चक्र ’अ’ - वर्ष का इकत्तीसवाँ समान्य इतवार



पहला पाठ मलआकी का ग्रन्थ 1:14b-2, 2b, 8-10

14) विश्वमण्डल का प्रभु यह कहता है: मैं महान् राजा हूँ। राष्ट्रों में लोग मेरे नाम से डरते हैं।

1) याजको! मैं तुम्हें चेतावनी देता हूँ

2) यदि तुम नहीं सुनोगे, यदि तुम मेरे नाम का आदर करने का ध्यान नहीं रखोगे, तो - विश्वमण्डल का प्रभु यह कहाता है - मैं तुम्हें और तुम्हारी धन-सम्पत्ति को अभिशाप दूँगा।

8) तुम लोग भटक गये हो और अपनी शिक्षा द्वारा तुमने बहुत-से लोगों को विचलित कर दिया। विश्वमण्डल के प्रभु कहता है कि तुम लोगों ने लेवी का विधान भंग किया है।

9) तुमने मेरा मार्ग छोड़ दिया और अपनी शिक्षा में भेदभाव रखा है, इसलिए मैंने सारी जनता की दृष्टि में तुम्हें घृणित और तुच्छ बना दिया है।“

10) क्या हम सबों का एक ही पिता नहीं? क्या एक ही ईश्वर ने हमारी सृष्टि नहीं की? तो, अपने पूर्वजों का विधान अपवत्रि करते हुए हम एक दूसरे के साथ विश्वासघात क्यों करते हैं?

दूसरा पाठ : थेसलनीकियों के नाम सन्त पौलुस का पहला पत्र 2:7b-9,13

7) अपने बच्चों का लालन-पालन करने वाली माता की तरह हमने आप लोगों के साथ कोमल व्यवहार किया।

8) आपके प्रति हमारी ममता तथा हमारा प्रेम यहाँ तक बढ़ गया था कि हम आप को सुसमाचार के साथ अपना जीवन भी अर्पित करना चाहते थे।

9) भाइयो! आप को हमारा कठोर परिश्रम याद होगा। आपके बीच सुसमाचार का प्रचार करते समय हम दिन-रात काम करते रहे, जिससे किसी पर भार न डालें।

13) हम इसलिए निरन्तर ईश्वर को धन्यवाद देते हैं कि जब आपने इस से ईश्वर का सन्देश सुना और ग्रहण किया, तो आपने उसे मनुष्यों का वचन नहीं; बल्कि -जैसा कि वह वास्तव में है- ईश्वर का वचन समझकर स्वीकार किया और यह वचन अब आप विश्वासियों में क्रियाशील है।

सुसमाचार : सन्त मत्ती 23:1-12

1) उस समय ईसा ने जनसमूह तथा अपने शिष्यों से कहा,

2) ’’शास्त्री और फरीसी मूसा की गद्दी पर बैठे हैं,

3) इसलिए वे तुम लोगों से जो कुछ कहें, वह करते और मानते रहो; परंतु उनके कर्मों का अनुसरण न करो,

4) क्योंकि वे कहते तो हैं, पर करते नहीं। वे बहुत-से भारी बोझ बाँध कर लोगों के कन्धों पर लाद देते हैं, परंतु स्वंय उँगली से भी उन्हें उठाना नहीं चाहते।

5) वे हर काम लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए करते हैं। वे अपने तावीज चैडे़ और अपने कपड़ों के झब्बे लम्बे कर देते हैं।

6) भोजों में प्रमुख स्थानों पर और सभागृहों में प्रथम आसनों पर विराजमान होना,

7) बाज़ारों में प्रणाम-प्रणाम सुनना और जनता द्वारा गुरुवर कहलाना- यह सब उन्हें बहुत पसन्द है।

8) ’’तुम लोग ’गुरुवर’ कहलाना स्वीकार न करो, क्योंकि एक ही गुरू है और तुम सब-के-सब भाई हो।

9) पृथ्वी पर किसी को अपना ’पिता’ न कहो, क्योंकि तुम्हारा एक ही पिता है, जो स्वर्ग में है।

10 ’आचार्य’ कहलाना भी स्वीकार न करो, क्योंकि तुम्हारा एक ही आचार्य है अर्थात् मसीह।

11) जो तुम लोगों में से सब से बड़ा है, वह तुम्हारा सेवक बने।

12) जो अपने को बडा मानता है, वह छोटा बनाया जायेगा। और जो अपने को छोटा मानता है, वह बडा बनाया जायेगा।

मनन-चिंतन

धार्मिक नेताओं का जीवन एक चुनौतीपूर्ण जीवन होता है। उन्हें लोगों को ईश्वर की शिक्षा प्रदान करना तथा अपने योग्य आचरण से उस शिक्षा की प्रमाणिकता को सिद्ध करना होता है। जनता में उनके सदव्यवहार से प्रेरणा तथा उत्साह का संचार होता है। जनसामान्य की आस्था इनके व्यवहार एवं मार्गदर्शन पर टिकी होती है। लेकिन जब ये धार्मिक नेता अपने मार्ग से भटक कर गलत रास्ते पर प्रशस्त होते हैं तो समस्त राष्ट्र ही भटक जाता है। लोगों में ईश्वर के प्रति श्रद्धा एवं भक्ति का हास होता है। सुसमाचार की वाणी इस स्थिति को उपयुक्त रूप से व्यक्त करती है, ’’इसलिए जो ज्योति तुम में है, यदि वही अंधकार है, तो यह कितना घोर अंधकार होगा!’’ (मत्ती 6:23) इस प्रकार धार्मिक नेताओं का निंदनीय व्यवहार अनेकों के लिए पाप का कारण बनता है। इस्राएल में धार्मिक नेताओं की श्रेणी में याजकगण एवं तथाकथित नबी आते थे।

प्रभु येसु के समय इस्राएल के कई धार्मिक नेता पथभ्रष्ट थे। वे लोगों को शिक्षा तो दिया करते थे किन्तु उनका व्यक्तिगत जीवन अशोभनीय एवं निंदनीय था। वे धर्म का इस्तेमाल अपने व्यक्तिगत स्वार्थों की पूर्ति के लिए कर रहे थे तथा लोगों को गलत उदाहरण दे रहे थे। ईश्वर की दृष्टि में यह घोर पाप था। ऐसे धार्मिक नेताओं को प्रभु येसु भीषण परिणाम की चेतावनी देते हुए कहते हैं, “जो मुझ पर विश्वास करने वाले उन नन्हों में एक के लिए भी पाप का कारण बनता है, उसके लिए अच्छा यही होता कि उसके गले में चक्की का पाट बाँधा जाता और वह समुद्र में डुबा दिया जाता।” (मत्ती 18:6) उनके दोहरे तथा झूठे धार्मिक व्यवहार पर प्रभु कहते हैं, “ये लोग मुख से मेरा आदर करते हैं, परन्तु इनका हृदय मुझ से दूर है। ये व्यर्थ ही मेरी पूजा करते हैं और ये जो शिक्षा देते हैं, वह है मनुष्यों के बनाए हुए नियम मात्र।” (मत्ती 15:8-9)

पहले पाठ में नबी मलआकी भी ऐसे छदम् नेताओं को उनके दोषपूर्ण जीवन को सुधारने के लिए चेतावनी देते हैं, “हे याजको! मैं तुम्हें चेतावनी देता हूँ। .... तुम लोग भटक गये हो और अपनी शिक्षा द्वारा तुमने बहुत से लोगों को विचलित कर दिया।” (मलआकी 2:1) नबी एजेकिएल के द्वारा ईश्वर कठोर शब्दों का प्रयोग करते हैं, “चरवाहो! प्रभु-ईश्वर यह कहता है! धिक्कार इस्राएल के चरवाहों को! वे केवल अपनी देखभाल करते हैं। क्या चरवाहों को झुण्ड की देखवाल नहीं करनी चाहिए। तुम भेड़ों का दूध पीते हो, उनका ऊन पहनते और मोटे पशुओं का वध करते हो, किन्तु तुम भेड़ों को नहीं चराते। तुमने कमजोर भेड़ों को पौष्टिक भोजन नहीं दिया, बीमारों को चंगा नहीं किया, घायलों के घावों पर पटटी नहीं बाँधी, भूली-भटकी हुई भेड़ों को नहीं लौटा लाये और जो खो गयी थीं, उनका पता नहीं लगाया। तुमने भेड़ों के साथ निर्दय और कठोर व्यवहार किया है। वे बिखर गयी, क्योंकि उन को चराने वाला कोई नहीं रहा और वे बनैले पशुओं को शिकार बन गयीं। मेरी भेड़ें सब पर्वतों और ऊँची पहाडियों पर भटकती फिरती हैं, वे समस्त देश में बिखर गयी हैं, और उनकी परवाह कोई नहीं करता, उनकी खोज में कोई नहीं निकलता।” (एजेकिएल 34:2-6)

धार्मिक नेताओं के दयनीय एवं दोषपूर्ण व्यवहार तथा कर्तव्यों के प्रति उनकी घोर लापरवाही के कारण ईश्वर स्वयं अपनी प्रजा, अपनी भेडों के लिए सांत्वना भेजते हैं। “मैं स्वयं अपनी भेड़ों को सुध लूँगा और उनकी देखभाल करूँगा। भेड़ों के भटक जाने पर जिस तरह गडेरिया उनका पता लगाने जाता है, उसी तरह में अपनी भेडें खोजने जाऊँगा। कुहरे और अँधेरे में जहाँ कहीं वे तितर-बितर हो गयी हैं, मैं उन्हें वहाँ से छुडा लाऊँगा। मैं उन्हें राष्ट्रों में से निकाल कर और विदेशों से एकत्र कर उनके अपने देश में लौटा लाऊँगा। मैं उन्हें इस्राएल के पहाड़ों पर, घाटियों में और देश भर के बसे हुए स्थानों पर चाराऊँगा। मैं उन्हें अच्छे चरागाहों में ले चलूँगा। वे इस्राएल के पर्वतों पर चरेंगी। वहाँ वे अच्छे चरागाहों में विश्राम करेंगी और इस्राएल के पर्वतों की हरी-भरी भूमि में चरेगी। प्रभु कहता है - मैं स्वयं अपने भेड़ें चराऊँगा और उन्हें विश्राम करने की जगह दिखाऊँगा। जो भेड़ें खो गयी हैं, मैं उन्हें खोज निकालूँगाय जो भटक गयी हैं, मैं उन्हें लौटा लाऊँगाय घायल हो गयी हैं, उनके घावों पर पट्टी बाँधूगा, जो बीमार हैं, उन्हें चंगा करूँगा, जो मोटी और भली-चंगी हैं, उनकी देखरेख करूँगा। मैं उनका सच्चा चरवाहा होऊँगा।’’ तब वे यह समझ जायेंगी कि मैं, उनका प्रभु-ईश्वर, उनके साथ हूँ और कि वे, इस्राएल का घराना, मेरी प्रजा हैं। ... तुम्हीं मेरे भेड़ें हो- मेरे चरागाह की भेड़ें और मैं तुम्हारा ईश्वर हूँ।” (एज़ेकिएल “34:11-16, 30-31)

प्रभु जानते हैं कि मनुष्य कितना भी परिपक्व क्यों न हो वह कमजोर तथा त्रुटीपूर्ण हैं, इसलिए प्रभु येसु लोगों से केवल ईश्वर का अनुसरण करने को कहते हैं। “तुम्हारा एक ही गुरु है...तुम्हारा एक ही पिता है तथा एक ही आचार्य है अथार्त मसीह।” (मत्ती 23:8-10) पिता स्वयं अपने पुत्र ईसा मसीह में हमारे लिए नबियों द्वारा घोषित एवं प्रतिज्ञात सच्चा एवं भला चरवाहा भेजते हैं। ऐसा चरवाहा जो परिपूर्ण एवं परिपक्व है। ऐसा चरवाहा जो, ’जीवन देने तथा उस जीवन को परिपूर्णता तक ले जाने वाला है।’ (योहन 10:10) ऐसा चरवाहा जो अपनी भेडों को त्यागता नहीं है बल्कि उनके लिए अपने प्राण अर्पित कर देता है।’ (देखिए योहन 10:11-15)

हमें भी अपने जीवन एवं ख्रीस्तीय विश्वास को केवल ईश्वर के वचनों पर आधारित करना चाहिए। हमारे धार्मिक नेताओं का मानवीय व्यवहार हमें सकारात्मक तथा नकारात्मक दोनों ही रूपों में प्रभावित करता है किन्तु यह हमारे विश्वास का निर्धारक कभी नहीं बनना चाहिए। हमारे वर्तमान समाज में भी हम ऐसी ही रिक्तता एवं निदंनीय धार्मिक व्यवहारों को देखते हैं। इससे हमें दुखी होना चाहिए, किन्तु कभी भी निराश और हताश नहीं। क्योंकि प्रभु ने स्वयं हमें सिखलाया है कि केवल ईश्वर ही हमारा सच्चा एवं परिपूर्ण, गुरुवर, पिता तथा आचार्य हैं। उन्हीं पर हमारा जीवन तथा विश्वास निर्भर करता है। प्रभु कभी भी हमें निराश नहीं करते हैं।

- फादर रोनाल्ड वाँन

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