चक्र - ब - वर्ष का बाईसवाँ सामान्य इतवार



पहला पाठ : विधि-विवरण 4:1-2, 6ब-8

1) इस्राएलियों मैं जिन नियमों तथा आदेशों की शिक्षा तुम लोगों को आज दे रहा हूँ, उन पर ध्यान दो और उनका पालन करो, जिससे तुम जीवित रह सको और उस देश में प्रवेश कर उसे अपने अधिकार में कर सको, जिसे प्रभु, तुम्हारे पूर्वजों का ईश्वर तुम लोगों को देने वाला है।

2) मैं जो आदेश तुम लोगों को दे रहा हूँ, तुम उन में न तो कुछ बढ़ाओ और न कुछ घटाओ। तुम अपने प्रभु-ईश्वर के आदेशों का पालन वैसे ही करो, जैसे मैं तुम लोगों को देता हूँ।

6ब) जब वे उन सब आदेशों की चर्चा सुनेंगे, तो बोल उठेंगे ’उस महान् राष्ट्र के समान समझदार तथा बुद्धिमान और कोई राष्ट्र नहीं है’।

7) क्योंकि ऐसा महान राष्ट्र कहाँ है, जिसके देवता उसके इतने निकट हैं, जितना हमारा प्रभु-ईश्वर हमारे निकट तब होता है जब-जब हम उसकी दुहाई देते हैं?

8) और ऐसा महान् राष्ट्र कहाँ है, जिसके नियम और रीतियाँ इतनी न्यायपूर्ण है, जितनी यह सम्पूर्ण संहिता, जिसे मैं आज तुम लोगों को दे रहा हूँ?


दूसरा पाठ : याकूब 1;17-18, 21ब-22, 27

17) सभी उत्तम दान और सभी पूर्ण वरदान ऊपर के हैं और नक्षत्रों के उस सृष्टिकर्ता के यहाँ से उतरते हैं, जिसमें न तो केाई परिवर्तन है और न परिक्रमा के कारण कोई अन्धकार।

18) उसने अपनी ही इच्छा से सत्य की शिक्षा द्वारा हम को जीवन प्रदान किया, जिससे हम एक प्रकार से उसकी सृष्टि के प्रथम फल बनें।

21ब) इसलिए आप लोग हर प्रकार की मलिनता और बुराई को दूर कर नम्रतापूर्वक ईश्वर का वह वचन ग्रहण करें, जो आप में रोपा गया है और आपकी आत्माओं का उद्धार करने में समर्थ है।

22) आप लोग अपने को धोखा नहीं दें। वचन के श्रोता ही नहीं, बल्कि उसके पालनकर्ता भी बनें।

27) हमारे ईश्वर और पिता की दृष्टि में शुद्ध और निर्मल धर्माचरण यह है- विपत्ति में पड़े हुए अनाथों और विधवाओं की सहायता करना और अपने को संसार के दूषण से बचाये रखना।


सुसमाचार : सन्त मारकुस का सुसमाचार 7:1-8,14-15, 21-23

1 फ़रीसी और येरुसालेम से आये हुए कई शास्त्री ईसा के पास इकट्ठे हो गये।

2) वे यह देख रहे थे कि उनके शिष्य अशुद्ध यानी बिना धोये हाथों से रोटी खा रहे हैं।

3) पुरखों की परम्परा के अनुसार फ़रीसी और सभी यहूदी बिना हाथ धोये भोजन नहीं करते।

4) बाज़ार से लौट कर वे अपने ऊपर पानी छिड़के बिना भोजन नहीं करते और अन्य बहुत-से परम्परागत रिवाज़ों का पालन करते हैं- जैसे प्यालों, सुराहियों और काँसे के बरतनों का शुद्धीकरण।

5) इसलिए फ़रीसियों और शास्त्रियों ने ईसा से पूछा, "आपके शिष्य पुरखों की परम्परा के अनुसार क्यों नहीं चलते? वे क्यों अशुद्ध हाथों से रोटी खाते हैं?

6) ईसा ने उत्तर दिया, "इसायस ने तुम ढोंगियों के विषय में ठीक ही भविष्यवाणी की है। जैसा कि लिखा है- ये लोग मुख से मेरा आदर करते हैं, परन्तु इनका हृदय मुझ से दूर है।

7) ये व्यर्थ ही मेरी पूजा करते हैं; और ये जो शिक्षा देते हैं, वे हैं मनुष्यों के बनाये हुए नियम मात्र।

8) तुम लोग मनुष्यों की चलायी हुई परम्परा बनाये रखने के लिए ईश्वर की आज्ञा टालते हो।"

14) ईसा ने बाद में लोगों को फिर अपने पास बुलाया और कहा, "तुम लोग, सब-के-सब, मेरी बात सुनो और समझो।

15) ऐसा कुछ भी नहीं है, जो बाहर से मनुष्य में प्रवेश कर उसे अशुद्ध कर सके; बल्कि जो मनुष्य में से निकलता है, वही उसे अशुद्ध करता है।

21) क्योंकि बुरे विचार भीतर से, अर्थात् मनुष्य के मन से निकलते हैं। व्यभिचार, चोरी, हत्या,

22) परगमन, लोभ, विद्वेष, छल-कपट, लम्पटता, ईर्ष्या, झूठी निन्दा, अहंकार और मूर्खता-

23) ये सब बुराइयाँ भीतर से निकलती है और मनुष्य को अशुद्ध करती हैं।

मनन-चिंतन

आज के पाठों का सन्देश है - मनुष्य की भलाई के लिये ईश्वर द्वारा प्रदत्त नियम। पहले पाठ में पिता ईश्वर नबी मूसा के द्वारा लोगों से कहते हैं कि प्रतिज्ञात देश में भली-भाँति प्रवेश करने एवं जीने के लिये उन्हें ईश्वर के द्वारा दिये हुए नियमों का पालन करना चाहिए है। उन नियमों का पालन करने से ईश्वर उनके करीब रहेगा। दूसरे पाठ में सन्त याकूब हमें बताते हैं कि विनम्रता से ईश्वर के वचन को ग्रहण करें व पालन करें जो आपकी आत्माओं को मुक्ति प्रदान करेगा। और सुसमाचार में प्रभु येसु फरीसियों और शास्त्रियों की निन्दा करते हैं जो ईश्वर के नियमों को भुलाकर स्वयं के द्वारा बनाये हुए नियमों से लोगों को गुमराह करते हैं।

ईश्वर ने पंचग्रन्थ (तौराह) में इस्रायलियों को कई नियम दिये हैं जिनमें से दस आज्ञाओं से हम भली-भाँति परिचित हैं। यहूदियों के पंचग्रन्थ पर आधारित ये सारे नियम संख्या में कुल 613 हैं जिनमें से 365 नियम निषेधाज्ञाओं के रूप में हैं और अन्य सकारात्मक आज्ञायें 248 हैं। निषेधाज्ञाओं में ऐसे नियम व आज्ञायें हैं जिनमें कुछ चीजें/कार्य करने से मना किया गया है। सकारात्मक आज्ञायें या नियम वे हैं जिनका पालन करना है और उन कार्यों को करना ज़रूरी है। फरीसियों और शास्त्रियों के अनुसार ये सारे नियम ईश्वर द्वारा प्रदत्त हैं और उनकी परम्परा उन्हें सिखाती है कि सभी को उनका पूर्ण रूप से पालन करना है और फरीसियों एवं शास्त्रियों को विशेष रूप से यह देखना है कि लोग उनका पालन भली-भाँति कर रहे हैं कि नहीं। यही कारण है कि आज के सुसमाचार में हम देखते हैं कि उन्हें यह बात अखरती है कि प्रभु येसु के शिष्य बिना हाथ धोये भोजन कर रहे थे।

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और बिना नियमों के हम एक सभ्य समाज की कल्पना भी नहीं कर सकते। हमारे चारों ओर हम नियमों से घिरे रहते हैं। स्कूली दिनों में स्कूल के नियम, बड़े होकर समाज के नियम, सरकार के नियम, धर्म के नियम, संस्कृति के नियम इत्यादि। अगर कोई व्यक्ति इनमें से किसी प्रकार के नियमों का पालन नहीं करता है तो वह समूह या समाज में रहने के योग्य नहीं है। इन सारे नियमों में सभी नियमों का कुछ न कुछ उद्देश्य है। अगर कोई नियम ऐसा है जिसका उद्देश्य लोगों को नहीं मालूम तो ऐसे नियमों का पालन करना व्यर्थ है। जिस नियम का उद्देश्य जिस क्षेत्र से है उस नियम का महत्व उसी क्षेत्र में है। उदाहरण के लिये स्कूल के नियमों की सार्थकता तभी है जब उनका पालन स्कूल के सन्दर्भ में किया जाये। अगर हम स्कूल के नियमों को संविधान के नियमों के सन्दर्भ में देखें अथवा धार्मिक क्षेत्र में लागू करें तो इसमें कोई सार्थकता नहीं रहेगी।

आज का पहला पाठ हमें समझाता है कि ईश्वर ने जो नियम हमें दिये हैं उनका उद्देश्य है कि हम अपना जीवन सफलतापूर्वक जियें और हम ईश्वर के और करीब आयें इतने करीब कि स्वयं गर्व हो और कहें ’’...ऐसा महान राष्ट्र कहाँ है, जिसके देवता उसके इतने निकट हैं, जितना हमारा प्रभु ईश्वर हमारे निकट है...’’ (विधि विवरण 4:7)। अतः ईश्वर के नियम हमें ईश्वर के करीब लाते हैं। और इसके विरूद्ध हम सोचें कि जो नियम हमें ईश्वर के करीब ना लायें ऐसे नियमों का पालन करने में क्या फायदा? प्रभु येसु को फरीसियों और शास्त्रियों से इसी बात पर आपत्ति है कि वे ईश्वर द्वारा दिये हुए नियमों का वास्तविक उद्देश्य भुलाकर स्वयं के बनाये नियमों पर ध्यान केन्द्रित करते हैं (देखें मारकुस 7:7-8)। उन्होंने बहुत सारे ऐसे नियम बनाये थे जिनका वास्तविक उद्देश्य ईश्वर के उद्देश्य से कोसों दूर था।

दूसरे शब्दों में, हम समझ सकते हैं कि नियम हमें ईश्वर के पास आने के योग्य बनाने में सहायक होने चाहिये। हम ईश्वर के पास आने के तभी योग्य होंगे जब हमारा हृदय पवित्र होगा (स्त्रोत्र ग्रन्थ 24:3-4अ)। जो हृदय के निर्मल हैं वे ही प्रभु के दर्शन कर पायेंगे (मत्ती 5:8)। प्रभु येसु भी यही चाहते हैं कि बाहरी पवित्रता से अधिक हमारे लिये आन्तरिक पवित्रता आवश्यक है (मारकुस 7:15) बाहर से अन्दर जाने वाली चीजें हमें अशुद्ध नहीं करती बल्कि हमारे मन के भाव, विचार आदि हमें अपवित्र बनाते हैं जिसके कारण हम ईश्वर से दूर हो जाते हैं(मारकुस 7:6ब)। आईये हम ईश्वर से कृपा माँगें कि हमारा एकमात्र उद्देश्य अपने आप को ईश्वर के योग्य बनाने का हो।

फ़ादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)


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