25) तब प्रभु बादल में आ कर मूसा से बात करने लगा और उसने मूसा की शक्ति का कुछ अंष सत्तर वयोवृद्धों को प्रदान किया। इसके फलस्वरूप उन्हें एक दिव्य प्रेरणा का अनुभव हुआ और वे भविष्यवाणी करने लगे। बाद में उन्हें फिर ऐसा अनुभव नहीं हुआ।
26) दो पुरुष शिविर में रह गये थे। एक का नाम था एलदाद और दूसरे का मेदाद। यद्यपि वे दर्शन-कक्ष में नहीं आये थे, तब भी उन्हें दिव्य प्रेरणा का अनुभव हुआ क्योंकि वे चुने हुए वयोवृद्वों में से थे और वे शिविर में ही भविष्यवाणी करने लगे।
27) एक नवयुवक दौड़ कर मूसा से यह कहने आया - ''एलदाद और मेदाद शिविर में भविष्यवाणी कर रहे हैं''।
28) नुन के पुत्र योशुआ ने, जो बचपन में मूसा की सेवा करता था, यह कह कर अनुरोध किया, ''मूसा! गुरूवर! उन्हें रोक दीजिए।''
29) इस पर मूसा ने उसे उत्तर दिया, ''क्या तुम मेरे कारण ईर्ष्या करते हो? अच्छा यही होता कि प्रभु सब को प्रेरणा प्रदान करता और प्रभु की सारी प्रजा भविष्यवाणी करती।''
1) धनियो! मेरी बात सुनो। आप लोगों को रोना और विलाप करना चाहिए, क्योंकि आप पर विपत्तियाँ पड़ने वाली हैं।
2) आपकी सम्पत्ति सड़ गयी है। आपके कपड़ों में कीड़े लग गये हैं।
3) आपकी सोना-चांदी पर मोरचा जम गया है। वह मोरचा आप को दोष देगा; वह आग की तरह आपका शरीर खा जायेगा। यह युग का अन्त है और आप लोगों ने धन का ढेर लगा लिया है।
4) मजदूरों ने आपके खेतों की फसल लुनी और आपने उन्हें मजदूरी नहीं दी। वह मजदूरी पुकार रही है और लुनने वालों की दुहाई विश्वमण्डल के प्रभु के कानों तक पहुँच गयी है।
5) आप लोगों ने पृथ्वी पर सुख और भोग-विलास का जीवन बिताया है और वध के दिन के लिए अपने को हष्ट-पुष्ट बना लिया है।
6) आपने धर्मी को दोषी ठहरा कर मार डाला है और उसने आपका कोई विरोध नहीं किया।
38) योहन ने उन से कहा, "गुरुवर! हमने किसी को आपका नाम ले कर अपदूतों को निकालते देखा और हमने उसे रोकने की चेष्टा की, क्योंकि वह हमारे साथ नहीं चलता"।
39) परन्तु ईसा ने उत्तर दिया, "उसे मत रोको; क्योंकि कोई ऐसा नहीं, जो मेरा नाम ले कर चमत्कार दिखाये और बाद में मेरी निन्दा करें।
40) जो हमारे विरुद्ध नहीं है, वह हमारे साथ ही है।
41) "जो तुम्हें एक प्याला पानी इसलिए पिलायेगा कि तुम मसीह के शिष्य हो, तो मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ कि वह अपने पुरस्कार से वंचित नहीं रहेगा।
42) "जो इन विश्वास करने वाले नन्हों में किसी एक के लिए भी पाप का कारण बनता है, उसके लिए अच्छा यही होता कि उसके गले में चक्की का पाट बाँधा जाता और वह समुद्र में फेंक दिया जाता।
43 (43-44) और यदि तुम्हारा हाथ तुम्हारे लिए पाप का कारण बनता है, तो उसे काट डालो। अच्छा यही है कि तुम लुले हो कर ही जीवन में प्रवेश करो, किन्तु दोनों हाथों के रहते नरक की न बुझने वाली आग में न डाले जाओ।
45 (45-46) और यदि तुम्हारा पैर तुम्हारे लिए पाप का कारण बनता है, तो उसे काट डालो। अच्छा यही है कि तुम लँगड़े हो कर ही जीवन में प्रवेश करो, किन्तु दोनों पैरों के रहते नरक में न डाले जाओ।
47) और यदि तुम्हारी आँख तुम्हारे लिए पाप का कारण बनती है, तो उसे निकाल दो। अच्छा यही है कि तुम काने हो कर ही ईश्वर के राज्य में प्रवेश करो, किन्तु दोनों आँखों के रहते नरक में न डाले जाओ,
48) जहाँ उन में पड़ा हुआ कीड़ा नहीं मरता और आग नहीं बुझती।
कई बार हमने ऐसे लोगों को देखा होगा जो अपने काम को बड़ी वफादारी और लगन से करते हैं, इस आशा से कि उनकी उस मेहनत का उन्हें उचित फल मिलेगा। जो किसी नौकरी में किसी छोटे पद पर है वह इस बात की आस लगाये रहता है कि एक दिन उसे बड़ा पद मिलेगा, या फिर उसकी सैलरी बढेगी, या फिर उसके अधिक मेहनत करने से वह अपने परिवार के लिये और अधिक बेहतर साधन जुटा सकेगा। दूसरे लोग उसकी उस मेहनत और लगन की सच्चाई को स्वतः ही समझ भी जाते हैं, और वे भी चाहते हैं कि उसकी उस मेहनत और लगन के बदले उसे उसका उचित फल मिलना ही चाहिये। जब उस व्यक्ति को उसकी उस मेहनत के लिये प्रमोशन, या वेतनवृद्धि के रूप में उचित फल मिलता है तब दूसरों को भी खुशी होती है, सन्तुष्टि मिलती है कि वह व्यक्ति उसके योग्य था, और उसे उसका फल मिला।
दूसरी ओर हमने ऐसे लोगों को भी देखा है कि ऐसी ही इच्छा रखते हैं कि उनका प्रमोशन हो या उनकी सैलरी बढे। लेकिन इसके लिये वे ईमानदारी का रास्ता नहीं अपनाते। वे या तो किसी प्रभाव के द्वारा उसे पाना चाहते हैं या फिर दिखावे की मेहनत करते हैं। कभी-कभी बॉस के अधिक करीबी होने के कारण, वेतनवृद्धि या प्रमोशन को वे अपना अधिकार समझते हैं। ऐसे में यदि किसी ईमानदार व्यक्ति को उसकी ईमानदारी और लगन का उचित फल मिलता है तो इन लोगो को बड़ी जलन होती है। बॉस से चुगली करते हैं, उनके प्रमोशन में अड़चन पैदा करने की कोशिश करते हैं। ऐसे लोग दूसरों के प्रति ईर्ष्या से भर जाते हैं।
आज के पहले पाठ में हम देखते हैं कि प्रभु चुने हुए लोगों पर सामर्थ्य बरसाता है जिससे वे भविष्यवाणी करने लगते हैं। भविष्यवाणी करने का वरदान प्रभु के आत्मा का बहुत महत्वपूर्ण चिन्ह है (प्ररित चरित 2:17)। नये विधान में भविष्यवाणी के वरदान के साथ-साथ और भी अन्य वरदान हैं जो प्रभु के आत्मा का चिन्ह है (1 कुरिन्थियों 12:8-10)। यह सामर्थ्य और वरदान प्रभु अपने चुने हुए लोगों पर बरसाते हैं, वो लोग जो प्रभु के प्रति ईमानदार हैं और अपनी जिम्मेदारी के प्रति लगन रखते हैं। लेकिन सुसमाचार में हम देखते हैं कि जब कुछ लोग प्रभु का नाम लेकर भले कार्य करते हैं तो प्रभु के शिष्यों को इससे आपत्ति होती है और वे प्रभु से शिकायत करते हैं। प्रभु येसु के शिष्य हर घड़ी प्रभु के साथ रहते थे। प्रभु के सबसे करीब थे। और अगर लोग प्रभु का स्वागत करते थे तो उनके शिष्यों का भी स्वागत सम्मान करते थे।
ऐसे में यदि कोई और प्रभु के नाम का उपयोग कर भले कार्य करता है तो उन्हें जलन होती है। शायद उन्होंने प्रभु को ठीक से समझा नहीं था। शायद उन्होंने सोचा था कि प्रभु के नाम का पेटेन्ट सिर्फ उन्हीं का है और सिर्फ वही उसके द्वारा चमत्कार कर सकते हैं। लेकिन ईश्वर पर किसी का व्यक्तिगत अधिकार नहीं है। ईश्वर सबके लिऐ है और जो ईश्वर को मानता है और ईश्वर के विरुद्ध नहीं है वह ईश्वर का ही है।
कभी-कभी हम भी प्रभु येसु के शिष्यों के समान व्यवहार करते हैं। कोई जन्म से ख्रिस्तीय है तो स्वयं को प्रभु का सच्चा शिष्य समझता है और जो प्रभु के विश्वास में नया है उसे हिकारत की नज़रों से देखता है। कभी कभी जो प्रभु द्वारा बुलाये और चुने हुए लोग हैं, वे चमत्कार नहीं कर पाते, लेकिन साधरण व्यक्ति अपने विश्वास द्वारा महान चमत्कार कर देते हैं। यदि हम प्रभु की विशेष चुनी हुई प्रजा हैं तो दूसरे लोग भी जो प्रभु के बताये हुए मार्ग पर चलते हैं वे भी हमारे ही भाई-बहन हैं। हमें उनके प्रति ईर्ष्या नहीं बल्कि प्रेम और भाईचारे के साथ पेश आना है। वहीं दूसरी ओर हमें अपने विश्वास और ख्रिस्तीय जीवन का मूल्यांकन करना है कि कहीं हमें और अधिक ईमानदारी और लगन से अपने विश्वास को नहीं जीना है। आइये हम अपने विश्वास में दूसरों को भी स्वीकार करे और अपने विश्वास द्वारा उन्हें प्रभु के रास्ते पर प्रेरित करें। आमेन।
✍फ़ादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)