्वर का भी डर नहीं? तू भी तो वही दण्ड भोग रहा है।
41) हमारा दण्ड न्यायसंगत है, क्योंकि हम अपनी करनी का फल भोग रहे हैं; पर इन्होंने कोई अपराध नहीं किया है।’’
42) तब उसने कहा, ‘‘ईसा! जब आप अपने राज्य में आयेंगे, तो मुझे याद कीजिएगा’’।
43) उन्होंने उस से कहा, ‘‘मैं तुम से यह कहता हूँ कि तुम आज ही परलोक में मेरे साथ होगे’’।
44) अब लगभग दोपहर हो रहा था। सूर्य के छिप जाने से तीसरे पहर तक सारे प्रदेश पर अँधेरा छाया रहा।
45) मन्दिर का परदा बीच से फट कर दो टुकड़े हो गया।
46) ईसा ने ऊँचे स्वर से पुकार कर कहा, ‘‘पिता! मैं अपनी आत्मा को तेरे हाथों सौंपता हूँ’’, और यह कह कर उन्होंने प्राण त्याग दिये।
47) शतपति ने यह सब देख कर ईश्वर की स्तुति करते हुए कहा, ‘‘निश्चित ही, यह मनुष्य धर्मात्मा था’’।
48) बहुत-से लोग यह़ दृश्य देखने के लिए इकट्ठे हो गये थे। वे सब-के-सब इन घटनाओं को देख कर अपनी छाती पीटते हुए लौट गये।
49) उनके सब परिचित और गलीलिया से उनके साथ आयी हुई नारियाँ कुछ दूरी पर से यह सब देख रहीं थीं।
50) महासभा का यूसुफ़ नामक सदस्य निष्कपट और धार्मिक था।
51) वह सभा की योजना और उसके षड्यन्त्र से सहमत नहीं हुआ था। वह यहूदियों के अरिमथिया नगर का निवासी था और ईश्वर के राज्य की प्रतीक्षा में था।
52) उसने पिलातुस के पास जा कर ईसा का शव माँगा।
53) उसने शव को क्रूस से उतारा और छालटी के कफ़न में लपेट कर एक ऐसी क़ब्र में रख दिया, जो चट्टान में खुदी हुई थी और जिस में कभी किसी को नहीं रखा गया था।
54) उस दिन शुक्रवार था और विश्राम का दिन आरम्भ हो रहा था।
55) जो नारियाँ ईसा के साथ गलीलिया से आयी थीं, उन्होंने यूसुफ़ के पीछे-पीछे चल कर क़ब्र को देखा और यह भी देखा कि ईसा का शव किस तरह रखा गया है।
56) लौट कर उन्होंने सुगन्धित द्रव्य तथा विलेपन तैयार किया और विश्राम के दिन नियम के अनुसार विश्राम किया।
संत लूकस के सुसमाचार के अनुसार जब प्रभु येसु जैतून नामक पहाड़ के समीप-बेथफ़गे और बेथानिया के निकट पहुँचे, तब उनके कहे अनुसार उनके दो शिष्य सामने के गाँव जा कर एक बछेड़े को खोल कर उनके पास ले आये और उस बछेड़े पर अपने कपड़े बिछा कर उन्होंने प्रभु को उस पर चढ़ाया। ज्यों-ज्यों प्रभु आगे बढ़ते जा रहे थे, लोग रास्ते पर अपने कपड़े बिछाते जा रहे थे। जब वे जैतून पहाड़ की ढाल पर पहुँचे, तो पूरा शिष्य-समुदाय आनंदविभोर हो कर आँखों देखे सब चमत्कारों के लिए ऊँचे स्वर से इस प्रकार ईश्वर की स्तुति करने लगा - धन्य हैं वह राजा, जो प्रभु के नाम पर आते हैं! स्वर्ग में शान्ति! सर्वोच्च स्वर्ग में महिमा! जब कुछ फ़रीसियों ने प्रभु से कहा, "गुरूवर! अपने शिष्यों को डाँटिए" तब उन्हें डाँटने के बजाय प्रभु ने उत्तर दिया, "मैं तुम से कहता हूँ, यदि वे चुप रहें, तो पत्थर ही बोल उठेंगे"। इस प्रकार बडे प्रताप के साथ एक राजा के रूप में प्रभु येसु येरूसालेम शहर में प्रवेश करते हैं। सुसमाचार से इस घटनाक्रम का विवरण आज की धर्मविधि की शुरूआत में खजूर की डालियों की आशिष के समय पढा जाता है। इस पाठ के पश्चात हम जुलूस में गिर्जाघर में प्रवेश करते हैं। लेकिन गिरजाघर में प्रवेश करने के बाद माहौल बदल जाता है। वातावरण अचानक शोकमय बन जाता है।
आज की धर्मविधि की एक विशेषता यह है कि इसके अन्तरगत सुसमाचार के दो पाठ पढे जाते हैं। जुलूस के पहले पढे जाने वाले पाठ के अलावा, मिस्सा बलिदान के समय प्रभु येसु के दुखभोग का पाठ सुसमाचार से पढा जाता है। प्रथम सुसमाचारीय पाठ में जो लोग प्रभु येसु के जय-जयकार कर रहे थे, वे ही लोग इस समय “इसे क्रूस दीजिए, इसे क्रूस दीजिए” चिल्लाते हैं। जब हम प्रभु येसु के सार्वजनिक जीवन को देखते हैं, तब हमें यह पता चलता है कि उन्हें कभी भी हार नहीं माननी पडी। वे शास्त्रियों और फरीसियों को भी चुनौती देकर, उनके मुँह बन्द करके आगे बढ़ते हैं। उनकी बातें सुन कर और उनके कार्यों को देख कर लोग अचम्भे में पड़ जाते हैं। एक बार ऐसा भी हुआ कि लोग उन्हें नगर से बाहर निकाल कर, उनका नगर जिस पहाड़ी पर बसा हुआ था, उन्हें नीचे गिराने के लिए उसकी चोटी तक ले गये, परन्तु वे उनके बीच से निकल कर चले गये। वे उनकी पकड में नहीं आये।
लेकिन अपनी प्राणपीडा के समय वे बहुत ही निस्सहाय दिखते हैं। लोग उन पर थूकते हैं, उनको पीटते और घसीटते हैं, उनकी हँसी उड़ाते हैं। राजओं के राजा होने के बावजूद भी संसार के राजाओं के सामने चुपचाप खडे होकर उनका दिया हुआ दण्ड स्वीकार करते हैं। इन सब घटनाक्रम को हम कैसे समझ पायेंगे? क्या सचमुच वे बलहीन हो गये? क्या वे वास्तव में निस्सहाय हैं? हरगिज नहीं! ------
मसीह का दुखभोग एक ’बेचारे’ या ’डरपोक’ की कहानी नहीं है, बल्कि एक वीरगाथा है। वे स्वयं कहते हैं, “मैं भेड़ों के लिए अपना जीवन अर्पित करता हूँ। .... पिता मुझे इसलिए प्यार करता है कि मैं अपना जीवन अर्पित करता हूँ; बाद में मैं उसे फिर ग्रहण करूँगा। कोई मुझ से मेरा जीवन नहीं हर सकता; मैं स्वयं उसे अर्पित करता हूँ। मुझे अपना जीवन अर्पित करने और उसे फिर ग्रहण करने का अधिकार है। मुझे अपने पिता की ओर से यह आदेश मिला है।" (योहन 10:15,17-18) हम सब के पापों से हमें बचाने के लिए हमारे भले गडरिये ने अपने जीवन की कुर्बानी दी हैं।
कई बार हम सोचते हैं कि गाली देने वाले के सामने चुप रहना दुर्बलता की बात है, हमारे एक गाल पर थप्पड मारने वाले के सामने दूसरा गाल भी बताना हमारी कमजोरी है, मारने वालों के सामने अपनी पीठ करना हार मानने का लक्षण है, दाढ़ी नोचने वालों के सामने अपना गाल करना हमारी शक्तिहीनता को दर्शाता है तथा अपमान करने और थूकने वालों से अपना मुख नहीं छिप़ाना असीम निर्बलता का संकेत है। परन्तु जब हमें पता चलता है कि सर्वशक्तिमान ईश्वर ही इस प्रकार का व्यवहार कर रहे हैं, तब हम एक महान रहस्य का अनुभव करने लगते हैं। प्रभु येसु अपने जीवन और मृत्यु से हमें एक नयी संस्कृति को अपनाने की चुनौती देते हैं। इस चुनौती को वे ही लोग समझ पाते हैं जो अपनी निगाह इस दुनिया की सीमाओं से ऊपर उठा सकते हैं। इस दुनिया के मूल्य स्वर्गराज्य के मूल्य के बिलकुल विपरीत है। इसलिए प्रभु येसु आशीर्वचनों में दीन-हीनों, विनम्र लोगों, शोक करने वालों, धार्मिकता के भूखे और प्यासों, दयालुओं, निर्मल हृदय वालों, मेल कराने वालों तथा धार्मिकता के कारण अत्याचार सहने वालों को धन्य घोषित करते हैं और उन्हें स्वर्गराज्य प्रदान करने का वादा करते हैं। प्रभु येसु के पद्चिन्हों पर चल कर असीसी के संत फ्रांसिस ने प्रार्थना की – “ओ स्वामी, मुझको ये वर दे कि मैं सांत्वना पाने की आशा न करुँ, सांत्वना देता रहूँ। समझा जाने की आशा न करुँ, समझता ही रहूँ। प्यार पाने की आशा न रखूँ प्यार देता ही रहूँ। त्याग के द्वारा ही प्राप्ति होती है। क्षमा के द्वारा ही क्षमा मिलती है। मृत्यु के द्वारा ही अनन्त जीवन मिलता है।”
आज की पूजन-विधि हमें स्वर्गराज्य के रहस्यों को समझने तथा उन्हें हृदय से ग्रहण करने का निमंत्रण देती है।
✍ -फादर फ्रांसिस स्करिया