25) जब पेत्रुस उनके यहाँ आया, तो करनेलियुस उस से मिला और उसने पेत्रुस के चरणों पर गिर कर उसे प्रणाम किया।
26) किंतु पेत्रुस ने उसे यह कहते हुए उठाया, ’’खड़े हो जाइए, मैं भी तो मनुष्य हूँ’’
34) पेत्रुस ने कहा, ’’मैं अब अच्छी तरह समझ गया हूँ कि ईश्वर किसी के साथ पक्ष-पात नहीं करता।
35) मनुष्य किसी भी राष्ट्र का क्यों न हो, यदि वह ईश्वर पर श्रद्धा रख कर धर्माचरण करता है, तो वह ईश्वर का कृपापात्र बन जाता हैं।
44) पेत्रुस बोल ही रहा था कि पवित्र आत्मा सब सुनने वालों पर उतरा।
45) पेत्रुस के साथ आये हुए यहूदी विश्वासी यह देख कर चकित रह गये कि गैर-यहूदियों को भी पवित्र आत्मा का वरदान मिला है;
46) क्योंकि वे गैर-यहूदियों को भिन्न-भिन्न भाषाएँ बोलते और ईश्वर की स्तुति करते सुन रहे थे। तब पेत्रुस ने कहा,
47) ’’इन लोगों को हमारे ही समान पवित्र आत्मा का वरदान मिला है, तो क्या कोई इन्हें बपतिस्मा का जल देने से इंकार कर सकता है?
48) और उसने उन्हें ईसा मसीह के नाम पर बपतिस्मा देने का आदेश दिया। तब उन्होंने पेत्रुस से यह कहते अनुरोध किया, ’’आप कुछ दिन हमारे यहाँ रहिए’’।
7) प्रिय भाइयो! हम एक दूसरे को प्यार करें, क्योंकि प्रेम ईश्वर से उत्पन्न होता है।
8) जौ प्यार करता है, वह ईश्वर की सन्तान है और ईश्वर को जानता है। जो प्यार नहीं करता, वह ईश्वर को नहीं जानता; क्येोंकि ईश्वर प्रेम है।
9) ईश्वर हम को प्यार करता है। यह इस से प्रकट हुआ है कि ईश्वर ने अपने एकलौते पुत्र को संसार में भेजा, जिससे हम उसके द्वारा जीवन प्राप्त करें।
10) ईश्वर के प्रेम की पहचान इस में है कि पहले हमने ईश्वर को नहीं, बल्कि ईश्वर ने हम को प्यार किया और हमारे पापों के प्रायश्चित के लिए अपने पुत्र को भेजा।
9) जिस प्रकार पिता ने मुझ को प्यार किया है, उसी प्रकार मैंने भी तुम लोगों को प्यार किया है। तुम मेरे प्रेम से दृढ बने रहो।
10) यदि तुम मेरी आज्ञओं का पालन करोगे तो मेरे प्रेम में दृढ बने रहोगे। मैंने भी अपने पिता की आज्ञाओं का पालन किया है और उसके प्रेम में दृढ बना रहता हूँ।
11) मैंने तुम लोगों से यह इसलिये कहा है कि तुम मेरे आनंद के भागी बनो और तुम्हारा आनंद परिपूर्ण हो।
12) मेरी आज्ञाा यह है जिस प्रकार मैंने तुम लोगो को प्यार किया, उसी प्रकार तुम भी एक दूसरे को प्यार करो।
13) इस से बडा प्रेम किसी का नहीं कि कोई अपने मित्रों के लिये अपने प्राण अर्पित कर दे।
14) यदि तुम लोग मेरी आज्ञाओं का पालन करते हो, तो तुम मेरे मित्र हो।
15) अब से मैं तुम्हें सेवक नहीं कहूँगा। सेवक नहीं जानता कि उसका स्वामी क्या करने वाला है। मैंने तुम्हें मित्र कहा है क्योंकि मैने अपने पिता से जो कुछ सुना वह सब तुम्हें बता दिया है।
16) तुमने मुझे नहीं चुना बल्कि मैंने तुम्हें इसलिये चुना और नियुक्त किया कि तुम जा कर फल उत्पन्न करो, तुम्हारा फल बना रहे और तुम मेरा नाम लेकर पिता से जो कुछ माँगो, वह तुम्हें वही प्रदान करे।
17) मैं तुम लोगों को यह आज्ञा देता हूँ एक दूसरे को प्यार करो।
प्रेम या प्यार एक ऐसा शब्द है जिसे हम कई बार सुनते और पढ़ते आये है परंतु यह शब्द पढ़ने या सुनने से समझ में नहीं आता परंतु यह शब्द अनुभव करने से ही समझ में आता है। इस प्रेम का कुछ अंश हम अपने परिवारों में अनुभव करते है, रिश्तेदारों में अनुभव करते है या दोस्ती में अनुभव करते है। उस सम्पूर्ण प्रेम का अनुभव हम तब कर पाते है जब हम प्रभु को पूर्ण रूप से जान जाते है। क्योंकि ईश्वर कोई और नहीं परंतु प्रेम है। ईश्वर ने इस संसार को प्रेम से बनाया, मनुष्यों को प्रेम से बनाया। उसी प्रेम से मनुष्य को आगे बढ़ाया और उसी प्रेम के कारण अपने इकलौते पुत्र को इस संसार के लिए अर्पित कर दिया।
अब तक हमने माता-पिता, भाई-बहन, दोस्तों के ही प्यार को अनुभव किया है परंतु इस सबसे ऊपर ईश्वर का प्रेम है जिसमें न तो कोई भेदभाव है न ईर्ष्या, न जलन। यह एक शुद्ध प्रेम है। जो प्रभु के प्रेम का अनुभव करता है वह अपने आप दूसरो को प्रेम करने लगता है। क्योकि प्रभु का प्रेम एक जल स्रोत की तरह है जो बहता रहता है।
प्रभु के प्रेम का अनुभव करने के लिए हमंे प्रभु को जानना होगा, प्रभु के वचनों को समझना होगा और उनकी आज्ञाआंे पर चलना होगा।
इस संसार में हम पाते है कि कुछ लोग अपने माता-पिता के बुजुर्ग हो जाने पर उनका ध्यान नहीं रखते या उन्हें वृद्धाआश्रम में छोड़ देते है। ये वे लोग होते है जिन्हांेने अपने माता-पिता के प्यार, उनके त्याग, बलिदान को कभी नहीं समझा। अगर हम भी प्रभु के त्याग, बलिदान और प्यार को नहीं समझेंगे तो हम भी प्रभु और दूसरों से केवल मतलबी या दिखावटी प्रेम ही करेंगे।
प्रभु के प्रेम ने बहुतों को बदल दिया। प्रभु के प्रेम ने समाज में तिरस्कृत लेवी और जकेयुस को नया जीवन दिया, प्रभु के प्रेम ने समारी स्त्री और पाप में पकड़ी गई स्त्री को बदल कर रख दिया, प्रभु के प्रेम ने पेत्रुस को पश्चाताप से भर कर उसके ह्दय को प्रेम से भर दिया। प्रभु के प्रेम ने शिष्यों और कई संतो को चुना और नियुक्त किया कि वे जा कर फल उत्पन्न करें।
हम प्रभु से अपने जरूरतों के लिए बहुत से चीजें मॉंगते है आज हम ईश्वर से प्रार्थना करें कि प्रभु हमें अपना प्रेम का अनुभव देे। यह प्रेम हमारे जीवन में एक नया बदलाव और परिवर्तन लायें। आमेन
✍फ़ादर डेनिस तिग्गाLove is the word which we might have heard and read about many times but we may not understand it by merely reading and hearing but it can be understood only by experiencing. We experience some fraction of love in our families, in relationships or in friendship. We experience the fullness of love when we recognize the Lord in fullness because God is none other than love itself. God has created this world, the humans with love; with that same love lead the human and with that same love gave his only begotten Son to the world.
Till now we have experienced only the love of our parents, brothers-sisters, friends and relatives but the love of God is above all this in which there is no partiality, no envy and jealousy. This is the real love. One who experience the love of God, he/she himelf/herself start loving others, because the love of God is like the water souce which keeps on flowing.
To experience the love of God we have to recognize the Lord, understand his words and have to live according to his commandments.
We see in this world that many do not take care of their parents when they become old or they leave them to oldage home. These are the people who have never understood the love, pain and sacrifices of their parents. If we too also do not understand the sacrifice, pain and love of the Lord then we will love God and others only superficially or for the benefits.
The love of God has changed many. Love of God has given new life to socially-rejected Levi and Zaccheaus, love of God has changed the Samaritan woman and the woman caught in adultery, love of God made Peter to realize his mistake and filled his heart with love, love of God has chosen the disciples and many saints and appointed them so that they can go and bear fruit.
We ask the Lord many things according to our needs; let’s ask today that we may experience His unconditional love. May the love of God bring new changes in our lives. Amen!
✍ -Fr. Dennis Tigga