5) प्रभु ने मेरे कान खोल दिये हैं; मैंने न तो उसका विरोध किया और न पीछे हटा।
6) मैंने मारने वालों के सामने अपनी पीठ कर दी और दाढ़ी नोचने वालों के सामने अपना गाल। मैंने अपमान करने और थूकने वालों से अपना मुख नहीं छिप़ाया।
7) प्रभु मेरी सहायता करता है; इसलिए मैं अपमान से विचलित नहीं हुआ। मैंने पत्थर की तरह अपना मुँह कड़ा कर लिया। मैं जानता हूँ कि अन्त में मुझे निराश नही होना पड़ेगा।
8) मेरा रक्षक निकट है, तो मेरा विरोधी कौन? हम एक दूसरे का सामना करें। मुझ पर अभियोग लगाने वाला कौन? वह आगे बढ़ने का साहस करे।
9) प्रभु-ईश्वर मेरी सहायता करता है, तो कौन मुझे दोषी ठहराने का साहस करेगा? मेरे सभी विरोधी वस्त्र की तरह जीर्ण हो जायेंगे, उन्हें कीड़े खा जायेंगे।
14) भाइयो! यदि कोई यह कहता है कि मैं विश्वास करता हूँ, किन्तु उसके अनुसार आचरण नहीं करता, तो इस से क्या लाभ? क्या विश्वास ही उसका उद्धार कर सकता है?
15) मान लीजिए कि किसी भाई या बहन के पास न पहनने के लिए कपड़े हों और न रोज-रोज खाने की चीजे़ं।
16) यदि आप लोगों में केाई उन से कहे, "खुशी से जाइए, गरम-गरम कपड़े पहनिए और भर पेट खाइए", किन्तु वह उन्हें शरीर के लिए ज़रूरी चीजें नहीं दे, तो इस से क्या लाभ?
17) इसी तरह कर्मों के अभाव में विश्वास पूर्ण रूप से निर्जीव होता है।
18) और ऐसे मनुष्य से कोई कह सकता है, "तुम विश्वास करते हो, किन्तु मैं उसके अनुसार आचरण करता हूँ। मुझे अपना विश्वास दिखाओ, जिस पर तुम नहीं चलते और मैं अपने आचरण द्वारा तुम्हें अपने विश्वास का प्रमाण दूँगा।"
27) ईसा अपने शिष्यों के साथ कैसरिया फि़लिपी के गाँवों की ओर गये। रास्ते में उन्होंने अपने शिष्यों से पूछा, "मैं कौन हूँ, इस विषय में लोग क्या कहते हैं?"
28) उन्होंने उत्तर दिया, "योहन बपतिस्ता; कुछ लोग कहते हैं- एलियस, और कुछ लोग कहते हैं- नबियों में से कोई"।
29) इस पर ईसा ने पूछा, "और तुम क्या कहते हो कि मैं कौन हूँ?" पेत्रुस ने उत्तर दिया, "आप मसीह हैं"।
30) इस पर उन्होंने अपने शिष्यों को कड़ी चेतावनी दी कि तुम लोग मेरे विषय में किसी को भी नहीं बताना।
31) उस समय से ईसा अपने शिष्यों को स्पष्ट शब्दों में यह समझाने लगे कि मानव पुत्र को बहुत दुःख उठाना होगा; नेताओं, महायाजकों और शास्त्रियों द्वारा ठुकराया जाना, मार डाला जाना और तीन दिन के बाद जी उठना होगा।
32) पेत्रुस ईसा को अलग ले जा कर फटकारने लगा,
33) किन्तु ईसा ने मुड़ कर अपने शिष्यों की ओर देखा, और पेत्रुस को डाँटते हुए कहा, "हट जाओ, शैतान! तुम ईश्वर की बातें नहीं, बल्कि मनुष्यों की बातें सोचते हो"।
34) ईसा ने अपने शिष्यों के अतिरिक्त अन्य लोगों को भी अपने पास बुला कर कहा, "जो मेरा अनुसरण करना चाहता है, वह आत्मत्याग करे और अपना क्रूस उठा कर मेरे पीछे हो ले।
35) क्योंकि जो अपना जीवन सुरक्षित रखना चाहता है, वह उसे खो देगा और जो मेरे तथा सुसमाचार के कारण अपना जीवन खो देता है, वह उसे सुरक्षित रखेगा।
सुसमाचार में हम बार-बार येसु को रास्ता चलते, गाँव-गाँव घूमते देखते हैं। चलते-चलते वे अपने शिष्यों को स्वर्गराज्य के विषय में उपदेश दिया करते थे। जब हम किसी व्यक्ति से बार-बार बातें करते रहते हैं और उस व्यक्ति की बातें सुनते रहते हैं, तब हम धीरे-धीरे न केवल जो कुछ हम सुनते हैं, उसे समझते और सीखते हैं, बल्कि हम उस व्यक्ति को भी समझने और उसके करीब आने लगते हैं। बोलने वाले और सुनने वाले के बीच में एक संबंध अंकुरित होता है जो धीरे-धीरे गहरा बनता जाता है।
येसु करीब तीन साल से शिष्यों के साथ रहते आ रहे थे, वे उनके साथ उठते बैठते थे, खाते पीते थे तथा उनको उपदेश देते थे। अब वे यह जानना चाह रहे थे कि शिष्य उनके बारे में क्या सोच रहे हैं, क्या समझ रहे हैं। इसलिए एक दिन रास्ते में उन्होंने अपने शिष्यों से पूछा, "मैं कौन हूँ, इस विषय में लोग क्या कहते हैं?" शिष्यों ने जो भी कुछ लोगों के मुख से विभिन्न अवसरों में सुना था, उन्होंने वह सब येसु को बताया। येसु को किसी ने यिरमियाह कहा, किसी ने योहन बपतिस्ता, किसी ने एलियस और किसी ने नबियों में से कोई। जो प्रश्न पूछा गया उसके द्वारा येसु उन्हें एक व्यक्तिगत सवाल का सामना करने के लिए तैयार कर रहे थे। उनका जवाब सुनने के बाद येसु ने अपने शिष्यों से एक व्यक्तिगत प्रश्न पूछा, “और तुम क्या कहते हो कि मैं कौन हूँ?" शिष्यों की ओर से पेत्रुस ने उत्तर दिया, "आप मसीह हैं"।
प्रभु ने पेत्रुस की सराहना करने के बाद यह स्पष्ट किया कि यह जानकारी किसी मनुष्य ने नहीं, बल्कि पिता ईश्वर ने ही उन्हें प्रदान की है। तत्पश्चात वे शिष्यों को यह सिखाना चाहते हैं कि मसीह के जीवन का एक अनिवार्य पहलू पीडा या क्लेश है, दुख-तकलीफ़ है। इसलिए येसु ने उनसे कहा कि मसीह को “बहुत दुःख उठाना होगा; नेताओं, महायाजकों और शास्त्रियों द्वारा ठुकराया जाना, मार डाला जाना और तीन दिन के बाद जी उठना होगा” (मारकुस 8:31)। परन्तु इस दुनिया के कई अन्य लोगों के समान पेत्रुस उस पहलू को स्वीकार करने से इनकार करते हैं। इस विषय में पवित्र वचन कहता है, “पेत्रुस ईसा को अलग ले गया और उन्हें यह कहते हुए फटकारने लगा, "ईश्वर ऐसा न करे। प्रभु यह आप पर कभी नहीं बीतेगी" (मत्ती 16:22) येसु पेत्रुस को और अन्य शिष्यों को यह समझाना चाहते हैं कि अगर वे मसीह को क्रूस से अलग करेंगे तो वे सच्चे मसीह को पहचानने और उन्हें स्वीकार करने में असमर्थ होंगे। इसलिए “ईसा ने मुड़ कर अपने शिष्यों की ओर देखा, और पेत्रुस को डाँटते हुए कहा, "हट जाओ, शैतान! तुम ईश्वर की बातें नहीं, बल्कि मनुष्यों की बातें सोचते हो" (मारकुस 8:33)।
आगे चल कर प्रभु येसु यह बताना चाहते हैं कि दुख-तकलीफ़ न केवल मसीह के जीवन का अभिन्न अंग हैं, बल्कि मसीह के सभी शिष्यों के जीवन का भी अभिन्न अंग है। इसलिए पवित्र वचन कहता है, “ईसा ने अपने शिष्यों के अतिरिक्त अन्य लोगों को भी अपने पास बुला कर कहा, "जो मेरा अनुसरण करना चाहता है, वह आत्मत्याग करे और अपना क्रूस उठा कर मेरे पीछे हो ले। क्योंकि जो अपना जीवन सुरक्षित रखना चाहता है, वह उसे खो देगा और जो मेरे तथा सुसमाचार के कारण अपना जीवन खो देता है, वह उसे सुरक्षित रखेगा।“ (मारकुस 8:34-35) क्रूस के बिन कोई मसीह नहीं। क्रूस के बिना कोई मसीही शिष्य भी नहीं हो सकता। कलीसियाई इतिहास तथा परम्पराओं के मुताबिक सभी बारह शिष्यों को अपने जीवन में कठोर पीडा का अनुभव हुआ। योहन को छोड सभी शिष्य शहीद बने। बुढापे में योहन की साधारण मृत्यु हुयी। अन्य ग्यारह प्रेरितों को असह्य दुख-दर्द झेल कर मृत्यु को अपनाना पडा। (1) पेत्रुस को रोम में क्रूस पर उलटा टाँग कर मार डाला गया। (2) अन्द्रेयस को यूनान में क्रूस पर चढाया गया। (3) इथियोपिया में मत्ती का सिर काट कर मार डाला गया। (4) बरथोलोमी को अरमीनिया में कोडों से पीट-पीट कर मार डाला गया। (5) थोमस को भारत में भाले से मार डाला गया। (6) फिलिप को अंकुशों से टाँग दिया गया और उन्हें बहुत ही दर्दनाक मृत्यु का शिकार बनाया गया। (7) हेरोद ने ज़ेबदी के पुत्र याकूब का गला कटवा कर उनकी हत्या की। (8) यूदस को पेर्शिया में क्रूसमरण स्वीकार करना पडा। (9) मथियस को पत्थरों से मारा गया; तत्पश्चात गला काट के मार डाला गया। (10) अलफ़ाई के पुत्र याकूब को मंदिर की चोटी से नीचे फेंक दिया गया और उसके बाद पीट कर मार डाला गया। (11) उत्साही सिमोन को भी क्रूस पर चढाया गया। इनके अलावा संत पौलुस का भी गला काट कर वध किया गया। कलीसिया का इतिहास हमें यह बताता है कि विश्वासियों का जीवन क्रूस का जीवन है। क्रूस लेते बिना कोई भी येसु का शिष्य नहीं बन सकता है। येसु शिष्यों के जीवन में आनेवाली कठिनाइयों को देखते हुए कहते हैं, "देखो, मैं तुम्हें भेडि़यों के बीच भेड़ों क़ी तरह भेजता हूँ। इसलिए साँप की तरह चतुर और कपोत की तरह निष्कपट बनो। "मनुष्यों से सावधान रहो। वे तुम्हें अदालतों के हवाले करदेंगे और अपने सभागृहों में तुम्हें कोडे़ लगायेंगे। तुम मेरे कारण शासकों और राजाओं के सामने पेश किये जाओगे, जिससे मेरे विषय में तुम उन्हें और गै़र-यहूदियों को साक्ष्य दे सको। ..... मेरे नाम के कारण सब लोग तुम से बैर करेंगे, किन्तु जो अन्त तक धीर बना रहेगा, उसे मुक्ति मिलेगी।“(मत्ती 10:16-18,22-)
अगर हम प्रभु में विश्वास करते हैं, तो हमारे जीवन में भी दुख-तकलिफ़ें अवश्य आयेंगी। प्रवक्ता ग्रन्थ कहता है, पुत्र! यदि तुम प्रभु की सेवा करना चाहते हो, तो विपत्ति का सामना करने को तैयार हो जाओ। तुम्हारा हृदय निष्कपट हो, तुम दृढ़संकल्प बने रहो, विपत्ति के समय तुम्हारा जी नही घबराये। ईश्वर से लिपटे रहो, उसे मत त्यागो, जिससे अन्त में तुम्हारा कल्याण हो। जो कुछ तुम पर बीतेगा, उसे स्वीकार करो तथा दुःख और विपत्ति में धीर बने रहो; क्योंकि अग्नि में स्वर्ण की परख होती है और दीन-हीनता की घरिया में ईश्वर के कृपापात्रों की। ईश्वर पर निर्भर रहो और वह तुम्हारी सहायता करेगा। प्रभु के भरोसे सन्मार्ग पर आगे बढ़ते जाओ।” प्रवक्ता 2:1-6) संत पौलुस संक्षेप में कहते हैं, “हमें बहुत से कष्ट सह कर ईश्वर के राज्य में प्रवेश करना है” (प्रेरित-चरित 14:22)। रोमियों को लिखते हुए वे कहते हैं, “इतना ही नहीं, हम दुःख-तकलीफ पर भी गौरव करें, क्योंकि हम जानते हैं कि दुःख-तकलीफ से धैर्य, धैर्य से दृढ़ता, और दृढ़ता से आशा उत्पन्न होती है” (रोमियों 5:3-4)। अगर संत पौलुस दुख-तकलीफ़ पर गौरव करने को कहते हैं, तो संत पेत्रुस और आगे बढ़ कर आनन्द मनाने को। “यदि आप लोगों पर अत्याचार किया जाये, तो मसीह के दुःख-भोग के सहभागी बन जाने के नाते प्रसन्न हों। जिस दिन मसीह की महिमा प्रकट होगी, आप लोग अत्यधिक आनन्दित हो उठेंगे। यदि मसीह के नाम के कारण आप लोगों का अपमान किया जाये, तो अपने को धन्य समझें, क्योंकि यह इसका प्रमाण है कि ईश्वर का महिमामय आत्मा आप पर छाया रहता है।“ (1 पेत्रुस 4:13-14) परमपिता ईश्वर हमें इन रहस्त्यों को हृदय से ग्रहण करने की कृपा प्रदान करें।
✍फ़ादर फ्रांसिस स्करिया