9) प्रभु-ईश्वर ने आदम से पुकार कर कहा, ''तुम कहाँ हो?''
10) उसने उत्तर दिया, ''मैं बगीचे में तेरी आवाज सुन कर डर गया, क्योंकि में नंगा हूँ और मैं छिप गया''।
11) प्रभु ने कहा, ''किसने तुम्हें बताया कि तुम नंगे हो? क्या तुमने उस वृक्ष का फल खाया, जिस को खाने से मैंने तुम्हें मना किया था?''
12) मनुष्य ने उत्तर दिया, ''मेरे साथ रहने कि लिए जिस स्त्री को तूने दिया, उसी ने मुझे फल दिया और मैंने खा लिया''।
13) प्रभु-ईश्वर ने स्त्री से कहा, ''तुमने क्या किया है?'' और उसने उत्तर दिया, ''साँप ने मुझे बहका दिया और मैंने खा लिया''।
14) तब ईश्वर ने साँप से कहा, ''चूँकि तूने यह किया है, तू सब घरेलू तथा जंगली जानवरों में शापित होगा। तू पेट के बल चलेगा और जीवन भर मिट्टी खायेगा।
15) मैं तेरे और स्त्री के बीच, तेरे वंश और उसके वंश में शत्रुता उत्पन्न करूँगा। वह तेरा सिर कुचल देगा और तू उसकी एड़ी काटेगा''।
13) धर्मग्रन्थ कहता है- मैंने विश्वास किया और इसलिए मैं बोला। हम विश्वास के उसी मनोभाव से प्रेरित हैं। हम विश्वास करते हैं और इसलिए हम बोलते हैं।
14) हम जानते हैं कि जिसने प्रभु ईसा को पुनर्जीवित किया, वही ईसा के साथ हम को भी पुनर्जीवित कर देगा और आप लागों के साथ हम को भी अपने पास रख लेगा।
15) सब कुछ आप लोगों के लिए हो रहा है, ताकि जिस प्रकार बहुतों में कृपा बढ़ती जाती है, उसी प्रकार ईश्वर की महिमा के लिए धन्यवाद की प्रार्थना करने वालों की संख्या बढ़ती जाये।
16) यही कारण है कि हम हिम्मत नहीं हारते। हमारे शरीर की शक्ति भले ही क्षीण होती जा रही हो, किन्तु हमारे आभ्यान्तर में दिन-प्रतिदिन नये जीवन का संचार होता रहता है;
17) क्योंकि हमारी क्षण भर की हलकी-सी मुसीबत हमें हमेशा के लिए अपार महिमा दिलाती है।
18) इसलिए हमारी आँखें दृश्य पर नहीं, बल्कि अदृश्य चीजों पर टिकी हुई हैं, क्योंकि हम जो चीजें देखते हैं, वे अल्पकालिक हैं। अनदेखी चीजें अनन्त काल तक बनी रहती है।
5:1) हम जानते हैं कि जब यह तम्बू, पृथ्वी पर हमारा यह घर, गिरा दिया जायेगा, तो हमें ईश्वर द्वारा निर्मित एक निवास मिलेगा। वह एक ऐसा घर है, जो हाथ का बना नहीं है और अनन्त काल तक स्वर्ग में बना रहेगा।
20) वे घर लौटे और फिर इतनी भीड़ एकत्र हो गयी कि उन लोगों को भोजन करने की भी फुरसत नहीं रही।
21) जब ईसा के सम्बन्धियों ने यह सुना, तो वे उन को बलपूर्वक ले जाने निकले; क्योंकि कहा जाता था कि उन्हें अपनी सुध-बुध नहीं रह गयी है।
22) येरुसालेम से आये हुए शास्त्री कहते थे, ’’उसे बेलजे़बुल सिद्ध है’’ और ’’वह नरकदूतों के नायक की सहायता से नरकदूतों को निकालता है’’।
23) ईसा ने उन्हें अपने पास बुला कर यह दृष्टान्त सुनाया, ’’शैतान शैतान को कैसे निकाल सकता है?
24) यदि किसी राज्य में फूट पड़ गयी हो, तो वह राज्य टिक नहीं सकता।
25) यदि किसी घर में फूट पड़ गयी हो, तो वह घर टिक नहीं सकता।
26) और यदि शैतान अपने ही विरुद्ध विद्रोह करे और उसके यहाँ फूट पड़ गयी हो, तो वह टिक नहीं सकता, और उसका सर्वनाश हो गया है।
27) ’’कोई किसी बलवान् के घर में घुस कर उसका सामान तब तक नहीं लूट सकता, जब तक कि वह उस बलवान् को न बाँध ले। इसके बाद ही वह उसका घर लूट सकता है।
28) ’’मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ- मनुष्य चाहे जो भी पाप या ईश-निन्दा करें, उन्हें सब की क्षमा मिल जायेगी;
29) परन्तु पवित्र आत्मा की निन्दा करने वाले को कभी भी क्षमा नहीं मिलेगी। वह अनन्त पाप का भागी है।’’
30) उन्होंने यह इसीलिए कहा कि कुछ लोग कहते थे, ’’उसे अपदूत सिद्ध है’’।
31) उस समय ईसा की माता और भाई आये। उन्होंने घर के बाहर से उन्हें बुला भेजा।
32) लोग ईसा के चारों ओर बैठे हुए थे। उन्होंने उन से कहा, ’’देखिए, आपकी माता और आपके भाई-बहनें, बाहर हैं। वे आप को खोज रहे हैं।’’
33) ईसा ने उत्तर दिया, ’कौन है मेरी माता, कौन हैं मेरे भाई?’’
34) उन्होंने अपने चारों ओर बैठे हुए लोगों पर दृष्टि दौड़ायी और कहा, ’’ये हैं मेरी माता और मेरे भाई।
35) जो ईश्वर की इच्छा पूरी करता है, वही है मेरा भाई, मेरी बहन और मेरी माता।’’
फिलिप्पियों 2:5-11 में संत पौलुस कहते हैं कि प्रभु येसु ने ईश्वर होते हुए भी, ईश्वर की बराबरी करने की क्षमता रखते हुए भी अपने आप को दीन-हीन बनाया। शायद हम इस प्रकार दीन-हीन बनने की जटिलता को सही ढ़ंग से नही समझ पाते हैं। आज का सुसमाचार हमें बताता है कि येसु इतने दीन-हीन बन गये कि लोग कहने लगे कि उन्हें अपनी सुध-बुध नहीं रह गयी है। (देखिए मारकुस 3:21) कुछ शास्त्री यह भी कहने लगे कि वे नरकदूतों के नायक बेलज़ेबुल की सहायता से ही नरकदूतों को निकाल रहे हैं। सोचने-समझने की कृपा मनुष्यों को प्रदान करने वाले साक्षात ईश्वर पर ही अपनी सुध-बुध खोने का इलज़ाम लगाया जाता है।
शैतानिक ताकतों को अपनी जान की कुर्बानी दे कर हराने हेतु इस दुनिया में आने वाले ईशपुत्र पर अपदूतों के नायक बेलज़ेबुल की सहायता से अपदूतों को निकालने का आरोप भी लगाया जाता है। हम अंदाजा लगा सकते हैं कि वास्तव में प्रभु येसु ने अपने को कितना दीन-हीन बनाया। क्या येसु इतने विवश थे कि उन आरोपों का खंडन नहीं पाते थे। नहीं, बल्कि वे अपने को दीन-हीन बना कर उन आरोपों को विनम्रता के साथ ग्रहण करते हैं। “वध के लिए ले जाये जाने वाले मेमने के सदृश” (यिरमियाह 11:19) वे सब कुछ सह लेते हैं।
मानव जाति में शायद ही ऐसे लोग होंगे जिन के ऊपर इस प्रकार के आरोप लगे हो। अगर ऐसे लोग भी हों, तब भी हम जानते हैं कि उन्होंने भी किसी-न-किसी प्रकार का पाप कभी न कभी तो किया होगा। येसु पर जिनके विषय में धर्मग्रन्थ ही साक्ष्य देता है कि उनके कोई पाप नहीं था इस प्रकार का आरोप लगाया जाना कितनी विचित्र बात है! संत पौलुस लिखते हैं, “मसीह का कोई पाप नहीं था। फिर भी ईश्वर ने हमारे कल्याण के लिए उन्हें पाप का भागी बनाया, जिससे हम उनके द्वारा ईश्वर की पवित्रता के भागी बन सकें” (2 कुरिन्थियों 5:21)। फिर भी येसु ने अपना संयम खोते बिना विनम्र बन कर उनके तक-वितर्क की अनुपयुक्तता तथा अनौचित्य से उन्हें अवगत कराते है।
जब हम येसु के जीवन पर दृष्टि डालते हैं, तब हमें पता चलता है कि येसु अतुलनीय रीति से दीन-हीन बन गये थे। उनकी माँ के गर्भ में ही वे गलत समझे जाते हैं। उन्हें अपना बचपन अपने गाँव से दूर मिस्र देश में बिताना पडता है। वहाँ उनके परिवार के ऊपर राजा के क्रोध का भय हमेशा मंडराता रहता है। वे अपने बाल्यकाल और किशोरावस्था नाज़ेरेथ के अपने गरीब परिवार में बिताते हैं। सभी प्राणियों के भोजन के प्रबंध करने वाले प्रभु कई बार भूखे प्यासे रहते हैं। तीस साल की आयु तक का समय वे एक अज्ञात जीवन बिताते हैं। छोटी उम्र में ही उनके पिता उनसे बिछुड जाते हैं। फिर वे तीस साल की आयु में अपने बपतिस्मा के बाद गाँव-गाँव घूम कर स्वर्गराज्य का सन्देश सुनाते हैं। जब एक दिन किसी व्यक्ति ने उनसे कहा, “आप जहाँ कहीं भी जायेंगे, मैं आपके पीछे-पीछे चलूँगा” तो उन्हें कहना पडा, “लोमडि़यों की अपनी माँदें हैं और आकाश के पक्षियों के अपने घोंसले, परन्तु मानव पुत्र के लिए सिर रखने को भी अपनी जगह नहीं है” (लूकस 9:58)। ऐसे एक व्यस्थ जीवन के अन्त में उन्हें झूठे आरोप लगा कर चार कचहरियों में खडा किया गया। उनके मुख पर थूका गया, उनके कपडे उतारे गये, उनकी हँसी उडायी गयी। अन्त में उन्हे एक तिरस्कृत कुकर्मी के समान क्रूस पर चढ़ाया गया। उनकी लाश को किसी दूसरे की कब्र में रखा गया। इस से अधिक कोई भी अपने को दीन-हीन कैसे बन सकते हैं। जब हमारे प्रभु सर्वशक्तिमान ईश्वर ही हमारे प्रति प्रेम से प्रेरित हो कर इतना दीन-हीन बनते है, तो हमें कितना अधिक विनम्र बन कर उनकी सेवा करनी चाहिए?
यह सब उन्हें हमें और सारी मानव जाति को शैतान की गुलामी से बचा कर मुक्ति प्रदान करने के लिए करना पडा। हमारे आदि माता-पिता ने ईश्वर की बराबरी करने की कोशिश की और पाप में फंस गये। परन्तु प्रभु येसु स्वयं ईश्वर होने के बावजूद भी ईश्वर की बराबरी न कर हमारे समक्ष दीन-हीन बनने का आदर्श प्रस्तुत करते हैं। क्या हम इस चुनौती को स्वीकार कर सकेंगे?
✍फादर फ्रांसिस स्करिया