10) जिस तरह पानी और बर्फ़ आकाश से उतर कर भूमि सींचे बिना, उसे उपजाऊ बनाये और हरियाली से ढके बिना वहाँ नहीं लौटते, जिससे भूमि बीज बोने वाले को बीज और खाने वाले को अनाज दे सके,
11) उसी तरह मेरी वाणी मेरे मुख से निकल कर व्यर्थ ही मेरे पास नहीं लौटती। मैं जो चाहता था, वह उसे कर देती है और मेरा उद्देश्य पूरा करने के बाद ही वह मेरे पास लौट आती है।
18) मैं समझता हूँ कि हम में जो महिमा प्रकट होने को है, उसकी तुलना में इस समय का दुःख नगण्य है;
19) क्योंकि समस्त सृष्टि उत्कण्ठा से उस दिन की प्रतीक्षा कर रही है, सब ईश्वर के पुत्र प्रकट हो जायेंगे।
20) यह सृष्टि तो इस संसार की असारता के अधीन हो गयी है-अपनी इच्छा से नहीं, बल्कि उसकी इच्छा से, जिसने उसे अधीन बनाया है- किन्तु यह आशा भी बनी रही
21) कि वह असारता की दासता से मुक्त हो जायेगी और ईश्वर की सन्तान की महिमामय स्वतन्त्रता की सहभागी बनेगी।
22) हम जानते हैं कि समस्त सृष्टि अब तक मानो प्रसव-पीड़ा में कराहती रही है और सृष्टि ही नहीं, हम भी भीतर-ही-भीतर कराहते हैं।
23) हमें तो पवित्र आत्मा के पहले कृपा-दान मिल चुके हैं, लेकिन इस ईश्वर की सन्तान बनने की और अपने शरीर की मुक्ति की राह देख रहे हैं।
1) ईसा किसी दिन घर से निकल कर समुद्र के किनारे जा बैठे।
2) उनके पास इतनी बड़ी भीड़ इकट्ठी हो गयी कि वे नाव पर चढ़ कर बैठ गये और सारी भीड़ तट पर बनी रही।
3) उन्होंने दृष्टान्तों द्वारा उन्हें बहुत-सी बातों की शिक्षा दी। उन्होंने कहा, ’’सुनो! कोई बोने वाला बीज बोने निकला।
4) बोते-बोते कुछ बीज रास्ते के किनारे गिरे और आकाश के पक्षियों ने आ कर उन्हें चुग लिया।
5) कुछ बीज पथरीली भूमि पर गिरे, जहाँ उन्हें अधिक मिट्टी नहीं मिली। वे जल्दी ही उग गये, क्योंकि उनकी मिट्टी गहरी नहीं थी।
6) सूरज चढने पर वे झुलस गये और जड़ न होने के कारण सूख गये।
7) कुछ बीज काँटों में गिरे और काँटों ने बढ़ कर उन्हें दबा दिया।
8) कुछ बीज अच्छी भूमि पर गिरे और फल लाये- कुछ सौ गुना, कुछ साठ गुना और कुछ तीस गुना।
9) जिसके कान हों, वह सुन ले।‘‘
10) ईसा के शिष्यों ने आ कर उन से कहा, ’’आप क्यों लोगों को दृष्टान्तों में शिक्षा देते हैं?‘‘
11) उन्होंने उत्तर दिया, ’’यह इसलिए है कि स्वर्गराज्य का भेद जानने का वरदान तुम्हें दिया गया है, उन लोगों को नहीं;
12) क्योंकि जिसके पास कुछ है, उसी को और दिया जायेगा और उसके पास बहुत हो जायेगा। लेकिन जिसके पास कुछ नहीं है, उससे वह भी ले लिया जायेगा, जो उसके पास है।
13) मैं उन्हें दृष्टान्तों में शिक्षा देता हूँ, क्योंकि वे देखते हुए भी नहीं देखते और सुनते हुए भी न सुनते और न समझते हैं।
14) इसायस की यह भविष्यवाणी उन लोगों पर पूरी उतरती है- तुम सुनते रहोगे, परन्तु नहीं समझोगे। तुम देखते रहोगे, परन्तु तुम्हें नहीं दिखेगा;
15) क्योंकि इन लोगों की बुद्धि मारी गई है। ये कानों से सुनना नहीं चाहते; इन्होंने अपनी आँख बंद कर ली हैं। कहीं ऐसा न हो कि ये आँखों से देख ले, कानों से सुन लें, बुद्धि से समझ लें, मेरी ओर लौट आयें और मैं इन्हें भला चंगा कर दूँ।
16) परन्तु धन्य हैं तुम्हारी आँखें, क्योंकि वे देखती हैं और धन्य हैं तुम्हारे कान, क्योंकि वे सुनते हैं!
17) मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ- तुम जो बातें देख रहे हो, उन्हें कितने ही नबी और धर्मात्मा देखना चाहते थे; परन्तु उन्होंने उन्हें नहीं देखा और तुम जो बातें सुन रहो, वे उन्हें सुनना चाहते थे, परन्तु उन्होंने उन्हें नहीं सुना।
18) ’’अब तुम लोग बोने वाले का दृष्टान्त सुनो।
19) यदि कोई राज्य का वचन सुनता है, लेकिन समझता नहीं, तब उसके मन में जो बोया गया है, उसे शैतान आ कर ले जाता हैः यह वह है, जो रास्ते के किनारे बोया गया है।
20) जो पथरीली भूमि मे बोया गया है, यह वह है, जो वचन सुनते ही प्रसन्नता से ग्रहण करता है;
21) परन्तु उस में जड़ नहीं है, और वह थोड़े ही दिन दृढ़ रहता है। वचन के कारण संकट या अत्याचार आ पड़ने पर वह तुरन्त विचलित हो जाता है।
22) जो काँटों में बोया गया हैः यह वह है, जो वचन सुनता है; परन्तु संसार की चिन्ता और धन का मोह वचन को दबा देता है और वह फल नहीं लाता।
23) जो अच्छी भूमि में बोया गया हैः यह वह है, जो वचन सुनता और समझता है और फल लाता है, कोई सौ गुना, कोई साठ गुना, और कोई तीस गुना।’’
सन्त मत्ती (13: 1-9, 18-23), सन्त मारकुस (4: 1-9, 13-20) और संत लूकस (8: 4-8, 11-15) एक दृष्टान्त का वर्णन करते हैं जिसका शीर्षक है ’बोनेवाले का दृष्टान्त’। हालाँकि दृष्टांत का शीर्षक ’बोनेवाले का दृष्टान्त’ है, इसके अन्दर्गत हमें बोने वाले पर ध्यान केंद्रित करने वाला कोई संदेश नहीं मिलता है। इस में बोने वाले के व्यक्तित्व पर प्रकाश नहीं डाला गया है। इसके बजाय, दृष्टांत के साथ-साथ स्पष्टीकरण भी विभिन्न प्रकार की मिट्टी या खेतों पर ध्यान केंद्रित करता है – रास्ते के किनारे की ज़मीन, चट्टानी जमीन, कांटेदार जमीन और अच्छी ज़मीन।
दृष्टान्त के अनुसार चार प्रकार की ज़मीन हैं। इन चारों में से तीन कुछ भी उत्पादन करने में विफल रहती हैं। इन चारों में से केवल एक को 'अच्छी मिट्टी' कहा जाता है। हमारे लिए इस तथ्य पर ध्यान देना भी महत्वपूर्ण है कि जहां एक क्षेत्र को अच्छा ’करार दिया जाता है, वहीं अन्य को ’बुरा’, या ’कुछ अच्छा ’ या ’बहुत बुरा’ के रूप में नहीं बताया गया है, जिस प्रकार के विकल्प हम कुछ सर्वेक्षणों में पाते हैं।
दृष्टांत से स्पष्ट है कि येसु चाहते हैं कि हम प्रेम और लगन के साथ ईशवचन को स्वीकार करें। हमें अपनी आंखों से प्रभु को खोजना चाहिए, अपने कानों को उनकी ओर लगाना है, उनके वचनों को समझने के लिए दिमाग का उपयोग करना चहिए और दिल से उनके वचनों को प्यार करना चाहिए। इन सभी के साथ, हमें अपने दिलों में बोए गए वचन को पोषित करने के लिए निरन्तर प्रयास करने की आवश्यकता है। तब हमें अच्छी फसल मिलेगी।
यिरमियाह 4: 3-4 में, प्रभु कहते हैं, " अपनी पड़ती ज़मीन को जोतो और काँटों में बीज मत बोओ। यूदा के लोगों और येरूसालेम के निवासियों! प्रभु के लिए अपने शरीर और अपने हृदय का ख़तना करो। नहीं तो तुम्हारे कुकर्मों के कारण मेरा क्रोध आग की तरह भड़क उठेगा और कोई उसे बुझाने में समर्थ नहीं होगा।“ यहाँ यह स्पष्ट है कि विषय-वस्तु मानव हृदय है। नबी होशेआ कहते हैं, “तुम धार्मिकता बोओ, तो भक्ति लुनोगे। अपनी परती भूमि जोतो, क्योंकि समय आ गया है। प्रभु को तब तक खोजते रहो, जब तक वह आ कर धार्मिकता न बरसाये” (होशेआ 10:12)। नबी एज़्रा के बारे में कहा गया है कि उन्होंने “ प्रभु की संहिता के अध्ययन में, उसके पालन और इस्राएल की विधियों और रीति-रिवाजों की शिक्षा में मन लगाया था" (एज्रा 7:10)।
✍ -फादर फ्रांसिस स्करिया
One of the parables described by all Synoptics (Mt 13:1-9, 18-23 Mk 4:1-9, 13-20; Lk 8:4-8, 11-15) is titled “The Parable of the Sower”. Although the title of the parable is the Parable of the Sower, in the explanation we do not find a message concentrating on the sower. The personality of the sower is not highlighted. Instead, the parable as well as the explanation concentrate on different kinds of soil or fields - foot-path, rocky ground, thorny ground and good soil.
According to the parable there are four types of fields. Three out of these four fields fail to produce anything. Only one out of these four fields is referred to as ‘good soil’. It is also important for us to pay attention to the fact that while one field is termed as ‘good’, others are not termed ‘bad’, ‘somewhat good’, ‘very bad’ as we find options in some surveys conducted.
It is clear from the parable that Jesus wants us to receive the Word of with love. We need to seek the Lord with our eyes. We need to tune our ears to him. We should have a mind prepared to understand His words and a heart to love the Word. Added to all these, we need to make efforts to nurture the Word sown in our hearts. Then we shall find the great harvest.
In Jer 4:3-4, the Lord says, “Break up your fallow ground, and do not sow among thorns. Circumcise yourselves to the Lord, remove the foreskin of your hearts, O people of Judah and inhabitants of Jerusalem, or else my wrath will go forth like fire, and burn with no one to quench it, because of the evil of your doings.” It is evident here that the reference is to the human heart. Prophet Hosea says, “Sow for yourselves righteousness; reap steadfast love; break up your fallow ground; for it is time to seek the Lord, that he may come and rain righteousness upon you.” (Hos 10:12).
About Ezra, it is said that he “had set his heart to study the law of the Lord, and to do it, and to teach the statutes and ordinances in Israel” (Ezra 7:10).
✍ -Fr. Francis Scaria