20) तुम लोग परदेशी के साथ अन्याय मत करो, उस पर अत्याचार मत करो, क्योंकि तुम भी मिस्र देश में परदेशी थे।
21) तुम विधवा अथवा अनाथ के साथ दुर्व्यवहार मत करो।
22) यदि तुम उनके साथ दुर्व्यवहार करोगे और वे मेरी दुहाई देंगे, तो मैं उनकी पुकार सुनूँगा
23) और मेरा क्रोध भड़क उठेगा। मैं तुम को तलवार के घाट उतरवा दूँगा और तुम्हारी पत्नियाँ विधवा और बच्चे अनाथ हो जायेंगे।
24) ''यदि तुम अपने बीच रहने वाले किसी दरिद्र देश-भाई को रुपया उधार देते हो, तो सूदखोर मत बनो - तुम उस से ब्याज मत लो।
25) यदि तुम रहने के तौर पर किसी की चादर लेते हो, तो सूर्यास्त से पहले उसे लौटा दो;
26) क्योंकि ओढ़ने क लिए उसके पास और कुछ नहीं है। वह उसी से अपना शरीर ढक कर सोता है। यदि वह मेरी दुहाई देगा, तो मैं उसकी सुनूँगा, क्योंकि मैं दयालु हूँ।
5) आप लोग जानते हैं कि आपके कल्याण के लिए हमारा आचरण आपके यहाँ कैसा था।
6) आप लोगों ने हमारा तथा प्रभु का अनुसरण किया और घोर कष्टों का सामना करते हुए पवित्र आत्मा की प्रेरणा से आनन्दपूर्वक सुसमाचार स्वीकार किया।
7) इस प्रकार आप मकेदूनिया तथा अखै़या के सब विश्वासियों के लिए आदर्श बन गये।
8) आप लोगों के यहाँ से प्रभु का सुसमाचार न केवल मकेदूनिया तथा अखैया में फैला, बल्कि ईश्वर में आपके विश्वास की चर्चा सर्वत्र हो रही है। हमें कुछ नहीं कहना है।
9) लोग स्वयं हमें बताते है। कि आपके यहाँ हमारा कैसा स्वागत हुआ और आप किस प्रकार देवमूर्तियाँ छोड़ कर ईश्वर की ओर अभिमुख हुए,
10) जिससे आप सच्चे तथा जीवन्त ईश्वर के सेवक बनें और उसके पुत्र ईसा की प्रतीक्षा करें, जिन्हें ईश्वर ने मृतकों में से जिलाया। यही ईसा स्वर्ग से उतरेंगे और हमें आने वाले प्रकोप से बचायेंगे।
34) जब फरीसियों ने यह सुना कि ईसा ने सदूकियों का मुँह बन्द कर दिया था, तो वे इकट्ठे हो गये।
35) और उन में से एक शास्त्री ने ईसा की परीक्षा लेने के लिए उन से पूछा,
36) गुरुवर! संहिता में सब से बड़ी आज्ञा कौन-सी है?’’
37) ईसा ने उस से कहा, ’’अपने प्रभु-ईश्वर को अपने सारे हृदय, अपनी सारी आत्मा और अपनी सारी बुद्धि से प्यार करो।
38) यह सब से बड़ी और पहली आज्ञा है।
39) दूसरी आज्ञा इसी के सदृश है- अपने पड़ोसी को अपने समान प्यार करो।
40) इन्हीं दो आज्ञायों पर समस्त संहिता और नबियों की शिक्षा अवलम्बित हैं।’’
आज के पवित्र पाठों में हमारे विश्वास के सबसे मौलिक आज्ञाओं के बारे में बताये गए हैं। वे प्रेम की प्रधानता के बारे में बोलते हैं - ईश्वर के प्रति प्रेम और अपने पड़ोसियों के प्रति प्रेम।
पहला पाठ गरीबों को प्यार करने की बात करता है। ईश्वर का गरीब लोगों के प्रति विशेष प्रेम है। इसलिए ईश्वर माँग करता है कि हम गरीब, पराये, पददलितों के साथ प्रेमपूर्ण व्यवहार करें।
आज का अनुवाक्य शक्ति और सुरक्षा के स्रोत के रूप में ईश्वर की महिमा करता है। भजनकार एक महान योद्धा और रक्षक के रूप में ईश्वर का वर्णन करता है। परमेश्वर उन लोगों के शत्रुओं पर बल और विजय का स्रोत है, जो उन पर भरोसा करते हैं। सच्चे विश्वासी अपना जीवन ईश्वर के नियंत्रण में छोड़ देते है ।
आज का दूसरा पाठ ईश्वर के वचन से प्रेम करने और उसे जीवन में फैलाने की बात करता है। संत पौलुस ने थेसालोनिका के लोगों को संबोधित करते हुए उनसे आग्रह किया कि वे विश्वास के कार्यों को जारी रखें जो उन्होंने पहले ही शुरू कर दिया है: मूर्तिपूजा से दूर होकर एक दूसरे की देखभाल करना।
सुसमाचार प्रेम की सबसे बड़ी आज्ञा के बारे में बात करता है। येसु उन को फंसाने के उद्देश्य से फरीसियों द्वारा किए गए एक सवाल का जवाब देता है । येसु मूसा द्वारा दिए गए सभी कानून और उनके विश्लेषणों को दो वाक्यांशों में सारांशित करता है: ईश्वर के प्रति पूर्ण और सम्पूर्ण प्रेम जो दूसरों के प्रति प्रेम का स्रोत बनता है।
येसु का कानून और आदेशों का सारांश वास्तव में वह मापदंड है जिसके द्वारा हमें कार्य करना चाहिए। हमें यह देखना चाहिए कि हमारे कार्य ईश्वर के लिए हमारे पूर्ण और कुल प्रेम को कैसे प्रकट करते हैं और दूसरों की देखभाल के लिए हमारे विवेकपूर्ण निर्णय। येसु का अनुयायी होना का मतलब है कि हम उनके समान ईश्वर को और दूसरों को प्यार करें।
कई लोग प्यार को सिर्फ एक सुखद भावना मानते हैं। लेकिन प्रेम, जैसा कि बाइबिल में वर्णित है, दूसरों के साथ होने और उनके हित कार्य करने का एक निर्णय है। प्रेम का उच्चतम रूप दूसरे के लिए पूरी तरह से स्वयं को समर्पित करना है। दूसरों के लिए एक का जीवन देना पड़ोसी प्रेम का सबसे बड़ा उदाहरण है। ठीक यही येसु ने अपने मानव बनने और हमारे बीच रहने के द्वारा किया था। हमारे प्रति उनके प्रेम के कारण वह क्रूस पर बलि बन गयी।
कई लोगों के लिए विश्वास और आध्यात्मिकता केवल उनका और ईश्वर का सम्बन्ध है। यह केवल "मैं और येसु" मनोभाव जिसमें अन्य लोग और उनकी ज़रूरतें शामिल नहीं है सच्चा विश्वास और सच्ची आध्यात्मिकता नहीं है। ईश्वर और मनुष्य - दोनों के प्रति संबंधों का संतुलन बनाये रखना है।
बेशक, ईश्वर के प्रति प्रेम की एक प्राथमिकता है। यह न केवल इस तथ्य को दर्शाता है कि हमंा हमेशा अपने जीवन में अन्य सभी चीजों से पहले ईश्वर के प्यार को स्थान देना चाहिए, बल्कि, एक निश्चित तरीके से, इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि हम ईश्वर से प्यार करने से जो ताकत प्राप्त करते हैं उसी से हमें अपने पड़ोसियों से खुद की तरह प्यार करने की ताकत मिलती है। ईश्वर की कृपा और अनुग्रह के बिना हम उनके जैसे प्यार नहीं कर सकते हैं। येसु कहता है, "मेरे बिना तुम कुछ नहीं कर सकते," तो विशेष रूप से, उसके बिना हम उसे और उसके जैसे प्यार नहीं कर सकते।
ईसाई समुदाय प्रेम का समुदाय है। प्यार के बिना दूसरों के साथ संबंध स्थापित करना असंभव है। प्रेम के बिना हम कलीसिया की सेवा नहीं कर सकते, गरीबों और शोषितों की रक्षा नहीं कर सकते हैं, बिना प्रेम के हम अत्याचारियों में बदल सकते हैं, बिना प्रेम के कोई उद्धार नहीं।
पवित्र यूखरिस्त प्रेम का संस्कार है। पवित्र यूखरिस्त में भागीदारी इसका संकेत है कि हम ईश्वर से प्यार करते हैं और हम अपने पड़ोसियों और गरीबों की जिम्मेदारी लेते हैं। यह प्यार करने वालों का संस्कार है।
ईश्वर आज के पाठों के द्वारा हम लोगों को प्यार करने की चुनौती देते है । अपने आप से पूछें: क्या आप एक प्यार करने वाले व्यक्ति हैं? क्या आपका विश्वास का मतलब केवल आप और ईश्वर के बीच सम्बन्ध है? आप अपने पडोसी को कैसे देखते हैं? उनके प्रति आपका क्या दृष्टिकोण है? क्या आप स्वयं एक अच्छे पड़ोसी हैं?
✍ - फादर जोली जोन (इन्दौर धर्मप्रांत)
Today’s readings speak about the most fundamental laws that must guide our life of faith. They speak about the primacy of Love – love of God and love of one’s neighbours as oneself.
The first reading talks about loving the poor. God has a special love for the poor people. Therefore God demands that we show love to the poor, the alien, the stranger.
The responsorial psalm proclaims God as source of strength and protection. The psalmist describes God in terms of a great warrior and defender. God is the source of strength and the victor over the enemies of those who trust in the Lord. For the true believer, God is in control and the only thing that the believer must do is to acknowledge the supremacy of God.
The second reading talks about loving the word of God and spreading it through life. St. Paul addresses the people of Thessalonika urging them to continue the acts of faith which they have already begun: turning away from idolatrous worship and caring for one another.
The gospel talks about the greatest commandment of love. In the Gospel, Jesus responds to a tricky question posed by the Pharisees. Jesus generalizes and summarizes all the Mosaic Law into two phrases: Complete and total love of God which flows into love and concern for others.
Jesus’ summary of the law and commands is truly the measuring stick by which we must act. We must look at how our actions manifest our complete and total love for God and our conscientious decision to care for others. Being a follower of Jesus is an invitation to act like our God Who is Love.
Many consider love as just a pleasurable feeling. But love, as described throughout scriptures, is a decision to do and be for another. The highest form of love is giving totally of one’s self for another. And giving of one’s life for another person is the greatest example of love of neighbour. That is exactly what Jesus did in His becoming human and living among us. It resulted in His death. Yet Jesus made the decision to do all He could so that people would come to know the great love God has for them and they in turn would share that message with others.
A “me and Jesus” Christianity that does not include the service of the People of God (and all others in need) is not a true Christianity that is consistent with the Judeo-Christian tradition. The Lord Jesus invites us to strike a right balance between the two.
There is, of course, a logical priority to the First. It not only concerns the obvious fact that we should always place the Love of God before all other things in our lives, but, in a certain way, more importantly, the strength that we receive from loving God and being loved by Him is precisely where we get the strength to love our neighbors as ourselves. We cannot love the way that the Lord Jesus calls us to love without His grace and His strength. If “without Me you can do nothing,” then in particular, without Him we cannot love as He calls us to. Let us place Him first and plead with Him for the grace to love others, even as He has loved us!
Christian community is a community of love. Without love it is impossible to establish relationship with others. Without love we cannot serve the Church, defend the poor and the oppressed, without love we can turn into oppressors, without love there no salvation.
The Eucharist is the sacrament of love. Participation in the Eucharist is a sign that we love God and we take responsibility for the neighbour/poor. It is the sacrament of those who love.
Today we are challenged to be loving people. Ask yourself: Are you a loving person? Is your faith limited to the relation between you and God? How do you view your neigbour? What is your attitude towards them? Are you a good neighbour?
✍ -Fr. Jolly John (Indore Diocese)