1) “तुम सब, जो प्यासे हो, पानी के पास चले आओ। यदि तुम्हारे पास रुपया नहीं हो, तो भी आओ। मुफ़्त में अन्न ख़रीद कर खाओ, दाम चुकाये बिना अंगूरी और दूध ख़रीद लो।
2) जो भोजन नहीं है, उसके लिए तुम लोग अपना रुपया क्यों ख़र्च करते हो? जो तृप्ति नहीं दे सकता है, उसके लिए परिश्रम क्यों करते हो? मेरी बात मानो। तब खाने के लिए तुम्हें अच्छी चीज़ें मिलेंगी और तुम लोग पकवान खा कर प्रसन्न रहोगे।
3) कान लगा कर सुनो और मेरे पास आओ। मेरी बात पर ध्यान दो और तुम्हारी आत्मा को जीवन प्राप्त होगा। मैंने दाऊद से दया करते रहने की प्रतिज्ञा की थी। उसके अनुसार मैं तुम लोगों के लिए, एक चिरस्थायी विधान ठहराऊँगा।
35) कौन हम को मसीह के प्रेम से वंचित कर सकता है? क्या विपत्ति या संकट? क्या अत्याचार, भूख, नग्नता, जोखिम या तलवार?
37) किन्तु इन सब बातों पर हम उन्हीं के द्वारा सहज ही विजय प्राप्त करते है, जिन्होंने हमें प्यार किया।
38) मुझे दृढ़ विश्वास है कि न तो मरण या जीवन, न स्वर्गदूत या नरकदूत, न वर्तमान या भविष्य,
39) न आकाश या पाताल की कोई शक्ति और न समस्त सृष्टि में कोई या कुछ हमें ईश्वर के उस प्रेम से वंचित कर सकता है, जो हमें हमारे प्रभु ईसा मसीह द्वारा मिला है।
13) ईसा यह समाचार सुन कर वहाँ से हट गये और नाव पर चढ़ कर एक निर्जन स्थान की ओर चल दिये। जब लोगों को इसका पता चला, तो वे नगर-नगर से निकल कर पैदल ही उनकी खोज में चल पड़े।
14) नाव से उतर कर ईसा ने एक विशाल जनसमूह देखा। उन्हें उन लोगों पर तरस आया और उन्होंने उनके रोगियों को अच्छा किया।
15) सन्ध्या होने पर शिष्य उनके पास आ कर बोले, "यह स्थान निर्जन है और दिन ढल चुका है। लोगों को विदा कीजिए, जिससे वे गाँवों में जा कर अपने लिए खाना खरीद लें।"
16) ईसा ने उत्तर दिया, "उन्हें जाने की ज़रूरत नहीं। तुम लोग ही उन्हें खाना दे दो।"
17) इस पर शिष्यों ने कहा "पाँच रोटियों और दो मछलियों के सिवा यहाँ हमारे पास कुछ नहीं है"।
18) ईसा ने कहा, उन्हें यहाँ मेरे पास ले आओ"।
19) ईसा ने लोगों को घास पर बैठा देने का आदेश दे कर, वे पाँच रोटियाँ और दो मछलियाँ ले ली़। उन्होंने स्वर्ग की और आँखें उठा कर आशिष की प्रार्थना पढ़ी और रोटियाँ तोड़-तोड़ कर शिष्यों को दीं और शिष्यों ने लोगों को।
20) सबों ने खाया और खा कर तृप्त हो गये, और बचे हुए टुकड़ों से बारह टोकरे भर गये।
21) भोजन करने वालों में स्त्रिीयों और बच्चों के अतिरिक्त लगभग पाँच हज़ार पुरुष थे।
आज के पहले पाठ में हम ईश्वर के उस निशुल्क अवसर के बारे में सुनते हैं जो उनके लिए है जो सांसारिक भोजन के लिए कठिन परिश्रम करते हैं। हालाँकि यह मुक्ति निशुल्क है लेकिन उसे स्वीकार करने के लिए हमें ईश्वर और उसके विधान के प्रति वफ़ादार बनना पड़ेगा। दूसरे पाठ में भी सन्त पौलुस रोमियों को लिखते हुए अपने पत्र में हमें भरोसा दिलाते हैं कि स्वर्ग या पृथ्वी की कोई भी ताक़त हमें ईश्वर के प्रेम के अलग नहीं कर सकती। सुसमाचार में हम करुणामय प्रभु येसु को देखते हैं कि वह लोगों के दुःख-दर्द को महसूस करते हैं और उन्हें भोजन और विश्राम प्रदान करते हैं। प्रभु लोगों के प्रति अपने असीम प्रेम के कारण ही ऐसा करते हैं।
इस दुनिया में अपने माता-पिता के साथ सम्बन्ध से बढ़कर और कोई गहरा सम्बन्ध नहीं है। दूसरे सब प्रकार के रिश्ते धीरे-धीरे शिथिल हो जाते या समाप्त हो जाते हैं लेकिन माता-पिता के साथ रिश्ता कभी नहीं बदलता। माता जो अपने बच्चे की देख-भाल के लिए हर प्रकार के दुःख और कष्ट उठाने के लिए तैयार रहती है, वह अपने बच्चे को हर प्रकार का सुख और आराम देने के लिए सदैव तत्पर रहती है। माता और बच्चे के बीच एक अटूट बंधन बन जाता है। उसी तरह पिता भी बच्चे की हर ज़रूरत का ख़्याल रखता है, वास्तव में बच्चे के जन्म के बाद एक पिता का हर प्रयास बच्चे के जीवन को बेहतर बनाने का ही रहता है। भले ही बच्चा अपने माता-पिता के महान प्रेम और त्याग को भुला दे लेकिन माता-पिता का प्यार बच्चों के प्रति कभी कम नहीं होता। उनकी एकमात्र अभिलाषा यही होती है कि उनके बच्चे सदा सुखी रहें। इस संसार में एक माँ-बाप को इससे अधिक ख़ुशी की और कोई बात नहीं हो सकती कि उनके बच्चे जीवन में सदा सुखी रहें और फलते-फूलते रहें। उसी तरह ईश्वर भी हमारा देख-भाल करने वाला पिता और प्रेम रखने वाली माता है। उसने हमें अपनी योजना में ना केवल नौ महीने के लिए रखा बल्कि संसार के प्रारम्भ से ही हमें जाना और चुना (देखें एफ़ेसियों १:४), और हमारी देख-भाल की। वह सदा हमें ख़ुशी और आशीष प्रदान करना चाहता है। उनका हर कदम हमारे प्यार के लिए है और उसके प्रेम से हमें कोई भी वंचित नहीं कर सकता। वह बिना किसी शर्त के हमें प्यार करते हैं।
लेकिन हम ईश्वर के प्रेम को भूलकर सांसारिक चिंताओं में फँस जाते हैं। हम अपने कपड़ों, अपने भोजन, अपनी नौकरी, अपनी तनख़्वाह, अपनी दौलत, सफलता, अपने पसंद-नापसंद, आदि की चिंता करते हैं और इसी क्रम में हम ईश्वर को भूल जाते हैं और उसके प्रेम से दूर होते चले जाते हैं। आज हमें खुद को यह भरोसा दिलाना है कि हम भले ही इस ध्यान ना दें लेकिन ईश्वर सदा हमारी देख-भाल करता है। हमारे भविष्य के लिए उसकी योजनाएँ हैं (येरेमीयस २९:११), उसकी मर्ज़ी के बिना पत्ता भी नहीं हिल सकता तो फिर बेवजह की चिन्ता क्यों? हमें ईश्वर को अपने जीवन का केन्द्र बनाना है, क्योंकि हम उसी के पास से आए हैं, और उसी की संताने हैं। वह हमें कभी नहीं भुला सकता क्योंकि उसने हममें से प्रत्येक को अपनी हथेली पर अंकित कर रखा है (इसायस ४९:१६)। आइए हम अपने आप को अपने दयालु पिता ईश्वर के हाथों में सौंप दें। आमेन।
✍ - फादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)
The first reading of today gives us the glimpse of free offer of God to those who labour for worldly food. Though it is a free offer, but to accept this, we need to be faithful to Him and His covenant. In the second reading also St. Paul, while writing to the Romans, assures us that no power in heaven or on earth can separate us from God’s love. In the gospel we see compassionate Jesus, feeling the pain of the people, offers them food and rest. It is his unconditional love towards the people that moves him.
There is no deeper relationship on earth than the relationship with the mother and the father. Other relationships can gradually end or deteriorate or disappear, but the relationship with father and mother never changes. The mother who underwent pain and suffering to carry the baby in her belly, she took every care to keep the baby comfortable and happy. There is a great bond between mother and child. Similarly, father also takes care of the every need of the child, in fact, after the birth of the child, every action of the father is oriented towards taking care of the child. Even if the child forgets about their great love and sacrifice, their love remains the same. They always want their children to be happy. Nothing under the sky gives them more happiness than seeing their children happy and prospering. God is both, our loving mother and caring father. He has carried us in His plan not just for nine months but from the foundations of the world (cf Eph. 1:4), and took care of us. He always has been working to give us happiness and prosperity. His every action is oriented towards loving us, and nothing can come in between us and His love. He offers us His love unconditionally.
But forgetting God’s unconditional love we get worried about worldly things. We worry about food, our clothing, our job, our salary, our money, our success, our attachments and achievements, and in the process we forget him and start going astray from his love. Today we need to assure ourselves that God cares for us even if we are not aware of it. He has plans for our future (Jer29:11), nothing happens without His knowledge, so why worry? We need to make God as the center of our life, because we come from him and we are His children. He would never forget us because He has carved each one of us on the palm of His hand (Is 49:16). Let us surrender ourselves in the hands of our Heavenly Father. Amen.
✍ -Fr. Johnson B.Maria (Gwalior)