1) प्रभु का आत्मा मुझ पर छाया रहता है, क्योंकि उसने मेरा अभिशेक किया है। उसने मुझे भेजा है कि मैं दरिद्रों को सुसमाचार सुनाऊँ, दुःखियों को ढारस बँधाऊँ; बन्दियों को छुटकारे का और कैदियों को मुक्ति का सन्देश सुनाऊँ;
2) प्रभु के अनुग्रह का वर्ष घोषित करूँ;
10) मैं प्रभु में प्रफुल्लित हो उठता हूँ, मेरा मन अपने ईश्वर में आनन्द मनाता है। जिस प्रकार वह याजक की तरह मौर बाँध कर और वधू आभूषण पहन कर सुशोभित होते हैं, उसी प्रकार प्रभु ने मुझे मुक्ति के वस्त्र पहनाये और मुझे धार्मिकता की चादर ओढ़ा दी है।
11) जिस प्रकार पृथ्वी अपनी फ़सल उगाती है और बाग़ बीजों को अंकुरित करता है, उसी प्रकार प्रभु-ईश्वर सभी राष्ट्रों में धार्मिकता और भक्ति उत्पन्न करेगा।
16) आप लोग हर समय प्रसन्न रहें,
17) निरन्तर प्रार्थना करते रहें,
18) सब बातों के लिए ईश्वर को धन्यवाद दें; क्योंकि ईसा मसीह के अनुसार आप लोगों के विषय में ईश्वर की इच्छा यही है।
19) आत्मा की प्रेरणा का दमन नहीं करें
20) और भविष्यवाणी के वरदान की उपेक्षा नहीं करें;
21) बल्कि सब कुछ परखें और जो अच्छा हो, उसे स्वीकार करें।
22) हर प्रकार की बुराई से बचते रहें।
23) शान्ति का ईश्वर आप लोगों को पूर्ण रूप से पवित्र करे। आप लोगों का मन, आत्मा तथा शरीर हमारे प्रभु ईसा मसीह के दिन निर्दोष पाये जायें।
24) ईश्वर यह सब करायेगा, क्योंकि उसने आप लोगों को बुलाया और वह सत्यप्रतिज्ञ है।
6) ईश्वर को भेजा हुआ योहन नामक मनुष्य प्रकट हुआ।
7) वह साक्षी के रूप में आया, जिससे वह ज्योति के विषय में साक्ष्य दे और सब लोग उसके द्वारा विश्वास करें।
8) वह स्वयं ज्यांति नहीं था; उसे ज्योति के विषय में साक्ष्य देना था।
19) जब यहूदियों ने येरुसालेम से याजकों और लेवियों को योहन के पास यह पूछने भेजा कि आप कोन हैं,
20) तो उसने यह साक्ष्य दिया- उसने स्पष्ट शब्दों में यह स्वीकार किया कि मैं मसीह नहीं हूँ।
21) उन्होंने उस से पूछा, ‘‘तो क्या? क्या आप एलियस हैं?’’ उसने कहा, ‘‘में एलियस नहीं हूँ’’। ‘‘क्या आप वह नबी हैं?’’ उसने उत्तर दिया, ‘‘नहीं’’।
22) तब उन्होंने उस से कहा, ‘‘तो आप कौन हैं? जिन्होंने हमें भेजा, हम उन्हें कौनसा उत्तर दें? आप अपने विषय में क्या कहते हैं?’’
23) उसने उत्तर दिया, ‘‘मैं हूँ- जैसा कि नबी इसायस ने कहा हैं- निर्जन प्रदेश में पुकारने वाले की आवाज़ः प्रभु का मार्ग सीधा करो’’।
24) जो लोग भेजे गये है, वे फ़रीसी थे।
25) उन्होंने उस से पूछा, ‘‘यदि आप न तो मसीह हैं, न एलियस और न वह नबी, तो बपतिस्मा क्यों देते हैं?’’
26) योहन ने उन्हें उत्तर दिया, ‘‘मैं तो जल में बपतिस्मा देता हूँ। तुम्हारे बीच एक हैं, जिन्हें तुम नहीं पहचानते।
27) वह मेरे बाद आने वाले हैं। मैं उनके जूते का फीता खोलने योग्य भी नहीं हूँ।’’
28) यह सब यर्दन के पास बेथानिया में घटित हुआ, जहाँ योहन बपतिस्मा देता था।
आज फिर से एक बार सुसमाचार संत योहन बपतिस्ता की भूमिका का वर्णन करता है। उन्हें प्रकाश के साक्षी के रूप में प्रस्तुत किया गया है। उन्होंने इस बात से साफ़ इनकार किया कि वे मसीह या एलिय्याह या नबी थे जिनके लिए इस्राएली लोग इंतज़ार कर रहे थे। तब उन्होंने अपनी पहचान "रेगिस्तान में पुकारने वाली आवाज: प्रभु के लिए मार्ग तैयार करो" उनकी राह सीधी करो।” के रूप में वर्णित की।
मनोवैज्ञानिकों के अनुसार जब कोई अपनी पहचान को सही ढंग से जानने लगता है, तब उसका आत्म-सम्मान बढ़ता है और उसकी चिंता कम होती है। कभी-कभी हम देखते हैं कि लोग दूसरों को प्रभावित करने तथा लोकप्रिय बनने के लिए खुद को गलत तरीके से पेश करते हैं। संत योहन बपतिस्ता एक विनम्र व्यक्ति थे। मसीह के विषय में योहन 3:30 में वे कहते हैं, "यह उचित है कि वे बढ़ते जायें और मैं घटता जाऊँ।"। वे लोगप्रियता नहीं चाहते थे। वे बस इस जीवन में उन्हें सौंपे गए कार्य को पूरा करना चाहते थे और वे उसे पूरा करके वे इस दुनिया से चले गये। इसलिए जब उनके श्रोताओं को लगा कि वे मसीह या एलिय्याह या नबी हैं, तब उन्होंने सीधे और सशक्त रूप से इनकार करते हुए कहा, "मैं नहीं हूँ"। इसके बजाय उन्होंने हमेशा खुद को प्रकाश के साक्षी के रूप में प्रस्तुत किया।
संत योहन बपतिस्ता की एक विशेषता यह है कि उन्होंने अपनी पहचान प्रभु मसीह के संबंध में प्रकट की। एक सच्चा ख्रीस्तीय विश्वासी हमेशा मसीह के संबंध में खुद को पहचानता है।
संत योहन बपतिस्ता खुद को "एक आवाज" कहता है। ऐसा नहीं कि उनकी एक आवाज़ थी, बल्कि यह कि वे ईश्वर की आवाज़ थे। उनका पूरा अस्तित्व लोगों को पश्चाताप करने और हृदय परिवर्तन करने के लिए रेगिस्तान में निमंत्रण देने वाले ईश्वर की आवाज़ है। प्रत्येक ख्रीस्तीय विश्वासी ईश्वर की आवाज़ है क्योंकि प्रत्येक विश्वासी ख्रीस्त को घोषित करने के लिए बुलाया गया है।
✍ - फादर फ्रांसिस स्करिया
Today once again the role of St. John the Baptist is described in the Gospel passage. He is presented as one who witnessed to the light. He denied that he was the Messiah or Elijah or the Prophet whom the Israelites awaited. Then he described his identity as “A voice of the one that cries in the desert: Prepare a way for the Lord. Make his paths straight.”
According to psychologists knowing one’s identity accurately increases self-esteem and reduces depression and anxiety. Sometimes we find people misrepresenting themselves to impress others and to become popular. St. John the Baptist was a humble man. Regarding Christ, in Jn 3:30 he says, “He must increase, but I must decrease”. He did not want limelight. He just wanted to complete the task entrusted to him in this life and then disappear from the scene. Therefore when his listeners thought he was the Messiah or Elijah or the prophet, he simply and emphatically said, “I am not”. Instead he always presented himself as one witnessing to the light, the light of Christ.
One of the specialties of St. John the Baptist is that he identified himself in relation to Christ. A true Christian always identifies himself/ herself in relation to Christ.
St. John the Baptist calls himself “a voice”. Not that he had a voice, but that he was the voice of God. His whole being is God’s voice in the desert calling people to repentance and conversion of heart. Every Christian is called upon to be the voice of God because every Christian is called to proclaim Christ.
✍ -Fr. Francis Scaria