चक्र ’अ’ - वर्ष का उन्तीसवाँ समान्य इतवार



📒 पहला पाठ :इसायाह का ग्रन्थ 45:1, 4-6

1) प्रभु ने अपने अभिषिक्त सीरुस का दाहिना हाथ सँभाला है। उसने राष्ट्रों को सीरुस के अधीन कर दिया और राजाओं के शस्त्र ले लिये। प्रभु ने उसके लिए फाटकों को तोड़ दिया। अब उसके सामने कोई भी द्वार बन्द नहीं रहा। प्रभु उसी सीरुस से यह कहता है-

4) मैंने अपने सेवक याकूब तथा अपने कृपापात्र इस्राएल के कारण तुम को नाम ले कर बुलाया और महान् बना दिया है, यद्यपि तुम मुझे नहीं जानते।

5) मैं ही प्रभु हूँ, कोई दूसरा नहीं है; मेरे सिवा कोई अन्य ईश्वर नहीं। यद्यपि तुम मुझे नहीं जानते, तो भी मैंने तुम्हें शस्त्र प्रदान किये,

6) जिससे पूर्व से पश्चिम तक सभी लोग यह जान जायें कि मेरे सिवा कोई दूसरा नहीं। मैं ही प्रभु हूँ, कोई दूसरा नहीं।

📕 दूसरा पाठ: थेसलनीकियों के नाम सन्त पौलुस का पहला पत्र 1:1-5b

1) पिता-परमेश्वर और प्रभु ईसा मसीह पर आधारित थेसलनीकियों की कलीसिया के नाम पौलुस, सिल्वानुस और तिमथी का पत्र। आप लोगों को अनुग्रह तथा शान्ति!

2 (2-3) जब-जब हम आप लोगों को अपनी प्रार्थनाओं में याद करते हैं, तो हम हमेशा आप सब के कारण ईश्वर को धन्यवाद देते है। आपका सक्रिय विश्वास, प्रेम से प्रेरित आपका परिश्रम तथा हमारे प्रभु ईसा मसीह पर आपका अटल भरोसा- यह सब हम अपने ईश्वर और पिता के सामने निरन्तर स्मरण करते हैं।

4) भाइयो! ईश्वर आप को प्यार करता है। हम जानते हैं कि ईश्वर ने आप को चुना है,

5) क्योंकि हमने निरे शब्दों द्वारा नहीं, बल्कि सामर्थ्य, पवित्र आत्मा तथा दृढ़ विश्वास के साथ आप लोगों के बीच सुसमाचार का प्रचार किया। आप लोग जानते हैं कि आपके कल्याण के लिए हमारा आचरण आपके यहाँ कैसा था।

📙 सुसमाचार : सन्त मत्ती 22:15-21

15) उस समय फरीसियों ने जा कर आपस में परामर्श किया कि हम किस प्रकार ईसा को उनकी अपनी बात के फन्दे में फँसायें।

16) इन्होंने ईसा के पास हेरोदियों के साथ अपने शिष्यों को यह प्रश्न पूछने भेजा, ’’गुरुवर! हम यह जानते हैं कि आप सत्य बोलते हैं और सच्चाई से ईश्वर के मार्ग कि शिक्षा देते हैं। आप को किसी की परवाह नहीं। आप मुँह-देखी बात नहीं करते।

17) इसलिए हमें बताइए, आपका क्या विचार है- कैसर को कर देना उचित है या नहीं’’

18) उनकी धूर्त्तता भाँप कर ईसा ने कहा, ’’ढ़ोगियों! मेरी परीक्षा क्यों लेते हो?

19) कर का सिक्का मुझे दिखलाओ।’’ जब उन्होंने एक दीनार प्रस्तुत किया,

20) तो ईसा ने उन से कहा, ’’यह किसका चेहरा और किसका लेख है?’’

21) उन्होंने उत्तर दिया, ’’कैसर का’’। इस पर ईसा ने उन से कहा, ’’तो, जो कैसर का है, उसे कैसर को दो और जो ईश्वर का है, उसे ईश्वर को’’।

📚 मनन-चिंतन

"मैं प्रस्तुत हूँ, मुझ को भेज!" यह है संत पापा फ्रांसिस द्वारा इस वर्ष के मिशन रविवार के लिए चुना गया विषय। यह पिछले वर्ष अक्टूबर के विशेष मिशनरी महीने के कार्यक्रम को जारी रखता है, जिसका विषय था, "अभिषिक्त और प्रेषित: कलीसिया दुनिया में मिशन पर"।

मिशन इतवार के दौरान हमें पिता ईश्वर की ओर से येसु के मिशन की याद दिलाई जाती है, जिसमें कलीसिया और हर एक विश्वासी का मिशन का स्रोत है। अपने पुनरुत्थान के बाद येसु ने उनके शिष्यों से कहा, " जिस प्रकार पिता ने मुझे भेजा, उसी प्रकार मैं तुम्हें भेजता हूँ" (Jn 20:21)। अपने स्वर्गारोहण के पहले येसु उन्हें आज्ञा दी, "संसार के कोने-कोने में जा कर साडी सृष्टि को सुसमाचार सुनाओ" (Mk 16:15)।

येसु स्वर्गीय पिता के मिशनरी हैं: हमारे प्रति उनके प्यार के कारण ईश्वर ने अपने पुत्र येसु को हमारे मुक्तिदाता के रूप में भेजा (cf. Jn 3:16)। येसु का जीवन और सेवाकार्य पिता की इच्छा के प्रति उसकी पूर्ण आज्ञाकारिता को प्रकट करती है (cf. Jn 4:34; 6:38; 8: 12-30; Heb 10: 5-10)। क्रूसित और पुनर्जीवित येसु हमें उसके प्रेम के मिशन में शामिल करता है। अपना आत्मा की शक्ति से कलीसिया उनकी संतानों को अपना मिशन में शामिल करता है।

मिशन ईश्वर की पुकार पर हमारा स्वतंत्र और सचेत प्रत्युत्तर है। ईश्वर पूछता है, "मैं किसे भेजूं?"। हम इस आह्वान को तभी स्वीकार करते हैं जब हम विश्वासियों का समूह कलीसिया में उपस्थित येसु के साथ प्रेम का व्यक्तिगत संबंध रखते हैं। सुसमाचार कार्य संबंधों से शुरू होता है; एक दूसरे के साथ संबंध, और मसीह के साथ संबंध।

हम अपने आप से पूछें:

क्या हम अपने रोजमर्रा की जिंदगी की घटनाओं में मिशन की पुकार को सुनने के लिए पवित्र आत्मा की उपस्थिति का स्वागत करने के लिए तैयार हैं, चाहे हम विवाहित जीवन जीते हो, या समर्पित जीवन जीते हो?

क्या हम किसी भी समय या जगह पर भेजे जाने के लिए तैयार हैं, ताकि हम ईश्वर के प्रेम और दयालुता के गवाह बनें, येसु मसीह के सुसमाचार की घोषणा करें, और पवित्र आत्मा की शक्ति में कलीसिया का निर्माण करें?

क्या हम माता मरियम की तरह पूर्ण रूप से ईश्वर की इच्छा पूरी करने के लिए तैयार हैं (cf. Lk 1:38)? यह आंतरिक मनोभाव आवश्यक है अगर हम ईश्वर से कहें: "मैं प्रस्तुत हूँ, मुझ को भेज।"

इस वर्ष का मिशन रविवार और मिशनरी यात्रा कोविद -19 महामारी द्वारा उत्पन्न कष्टों और चुनौतियों से प्रभावित है। ईश्वर का निमंत्रण, "मैं किसे भेजूं?", वर्तमान विश्व संकट में कलीसिया और पुरो मानव जाती चुनौती देता है। पूरी दुनिया इस महामारी से प्रभावित है। सुसमाचार में शिष्यों की तरह हम एक अप्रत्याशित, अशांत तूफान से बिना कोई पूर्व तैयारी से पकड़े गए हैं।

महामारी के इस समय ईश्वर हमसे क्या कह रहा है यह समझना कलीसिया के मिशन के लिए एक चुनौती है। बीमारी, पीड़ा, भय और अलगाव हमें चुनौती देते हैं। अकेले मरने वालों की अवस्था, तिरस्कृत लोग, अपनी नौकरी और आय खोये हुए लोग, बेघर और जिनके पास भोजन की कमी है, वे सब हमारे लिए चुनौती हैं। सामाजिक दूरी रखने और घर पर रहने के लिए मजबूर होना हमें इस बात को याद दिलाती है कि हमें सामाजिक रिश्तों के साथ-साथ ईश्वर के साथ अपने सामूहिक संबंधों की कितनी जरूरत है। अविश्वास और उदासीनता को बढ़ावा देने के बजाय लॉक डाउन की इस स्थिति को हमें दूसरों से निकट सम्बन्ध बनाये रखने के लिए अधिक चौकस बनाना चाहिए। और प्रार्थना, जिसमें ईश्वर हमारे दिलों को छूता है और प्रभावित करता है, हमें अपने भाई-बहनों की ज़रूरतों के लिए संवेदनशील बनाना चाहिए, साथ ही साथ सारी सृष्टि की देखभाल करने की हमारी ज़िम्मेदार भी महसूस कराना चाहिए। पवित्र यूखरिस्त मनाने के लिए सामूहिक रूप में इकट्ठा होने की असंभवता ने हमें कई ईसाई समुदायों के अनुभव को साझा करने के लिए प्रेरित किया है जो हर रविवार को पवित्र यूखरिस्त नहीं मना सकते हैं। इन सब में, ईश्वर का प्रश्न: "मैं किसे भेजूँ?" हमें एक बार और संबोधित किया जाता है और एक उदार और ठोस प्रत्युत्तर का इंतजार करता है: "मैं प्रस्तुत हूँ, मुझ को भेज!" (इसायस 6: 8)। ईश्वर उन लोगों की तलाश में है जो दुनिया में और राष्ट्रों के बीच उसके प्रेम और मुक्ति के सन्देश के गवाह बन सकें।

संत पिता फ्रांसिस इस महामारी के दौरान मिशन के तीन विशिष्ट रूपों का प्रस्ताव करता है: वे हैं, शेयरिंग, सेवा और मध्यस्थ प्रार्थना। अपने संसाधनों, प्रतिभाओं और अनुभवों को साझा करना मिशन का एक तरीका है। जरूरतमंद लोगों की सेवा करना, विशेष रूप से महामारी के कारण उत्पन्न गरीबी के नए रूपों से पीड़ित लोगों की सेवा करना सुसमाचार की एक सामयिक और प्रासंगिक गवाही होगी। दूसरों की जरूरतों के लिए प्रार्थना करना कलीसिया के मिशन में भाग लेने का एक निश्चित तरीका है।

प्रार्थना कीजिये की प्रभु का मिशन का आह्वान सुनने और यह प्रत्युत्तर देने के लिए आपको कृपा मिले:"मैं प्रस्तुत हूँ, मुझ को भेज!"

- फादर जोली जोन (इन्दौर धर्मप्रांत)


📚 REFLECTION

The theme chosen by Pope Francis for his year’s Mission Sunday is, “Here am I, send me (Is 6:8).” This is in continuation of the Extraordinary Missionary Month of last October which had the theme, “Baptized and Sent: the Church of Christ on Mission in the World”.

During the mission Sunday celebration we are reminded of the mission of Jesus from the Father, from which springs the mission of the Church and that of every baptized. After the resurrection Jesus told his disciples, “As the Father sent me, so am I sending you” (Jn 20:21). He commanded them, “Go out to the whole world, and proclaim the gospel to the whole creation” (Mk 16:15).

Jesus is the Father’s Missionary: Out of his love for us, God the Father sent his Son Jesus (cf. Jn 3:16). The life and ministry of Jesus reveal his total obedience to the Father’s will (cf. Jn 4:34; 6:38; 8:12-30; Heb 10:5-10). Jesus, crucified and risen for us, draws us in turn into his mission of love. With his Spirit Jesus enlivens the Church, he makes us his disciples and sends us on a mission to the world and to its peoples.

Mission is a free and conscious response to God’s call, who asks, “Whom shall I send?” We discern this call only when we have a personal relationship of love with Jesus present in his Church. Let us ask ourselves:

Are we prepared to welcome the presence of the Holy Spirit in our lives, to listen to the call to mission, whether in our life as married couples or as consecrated persons or those called to the ordained ministry, and in all the everyday events of life?

Are we willing to be sent forth at any time or place to witness to our faith in God the merciful Father, to proclaim the Gospel of salvation in Jesus Christ, to share the divine life of the Holy Spirit by building up the Church?

Are we, like Mary, the Mother of Jesus, ready to be completely at the service of God’s will (cf. Lk 1:38)? This interior openness is essential if we are to say to God: “Here am I, Lord, send me” (cf. Is 6:8).

The Mission Sunday and missionary journey of the Church this year is marked by the suffering and challenges created by the Covid-19 pandemic. The invitation from God, “whom shall I send?,” challenges both the Church and humanity as a whole in the current world crisis. The whole world is affected by the pandemic. “Like the disciples in the Gospel we were caught unprepared by an unexpected, turbulent storm.”

Understanding what God is saying to us at this time of pandemic represents a challenge for the Church’s mission. Illness, suffering, fear and isolation challenge us. The poverty of those who die alone, the abandoned, those who have lost their jobs and income, the homeless and those who lack food challenge us. Being forced to observe social distancing and to stay at home invites us to rediscover that we need social relationships as well as our communal relationship with God. Instead of increasing mistrust and indifference, this situation should make us even more attentive to our way of relating to others. And prayer, in which God touches and moves our hearts, should make us ever more open to the need of our brothers and sisters, as well as our responsibility to care for all creation. The impossibility of gathering as a Church to celebrate the Eucharist has led us to share the experience of the many Christian communities that cannot celebrate Mass every Sunday. In all of these, God’s question: “Whom shall I send?” is addressed once more to us and awaits a generous and convincing response: “Here am I, send me!” (Is 6:8). God continues to look for those whom he can send forth into the world and to the nations to bear witness to his love, his deliverance from sin and death, his liberation from evil (cf. Mt 9:35-38; Lk 10:1-12).

The Holy Father proposes three specific forms of mission during this pandemic: sharing, service and intercessory prayer. Sharing your resources, talents and experiences is a way of mission. Serving those in need, especially those in new forms of poverty caused by the pandemic is a powerful way of bearing witness to the gospel. Praying for the needs of others is a sure way of participating in the mission of the Church.

May you have the grace to respond to the Lord’s invitation, saying “Here I am, send me!”

-Fr. Jolly John (Indore Diocese)


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Praise the Lord!