19) येरूसालेम में रहने वाली सियोन की प्रजा! अब से तुम लोगों को रोना नहीं पड़ेगा। प्रभु तुम पर अवश्य दया करेगा, वह तुम्हारी दुहाई सुनते ही तुम्हारी सहायता करेगा।
20) प्रभु ने तुम्हें विपत्ति की रोटी खिलायी और दुःख का जल पिलाया है; किन्तु अब तुम्हें शिक्षा प्रदान करने वाला प्रभु अदृश्य नहीं रहेगा- तुम अपनी आँखों से उसके दर्शन करोगे।
21) यदि तुम सन्मार्ग से दायें या बायें भटक जाओगे, तो तुम पीछे से यह वाणी अपने कानों से सुनोगे-“सच्चा मार्ग यह है; इसी पर चलते रहो“।
22) तुम चाँदी से मढ़ी हुई अपने द्वारा गढ़ी गयी प्रतिमाओं को और सोने से मढ़ी हुई अपनी देवमूर्तियों को अपवित्र मानोगे। तुम उन्हें दूशित समझ कर फेंक दोगे और कहोगे “उन्हें यहाँ से निकाल दो“।
23) प्रभु तुम्हारे बोये हुये बीजों को वर्षा प्रदान करेगा और तुम अपने खेतों की भरपूर उपज से पुष्टिदायक रोटी खाओगे। उस दिन तुम्हारे चैपाये विशाल चारागाहों में चरेंगे।
24) खेत में काम करने वाले बैल और गधे, सूप और डलिया से फटकी हुई, नमक मिली हुई भूसी खयेंगे।
25) महावध के दिन, जब गढ़ तोड़ दिये जायेंगे, तो हर एक उत्तंुग पर्वत और हर एक ऊँची पहाड़ी से उमड़ती हुई जलधाराएँ फूट निकलेंगी।
26) जिस दिन प्रभु अपनी प्रजा के टूटे हुए अंगों पर पट्टी बाँधेगा और उसकी चोटों के घावों को चंगा करेगा, उस दिन चन्द्रमा का प्रकाश सूर्य की तरह होगा और सूर्य का प्रकाश- सात दिनों के सम्मिलित प्रकाश के सदृश-सतगुना प्रचण्ड हो उठेगा।
27) ईसा वहाँं से आगे बढ़े और दो अन्धे यह पुकारते हुये उनके पीछे हो लिए, "दाऊद के पुत्र! हम पर दया कीजिये"।
28) जब ईसा घर पहुँचे, तो ये अन्धे उनके पास आये। ईसा ने उन से पूछा, "क्या तुम्हें विश्वास है कि मैं यह कर सकता हूँ ? उन्होने कहा, "जी हाँ, प्रभु!
29) तब ईसा ने यह कहते हुए उनकी आँखों का स्पर्श किया, "जैसा तुमने विश्वास किया, वैसा ही हो जाये"।
30) उनकी आँखें अच्छी हो गयीं और ईसा ने यह कहते हुये उन्हें कड़ी चेतावनी दी, "सावधान! यह बात कोई न जानने पाये"।
31) परन्तु घर से निकलने पर उन्होंने उस पूरे इलाक़े में ईसा का नाम फैला दिया।