3) सुलेमान को प्रभु से प्रेम था और वह अपने पिता दाऊद के विधानों के अनुसार कार्य करता था; लेकिन वह पहाड़ी पूजास्थानों पर बलि चढ़ाता और धूप दिया करता था।
7) प्रभु! मेरे ईश्वर! तूने अपने इस सेवक को अपने पिता दाऊद के स्थान पर राजा बनाया, लेकिन मैं अभी छोटा हूँ। मैं यह नहीं जानता कि मुझे क्या करना चाहिए।
8) मैं यहाँ तेरी चुनी हुई प्रजा के बीच हूँ। यह राष्ट्र इतना महान् है कि इसके निवासियों की गिनती नहीं हो सकती।
9) अपने इस सेवक को विवेक देने की कृपा कर, जिससे वह न्यायपूर्वक तेरी प्रजा का शासन करे और भला तथा बुरा पहचान सके। नहीं तो, कौन तेरी इस असंख्य प्रजा का शासन कर सकता है?’’
10) सुलेमान का यह निवेदन प्रभु को अच्छा लगा।
11) प्रभु ने उसे से कहा, ‘‘तुमने अपने लिए न तो लम्बी आयु माँगी, न धन-सम्पत्ति और न अपने शत्रुओं का विनाश।
12) तुमने न्याय करने का विवेक माँगा है। इसलिए मैं तुम्हारी इच्छा पूरी करूँगा। मैं तुम को ऐसी बुद्धि और ऐसा विवेक प्रदान करता हूँ कि तुम्हारे समान न तो पहले कभी कोई था और न बाद में कभी कोई होगा।
28) हम जानते हैं कि जो लोग ईश्वर को प्यार करते हैं और उसके विधान के अनुसार बुलाये गये हैं, ईश्वर उनके कल्याण के लिए सभी बातों में उनकी सहायता करता है;
29) क्योंकि ईश्पर ने निश्चित किया कि जिन्हें उसने पहले से अपना समझा, वे उसके पुत्र के प्रतिरूप बनाये जायेंगे, जिससे उसका पुत्र इस प्रकार बहुत-से भाइयों का पहलौठा हो।
30) उसने जिन्हें पहले से निश्चित किया, उन्हें बुलाया भी है: जिन्हें बुलाया, उन्हें पाप से मुक्त भी किया है और जिन्हें पाप से मुक्त किया, उन्हें महिमान्वित भी किया है।
44) ’’स्वर्ग का राज्य खेत में छिपे हुए ख़ज़ाने के सदृश है, जिसे कोई मनुष्य पाता है और दुबारा छिपा देता है। तब वह उमंग में जाता और सब कुछ बेच कर उस खेत को ख़रीद लेता है।
45) ’’फिर, स्वर्ग का राज्य उत्तम मोती खोजने वाले व्यापारी के सदृश है।
46) एक बहुमूल्य मोती मिल जाने पर वह जाता और अपना सब कुछ बेच कर उस मोती को मोल ले लेता है।
47) ’’फिर, स्वर्ग का राज्य समुद्र में डाले हुए जाल के सदृश है, जो हर तरह की मछलियाँ बटोर लाता है।
48) जाल के भर जाने पर मछुए उसे किनारे खींच लेते हैं। तब वे बैठ कर अच्छी मछलियाँ चुन-चुन कर बरतनों में जमा करते हैं और रद्दी मछलियाँ फेंक देते हैं।
49) संसार के अन्त में ऐसा ही होगा। स्वर्गदूत जा कर धर्मियों में से दुष्टों को अलग करेंगे।
50) और उन्हें आग के कुण्ड में झोंक देंगे। वहाँ वे लोग रोयेंगे और दाँत पीसते रहेंगे।
51) ’’क्या तुम लोग यह सब बातें समझ गये?’’ शिष्यों ने उत्तर दिया, ’’जी हाँ’’।
52) ईसा ने उन से कहा, ’’प्रत्येक शास्त्री, जो स्वर्ग के राज्य के विषय में शिक्षा पा चुका है, उस ग्रहस्थ के सदृश है, जो अपने ख़जाने से नयी और पुरानी चीज़ें निकालता है’’।
हम अक्सर 'ट्रेजर हंट' नामक खेल खेलते हैं। इस खेल में हम कुछ चीज़ की खोज का प्रयास करते हैं जो परिसर में कहीं छिपायी गयी है। कुछ लोग इस तरह के खेलों में भाग लेना ही पसंद नहीं करते क्योंकि वे बहुत सारे प्रयासों की मांग करते हैं, जबकि कई अन्य लोग आश्वस्त लेकिन अज्ञात निश्चितता का सामना करने में रुचि रखते हैं। इस खेल में जब यह देखा जाता है कि अधिकांश खिलाड़ी अपने प्रयासों के बावजूद असफल होते हैं, तब जो खेल का संचालन करता है वह सामान्य रूप से कुछ सुराग देता है। तब खिलाड़ी दिए गए सुरागों के आधार पर अपने प्रयासों को आगे बढ़ाते हैं और कोई खजाना पाने में सफल होता है।
आज का सुसमाचार, ईश्वर के राज्य को खेत में छिपे खजाने के रूप में प्रस्तुत करता है। खजाने को छिपे हुए के रूप में प्रस्तुत करके, येसु हमें यह बताना चाहते हैं कि हमें सबसे पहले खजाने की अमूल्यता और महानता के बारे में पता होना चाहिए। सुसमाचार में उल्लेख व्यक्ति को ख़ज़ाने के अस्तित्व के बारे में दृढ़धारणा है और इसीलिए वह इसकी खोज में निकल पड़ता है। वह इसे पाने के लिए आशावान रहता है। फिर वह उसे खोजने का प्रयास करता है। वह खजाना सहजता से उसे नहीं मिलता है। उसे तलाश करना पड़ता है। इस स्तर पर उसे उस खजाने को हासिल करने के अपने प्रयासों को सही दिशा-निर्देश देना होगा, अन्य मामलों में व्यस्त नहीं रहना चाहिए। उसे प्राप्त करने की दिशा में हर प्रयास को बदलना होगा। उसे प्राप्त करने के बाद, उसे यह सुनिश्चित करना चाहिए कि यह कभी खो न जाए। उसके संरक्षण के लिए भी उसे प्रयास करते रहना पड़ता है।
यह ईश्वर के राज्य की वास्तविकता है। हमें इस तरह के खजाने के अस्तित्व के बारे में आश्वस्त होना चाहिए और इसे खोजने के लिए हर संभव प्रयास करना चाहिए। मिल जाने के बाद, हमें इसे महत्व देने और इसे संरक्षित रखना चाहिए। हमें हमारे प्रयासों को उस खजाने पर केन्द्रित करना तथा भटकने से बचना होगा।
दूसरे दृष्टांत में, येसु ने ईश्वर के राज्य की तुलना एक ऐसे व्यापारी से की है जो बढ़िया मोती खोज रहा है और उस मूल्यवान खजाने को हासिल करने के लिए वह अपनी सारी संपत्ति बेचता है। वह उस नए पाए गए बहुमूल्य मोती को प्राप्त करने के लिए कम मूल्य के अन्य सभी मोती देने को तैयार है।
इन दोनों दृष्टांतों के द्वारा प्रभु येसु चाहते हैं कि हम राज्य की महानता से अवगत हों, उसे हासिल करने और संरक्षित करने के लिए हर संभव प्रयास करें। हमें अपनी बहुत सी छोटी-छोटी चीज़ों को त्यागने और ईश्वर के राज्य की खातिर अपने आराम क्षेत्रों से बाहर निकलने के लिए तैयार रहना चाहिए।
संत पौलुस कहते हैं, “ मैं जिन बातों को लाभ समझता था, उन्हें मसीह के कारण हानि समझने लगा हूँ। इतना ही नहीं, मैं प्रभु ईसा मसीह को जानना सर्वश्रेष्ठ लाभ मानता हूँ और इस ज्ञान की तुलना में हर वस्तु को हानि ही मानता हूँ। उन्हीं के लिए मैंने सब कुछ छोड़ दिया है और उसे कूड़ा समझता हूँ, जिससे मैं मसीह को प्राप्त करूँ और उनके साथ पूर्ण रूप से एक हो जाऊँ। मुझे अपनी धार्मिकता का नहीं, जो संहिता के पालन से मिलती है, बल्कि उस धार्मिकता का भरोसा है, जो मसीह में विश्वास करने से मिलती है, जो ईश्वर से आती है और विश्वास पर आधारित है।” (फिलिप्पियों 3: 7-9)।
✍ -फादर फ्रांसिस स्करिया
We often play the game called ‘Treasure Hunt’. In this game we are to make efforts to search for some specific material which is hidden somewhere in the campus. Some do not like to participate in such games since they demand a lot of efforts, while others are interested in confronting the assured but unknown certainty. When it is noticed that most of the players are unsuccessful in spite of their efforts, the one who conducts the game normally gives some clues. Then the players refocus their efforts based on the clues given and someone succeeds in finding the treasure.
The Gospel presents the Kingdom of God as a Treasure hidden in the field. By presenting the treasure as hidden, Jesus wants us to know that we need to first of all be aware of the preciousness and greatness of the treasure. The man in the Gospel is convinced of the existence of the treasure and that is why he sets out to search for it. He is hopeful in finding it. Then he makes effort to find it. It does not effortlessly come to him. He has to seek. At this stage he has to refocus his efforts to acquire that treasure, not getting diverted to other matters. He has to channelize every effort towards acquiring it. Once acquired, he needs to value it and ensure that it is never lost. Preservation also calls for efforts.
This is the reality of the Kingdom of God. We are to be convinced of the existence of such a treasure and set out to seek it and make every effort to find it. Once found, we need to value it and preserve it. We have to avoid distractions and diversions to have the possession of the treasure.
In another parable, Jesus compares the Kingdom of God to a merchant looking for fine pearls and finding one of great value he sells all his possessions to acquire that valuable treasure. The merchant is willing to give up all other pearls of lower value to acquire that newly found precious pearl.
In both these parables Jesus wants us to be aware the greatness of the Kingdom, to make every effort to acquire and preserve it. We should be willing to forego many of our little possessions and move out of our comfort zones for the sake of the Kingdom of God.
In the first reading, we find that Solomon was a humble seeker of God’s wisdom. He was focussed too. When the Lord said to him, “Ask what you would like me to give you”, he simply asked for “a heart to understand how to govern your people, how to discern between good and evil”. The Lord lavished upon him wisdom that he asked for and wealth and prosperity which he had not asked for. He was, no doubt, seeking a treasure. For sometime he valued that treasure; yet in the latter part of his life, he lost focus and began to seek passing pleasures of this world. Thus he lost the favour of the Lord.
St. Paul says, “Yet whatever gains I had, these I have come to regard as loss because of Christ. More than that, I regard everything as loss because of the surpassing value of knowing Christ Jesus my Lord. For his sake I have suffered the loss of all things, and I regard them as rubbish, in order that I may gain Christ and be found in him” (Phil 3:7-9).
The parable of the fishing net, reminds us of the reality of the final judgment when the righteous will inherit the Kingdom and the wicked will receive eternal punishment. Nothing unclean can enter heaven, because holiness and evil cannot co-exist just as light and darkness cannot co-exist.
✍ -Fr. Francis Scaria