14) हमें ईश्वर पर यह भरोसा है कि यदि हम उसकी इच्छानुसार उस से कुछ भी मांगते हैं, तो वह हमारी सुनता है।
15) यदि हम यह जानते हैं कि हम जो भी मांगे, वह हमारी सुनता है, तो हम यह भी जानते हैं कि हमने जो कुछ मांगा है, वह हमें मिल गया है।
16) यदि कोई अपने भाई को ऐसा पाप करते देखता है, जो प्राणघातक न हो, तो वह उसके लिए प्रार्थना करे और ईश्वर उसका जीवन सुरक्षित रखेगा। यह उन लोगों पर लागू है, जिनका पाप प्राणघातक नहीं है; क्योंकि एक पाप ऐसा भी होता है जो प्राणघातक है। उसके विषय में मैं नहीं कहता कि प्रार्थना करनी चाहिए।
17) हर अधर्म पाप है, किन्तु हर पाप प्राणघातक नहीं है।
18) हम जानते हैं कि ईश्वर की सन्तान पाप नहीं करती। ईश्वर का पुत्र उसकी रक्षा करता है और वह दुष्ट के वंश में नहीं आती।
19) हम जानते हैं कि हम ईश्वर के हैं, जबकि समस्त संसार दुष्ट के वश में है।
20) हम जानते हैं कि ईश्वर का पुत्र आया है और उसने हमें सच्चे ईश्वर को पहचानने का विवेक दिया है। हम सच्चे ईश्वर में निवास करते हैं; क्योंकि हम उसके पुत्र ईसा मसीह में निवास करते हैं। यही सच्चा ईश्वर और अनन्त जीवन है।
21) बच्चो! असत्य देवताओं से अपने को बचाये रखो।
22) इसके बाद ईसा अपने शिष्यों के साथ यहूदिया प्रदेश आये और वहाँ उनके साथ रहे। वे बपतिस्मा देते थे।
23) योहन भी सलीम के निकट एनोन में बपतिस्मा दे रहा था, क्योंकि वहाँ बहुत पानी था। लोग वहाँ आ कर बपतिस्मा ग्रहण करते थे।
24) योहन उस समय तक गिरफ़्तार नहीं हुआ था।
25) योहन के शिष्यों और यहूदियों में शुद्धीकरण के विषय में विवाद छिड़ गया।
26) उन्होंने योहन के पास जा कर कहा, "गुरुवर! देखिए, जो यर्दन के उस पार आपके साथ थे और जिनके विषय में आपने साक्ष्य दिया, वह बपतिस्मा देते हैं और सब लोग उनके पास जाते हैं"।
27) योहन ने उत्तर दिया, "मनुष्य को वही प्राप्त हो सकता हे, जो उसे स्वर्ग की ओर से दिया जाये।
28) तुम लोग स्वयं साक्षी हो कि मैंने यह कहा, ‘मैं मसीह नहीं हूँ’। मैं तो उनका अग्रदूत हूँ।
29) वधू वर की ही होती है; परन्तु वर का मित्र, जो साथ रह कर वर को सुनता है, उसकी वाणी पर आनन्दित हो उठता है। मेरा आनन्द ऐसा ही है और अब वह परिपूर्ण है।
30) यह उचित है कि वे बढ़ते जायें और मैं घटता जाऊँ।"
आज का सुसमाचार हमारे समक्ष योहन बप्तिस्ता की विनम्रता का चित्र प्रस्तुत करता है। वह ऐसे स्थान पर बपतिस्मा दे रहे थे जहाँ बहुत सारे लोगों का आना-जाना लगा रहता था, इसलिए उनके पास बहुत सारे लोग बपतिस्मा ग्रहण करने के लिए आते थे। वह उनके ज्वलंत शब्दों को सुनकर बेचैन हो जाते थे। ना केवल सन्त योहन के वचनों से बल्कि उनके सादा जीवन से भी बहुत अधिक प्रभावित होते थे। वह जो प्रवचन देते थे उसका अपने जीवन में पालन भी करते थे, इसलिए बहुत सारे लोग उनके वचन सुनने के लिए उमड़ पड़ते थे। उनके भी अनेक शिष्य थे, और कुछ लोगों ने तो उन्हें गुरुवर कहकर पुकारना भी शुरू कर दिया था। किसी भी व्यक्ति को इतना सम्मान और उपलब्धि मिलने के बाद उसके मन में घमण्ड और अहंकार का जन्म लेना स्वाभाविक है, जो बाद में घृणा एवं ईर्ष्या जैसी नकारात्मक भावनाओं को जन्म देते हैं।
लेकिन हम देखते हैं कि योहन बप्तिस्ता इस तरह की नकारात्मक शक्तियों से अछूते रहते हैं, उन्हें अपनी वास्तविक पहचान मालूम है। लोग उन्हें चाहे जैसे भी बुलाएँ या कैसा भी सम्मान दें, उन्हें यह अच्छी तरह मालूम था कि वह केवल ईश्वर के मेमने की ओर इंगित करने वाला चिन्ह मात्र था। लोग चिन्ह अथवा संकेत को ही अपनी मंज़िल ना समझ लें। इसलिए वह उन्हें याद दिलाते हैं, “मैं मसीह नहीं हूँ लेकिन उनके आगे भेजा हुआ दूत हूँ,,,वह बढ़ते जाएँ और मैं घटता जाऊँ।” क्या मैं स्वयं के सम्मान के लिए कार्य करता हूँ या ईश्वर की महिमा के लिए? क्या मैं चाहता हूँ कि मुझमें और मेरे परिवार में ईश्वर बढ़ता जाए?
✍ -फादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)
Today’s gospel witnesses before us about the humility of the John the Baptist. He was baptising in a place where lots of people could come, and so many people came to him and were baptised. They listened to his burning words that could stir their hearts. They were deeply impressed not only by his bold words but also by his life style. He practised what he preached and had always people around him to listen to him. He had a circle of disciples, some people even gave him the title of Rabbi. After getting such honour and achievement, pride and ego can creep in easily, which can give birth to other negative feelings like hatred and jealousy.
But we see John is untouched by these negative forces, he is well aware of his identity. Whatever people call him or in whichever way they treat him, he was well aware that he was only sign which indicated towards the lamb of God. People should not confuse the sign or indicator with the destination. So he reminds them “I am not messiah but I have been sent ahead of him…he must increase but I must decrease.” Do I seek self glory or glory of God? Do I want God to increase in me and my family?
✍ -Fr. Johnson B.Maria (Gwalior)