12) बच्चो! मैं तुम्हें इसलिए लिख रहा हूँ कि उनके नाम के कारण तुम्हारे पाप क्षमा किये गये हैं।
13) पिताओ! मैं तुम्हें इसलिए लिख रहा हूँ कि तुम उसे जानते हो, जो आदिकाल से विद्यमान है। युवको! मैं तुम्हें इसलिए लिख रहा हूँ कि तुमने दुष्ष्ट पर विजय पायी है।
14) बच्चो! मैं तुम्हें इसलिए लिख रहा हूँ कि तुम पिता को जानते हो। पिताओं! मैं तुम्हें इसलिए लिख रहा हूँ कि तुम उसे जानते हो, जो आदि काल से विद्यमान है।युवको! मैं तुम्हें इसलिए लिख रहा हूँ कि तुम शक्तिशाली हो। तुम में ईश्वर का वचन निवास करता है और तुमने दुष्ट पर विजय पायी है।
15) तुम न तो संसार को प्यार करो और न संसार की वस्तुओं को। जो संसार को प्यार करता है, उस में पिता का प्रेम नहीं।
16) संसार में जो शरीर की वासना, आंखों का लोभ और धन-सम्पत्ति का घमण्ड है वह सब पिता से नहीं बल्कि संसार से आता है।
17) संसार और उसकी वासना समाप्त हो रही है; किन्तु जो ईश्वर की इच्छा पूरी करता है, वह युग-युगों तक बना रहता है।
36) अन्ना नामक एक नबिया थी, जो असेर-वंशी फ़नुएल की बेटी थी। वह बहुत बूढ़ी हो चली थी। वह विवाह के बाद केवल सात बरस अपने पति के साथ रह कर
37) विधवा हो गयी थी और अब चैरासी बरस की थी। वह मन्दिर से बाहर नहीं जाती थी और उपवास तथा प्रार्थना करते हुए दिन-रात ईश्वर की उपासना में लगी रहती थी।
38) वह उसी घड़ी आ कर प्रभु की स्तुति करने और जो लोग येरुसालेम की मुक्ति की प्रतीक्षा में थे, वह उन सबों को उस बालक के विषय में बताने लगी।
39) प्रभु की संहिता के अनुसार सब कुछ पूरा कर लेने के बाद वे गलीलिया-अपनी नगरी नाज़रेत-लौट गये।
40) बालक बढ़ता गया। उस में बल तथा बुद्धि का विकास होता गया और उसपर ईश्वर का अनुग्रह बना रहा।
येसु मानवता के लिए ईश्वर का सबसे बड़ा उपहार है, क्योंकि वह ईश्वर का आत्म-उपहार है। फिर भी हमें यह उपहार स्वीकार करना होगा। एक उपहार तभी बहुत अच्छा होता है जब उसे पाने की लालसा होती है और जब वह वास्तव में प्रदान किया जाता है, तब उसे कृतज्ञता और खुशी के साथ पहचाना और स्वीकार किया जाता है। यह ठीक वैसा ही है जब यूसुफ और मरियम द्वारा बच्चे को मंदिर में लाया गया था। दो बुजुर्ग व्यक्ति थे - सिमयोन और अन्ना - जो उपवास और प्रार्थना के साथ मसीहा की प्रतीक्षा कर रहे थे। वे बेसब्री से मसीहा के आने का इंतजार कर रहे थे। जब येसु को मंदिर में प्रस्तुत किया गया तो उन्होंने उन्हं खुशी से पहचाना और मसीह के अपने अनुभव की घोषणा की। ये दो व्यक्ति ईश्वर के लिए मानव लालसा का प्रतिनिधित्व करते हैं। सिमयोन और अन्ना दोनों येसु के आने पर खुशी से अभिभूत थे। येसु को अपने आँखों से देख कर वे दोनों तृप्त हुए। इसीलिए सिमयोन ने कहा, "प्रभु, अब तू अपने वचन के अनुसार अपने दास को शान्ति के साथ विदा कर; क्योंकि मेरी आँखों ने उस मुक्ति को देखा है, जिसे तूने सब राष़्ट्रों के लिए प्रस्तुत किया है। यह ग़ैर-यहूदियों के प्रबोधन के लिए ज्योति है और तेरी प्रजा इस्राएल का गौरव।" (लूकस 2: 29-32)। बालक येसु को देखते ही सिमयोन भविष्यद्वाणी करने लगा और अन्ना प्रवचन देने लगी। हम येसु के आने पर उदासीन नहीं हो सकते। यह एक जबरदस्त अनुभव है जो खुशी और उद्घोषणा की मांग करता है।
✍ -फादर फ्रांसिस स्करिया
Jesus is God’s greatest gift to humanity, because He is God’s self-gift. Yet this gift has to be received. A gift is great when it is longed for and when it really arrives, it is recognised and accepted with gratefulness and joy. This is exactly what happens when the child Jesus was brought to the temple by Joseph and Mary. There were two elderly persons – Simeon and Anna - who have been waiting for the Messiah with fasting and prayer. They eagerly looked forward to the coming of the Messiah. When Jesus was presented in the temple they recognised him with joy and proclaimed their experience of the Messiah. These two individuals represent human longing for God. Both Simeon and Anna were overwhelmed with joy at the coming of Jesus. They had great fulfilment in their lives at the sight of child Jesus. That is why Simeon said, “Master, now you are dismissing your servant in peace, according to your word; for my eyes have seen your salvation, which you have prepared in the presence of all peoples, a light for revelation to the Gentiles and for glory to your people Israel.” (Lk 2:29-32). At the sight of Jesus Simeon began to prophesy and Anna began to preach. We cannot be indifferent at the coming of Jesus. It is an overwhelming experience which demands jubilation and proclamation.
✍ -Fr. Francis Scaria