10) मैंने बहुतों को यह फुसफुसाते हुए सुना है- “चारों ओर आतंक फैला हुआ हैं। उस पर अभियोग लगाओ! हम उस पर अभियोग लगायें“। जो पहले मेरे मित्र थे, वे सब इस ताक में रहते हैं कि मैं कोई ग़लती कर बैठूँ और कहते हैं, “वह शायद भटक जायेगा और हम उस पर हावी हो कर उस से बदला लेंगे''।
11) परन्तु प्रभु एक पराक्रमी शूरवीर की तरह मेरे साथ हैं। मेरे विरोधी ठोकर खा कर गिर जायेंगे। वे मुझ पर हावी नहीं हो पायेंगे और अपनी हार का कटु अनुभव करेंगे। उनका अपयश सदा बना रहेगा।
12) विश्वमण्डल के प्रभु! तू धर्मी की परीक्षा करता और मन तथा हृदय की थाह लेता है। मैं अपने को तुझ पर छोड़ता हूँ। मैं दूखूँगा कि तू उन लोगों से क्या बदला लेता है।
13) प्रभु का गीत गाओ! प्रभु की स्तुति करो! क्योंकि वह दरिद्रों के प्राणों को दुष्टों के हाथ से छुडाता है।
12) एक ही मनुष्य द्वारा संसार में पाप का प्रवेश हुआ और पाप द्वारा मृत्यु का। इस प्रकार मृत्यु सब मनुष्यों में फैल गयी, क्योंकि सब पापी है।
13) मूसा की संहिता से पहले संसार में पाप था, किन्तु संहिता के अभाव में पाप का लेखा नहीं रखा जाता हैं।
14) फिर भी आदम से ले कर मूसा तक मृत्यु उन लोगों पर भी राज्य करती रही, जिन्होंने आदम की तरह किसी आज्ञा के उल्लंघन द्वारा पाप नहीं किया था। आदम आने वाले मुक्तिदाता का प्रतीक था।
15) फिर भी आदम के अपराध तथा ईश्वर के वरदान में कोई तुलना नहीं हैं। यह सच है कि एक ही मनुष्य के अपराध के कारण बहुत-से लोग मर गये; किंतु इस परिणाम से कहीं अधिक महान् है ईश्वर का अनुग्रह और वह वरदान, जो एक ही मनुष्य-ईसा मसीह-द्वारा सबों को मिला है।
26) "इसलिए उन से नहीं डरो। ऐसा कुछ भी गुप्त नहीं है, जो प्रकाश में नहीं लाया जायेगा और ऐसा कुछ भी छिपा हुआ नहीं है, जो प्रकट नहीं किया जायेगा।
27) मैं जो तुम से अंधेरे में कहता हूँ, उसे तुम उजाले में सुनाओ। जो तुम्हें फुस-फुसाहटों में कहा जाता है, उसे तुम पुकार-पुकार कर कह दो।
28) उन से नहीं डरो, जो शरीर को मार डालते हैं, किन्तु आत्मा को नहीं मार सकते, बल्कि उससे डरो, जो शरीर और आत्मा दोनों का नरक में सर्वनाश कर सकता है।
29) "क्या एक पैसे में दो गौरैयाँ नहीं बिकतीं? फिर भी तुम्हारे पिता के अनजाने में उन में से एक भी धरती पर नहीं गिरती।
30) हाँ, तुम्हारे सिर का बाल-बाल गिना हुआ है।
31) इसलिए नहीं डरो। तुम बहुतेरी गौरैयों से बढ़ कर हो।
32) "जो मुझे मनुष्यों के सामने स्वीकार करेगा, उसे मैं भी अपने स्वर्गिक पिता के सामने स्वीकार करूँगा।
33) जो मुझे मनुष्यों के सामने अस्वीकार करेगा, उसे मैं भी अपने स्वर्गिक पिता के सामने अस्वीकार करूँगा।
दुख मानव जीवन का अभिन्न अंग है। न सिर्फ पापी और दुष्ट बल्कि भले और निर्दोष लोगों को भी दुख सहना पडता है। हम जहॉ कहीं भी जाये दुख किसी न किसी रूप में हमारा इंतजार कर रहा होता है। लेकिन हमारे दुख और तकलीफें हमें परिभाषित नहीं करती है लेकिन जिस तरह से हम उनका सामना करते हैं वे हमारे चरित्र का निर्धारण करते हैं। अकेले या परित्यक्त रह जाने की अवस्था या अहसास बहुत ही कष्टदायक होता है। इस स्थिति में हमें ईश्वर पर अपने विश्वास को दृढ़ रखना चाहिये। केवल ईश्वर ही हमें सफलता एवं सुरक्षा प्रदान कर सकते हैं।
नबी दुख और अत्याचार का दूसरा नाम बन गये थे। लोग उनको निरंतर परेशान तथा सताया करते थे। तथा बहुतों को हिंसक अंत का सामना करना पडा था। उनका दोष केवल इतना था कि वे पापी जगत में ईश्वर की आवाज थे। लोग उनसे इसलिये मित्रता की कोशिश करते थे जिससे वे उनके विरूद्ध कुछ न कहें लेकिन जब वे ईश्वर की भविष्यवाणियों के साथ कोई समझौता नहीं करते थे तो वे उनके विरूद्ध साजिश किया करते थे। नबी यिरमियाह ने बहुत सतावट सही। वे स्वयं को विरोधियों तथा विपत्तियों से घिरा हुआ पाते हैं। लेकिन इस दयनीय स्थिति में अपने ईश्वर को याद करते हैं। उनको इस बात का अहसास है ईश्वर न सिर्फ उनके साथ है बल्कि वे उनके सक्रिय साथी भी है। ईश्वर उन्हें असंभव प्रतिकूल परिस्थितियों तथा शक्तिशाली शत्रुओं से छुडाने का सामर्थ्य रखते हैं। इस विश्वास के साथ वे अपने विरोधियों के विरूद्ध विजयी तथा अपने मिशन की सफलता के प्रति आश्वानंवित है।
येसु अपने शिष्यों को भविष्य में आने वाले अत्याचार के बारे में शिक्षित करते हैं। वे बताते है कि अत्याचार का आना तो अनिवार्य है किन्तु इससे घबराना नहीं चाहियें क्योंकि ईश्वर सभी परिस्थितियों पर नियंत्रण रखते हैं। ईश्वर की उपस्थिति तथा उसकी शक्ति में विश्वास वास्तविक तथा मुक्तिदायक होता है। दानिएल के ग्रंथ में दानिएल के साथी कहते हैं, ’’यदि कोई ईश्वर है, जो ऐसा कर सकता है, तो वह हमारा ही ईश्वर है, जिसकी हम सेवा करते हैं। वह हमें प्रज्वलित भट्टी से बचाने में समर्थ है और हमें आपके हाथों से छुडायेगा। यदि वह ऐसा नहीं करेगा, तो राजा! यह जान लें कि हम न तो आपके देवताओं की सेवा करेंगे और न आपके द्वारा संस्थापित स्वर्ण-मूर्ति की आराधना ही।’’ (दानिएल 3:17-18) तो जब हम तकलीफों से गुजरते हैं तो इस विश्वास के साथ गुजरते है हमारा ईश्वर हमें बचायेगा और यदि ऐसा नहीं भी होता है तो वह इसलिये नहीं कि हमारे शत्रुओं ने हम पर विजयी पायी बल्कि इसलिये कि यह ईश्वर की योजना का हिस्सा है। योब के जीवन में अचानक अनेक श्रृंखलाबद्ध प्राकृतिक तथा मानवीय विपदायें आयी। उसका लगभग सबकुछ नष्ट हो गया लेकिन उसने मात्र इतना ही कहा, ’’प्रभु ने दिया था, प्रभु ने ले लिया। धन्य है प्रभु का नाम! (योब 1:21) योब जानता था कि भला ईश्वर सभी वस्तुओं तथा परिस्थतियों का स्वामी है इसलिये उनमें अपनी मजबूरी में भी विश्वास किया। हम अक्सर चाहते हैं कि जीवन के कडवे प्याले हम से दूर रहे किन्तु सच्चा विश्वास यह कहता है, ’’फिर भी मेरी नहीं, बल्कि तेरी इच्छा पूरी हो।’’ (लूकस 22:42) येसु की क्रूस पर से पुकार, ’’एली! एली! लेमा सबाखतानी? इसका अर्थ है- मेरे ईश्वर! मेरे ईश्वर! तूने मुझे क्यों त्याग दिया है?’’ (मती 27:46) उनकी हताशा या पराजय का चिन्ह नहीं बल्कि उनकी पिता के साथ उनकी संयुक्ता को प्रदर्शित करता है।
हागार को उसकी मालकिन सारा बहुत प्रताडित करती थी। इसलिये वह घर से भाग जाती है। रेगिस्तान में उसे ईश्वर उससे बातें करते तथा उसे उसकी परिस्थितियों का अर्थ समझाते हैं। ईश्वर उसे आश्वासन देते हैं कि वे अकेली नहीं है तथा उसका जीवन तथा परिस्थिती ईश्वरीय योजना का हिस्सा है। इस अनुभव के बाद हागार अपनी मालकिन के दुर्व्यवहार को सहने के लिये दुबारा उसके पास लौट जाती है तथा घोषित करती है, ’एल राई’ ’’ अब मैंने उसी को देखा है, जो मुझे देखता है।’’ (उत्पत्ति 16:13) अब हागार के लिये प्रताडना को सहना आसान है क्योंकि अब उसकी तकलीफ का अर्थ है तथा वह ईश्वर को साथी मानती है। येसु हमें बताते हैं कि यहॉ तक कि गौरेये भी ईश्वर की जानकारी के बिना नहीं गिरता है। जीवन की बडी घटनाओं को ईश्वर की इच्छा मानना आसान लगता है किन्तु यह भी जानना जरूरी है कि छोटी-छोटी बातें भी ईश्वर जानता है। प्रतिकूल परिस्थतियों में जब हम इस प्रकार का विश्वास रखते हैं वास्तव में ईश्वर हमारे साथ हमारी परिस्थितियों में घुल जाता है तथा हमारी तकलीफों में हमारा साथी बन जाता है। ऐसे हमारी जीवन की यात्रा जीवन के पाठ तथा मील के पत्थर यादगारी बन जाते हैं। जब दुनिया को महामारी, प्राकृतिक आपदायें, आर्थिक हानियॉ आदि जैसे बातें अपनी गिरफत में ले लेती है तो तब हम डरते नहीं है क्यांेकि अपनी भक्ति तथा श्रद्धा में हम जानते हैं कि हमारा स्वर्गिक पिता जानता है। स्तोत्रकार कहते हैं, ’’प्रभु की दृष्टि अपने भक्तों पर बनी रहती है, उन पर, जो उसकी कृपा से यह आशा करते हैं कि वह उन्हें मृत्यु से बचायेगा और अकाल के समय उनका पोषण करेगा।’’ (स्तोत्र 33:18-19)
✍ -फादर रोनाल्ड वाँन, भोपाल
Suffering is the part and parcel of human life. Not only the sinners or wrong doers but many times innocent and just people also suffer. No matter where we go there would be in different forms and measures troubles and sufferings await us. However, it is not the troubles that define us but the way we face and undergo them defines our character.
State or Feeling of being abandoned is highly disparaging state to be in. We need to summon our faith in God in such moment. God alone can assure us of our safety and security.
Prophets were almost synonym to suffering and persecution. They were constantly harassed and persecuted. And most of them met with violent end. Their fault was being God’s voice amidts an ocean of evil. People tried to be friendly with them to influence them into their favour but when they refused to compromise,they persecuted them. Prophet Jeremiah suffered a great deal of persecution. He feels terribly surrounded by miserly piled upon him by friends and foealike yet there is a difference between the misery of others and his. In his pathetic situation he remembers ‘Yahweh’ his God. he realises that God is not only present there or merely an onlooker on his situationbut is an active companion. And He is able to save him from this impossible situation and mighty enemy. With this faith and hope he is confident of his victory over his enemies and success in his mission.
Jesus forewarns his disciples of the persecution that would eventually and inevitably come in their work. However, there is nothing to be panicked since God is in control of everything. To be sure of God’s presence and believe in his power in abysmal situation is the real and salvific faith. Azaria, micheal etc. refused to bow down and worship the statues of the king. They were ready to be burned alive. It wasn’t that they weremerely ready to die but they were ready to undergo it with an active and open faith towards God, “If our God whom we serve is able to deliver us from the furnace of blazing fire and out of your hand, O king, let him deliver us. But if not, be it known to you, O king, that we will not serve your gods and we will not worship the golden statue that you have set up.’.” (Daniel 3:17-18)So while we suffer, we believe that God is able to save us yet even if we perish, we know that it is the will of the father and not the victory or supremacy of our enemies over us. Job suffered a series of disasters at the hands of robbers and weather, but he said, “The Lord gave, and the Lord has taken away; blessed be the name of the Lord.” (Job 1:21) He knew that his good God was in charge, and with broken heart trusted Him. Often, we want our “bitter cup” to pass from us; but true trust in God says, “May Thy will and not my will be done.” (Luke 22:42)
Jesus’ cry from the cross, “Eli, Eli, lemasabachthani?’ that is, ‘My God, my God, why have you forsaken me?’” (Matthew 27:46) is not the sign of hopelessness butan expression of his union with the father. Even in his abandonment he remembered his God.
Haggar had a terrible time with her mistress Sarah. She even ran away from her house. While she was in the desert God spoke to her and tried to make sense out of her suffering. He assures her that she is not alone but her life and situation are very much in the divine plan. Haggar was ready to go back to her mistress and be subjected to her ill-treatment because she experienced that God is watching over her. She famouslyproclaims, “El Roi”, which means I have seen the one who sees me’. (Genesis 16:13) Now the suffering of Haggar has a meaning and a companion in the person of God. Jesus assures us that not even a bird falls down without the knowledge of God and as for human beings God care much more than the birds. It is easy to imagine that the biggest parts of our lives were planned but even the smallest details too were known to God. it is hard to grasp but when we truly believe it God mixes with our situation and when God accompanies us then the suffering becomes a walk with God. The journey becomes lessons and milestones to remember.
On the contrary when the wrong doers suffer, they have within them deep regret and agony. They feel abandoned and lonely. They had no one to care about. Their suffering leads them to doom. When the world faces wars, pandemics,natural disasters, economic collapses, etc., fear can grip us; but when we Know our heavenly Father is in charge, the fear can be removed. Ps. 33:18-19 says, “But the eyes of the Lord are on those who fear him…to deliver them from death and keep them alive in famine.”
God is able to weave even our wrong choices into the great tapestry of His will and make them work for our good. Romans 8:28 says, “And we know that in all things God works for the good of those who love him…” Paul didn’t say everything was good, but that it worked out for the good! So let us rejuvenate our faith in God and remind ourselves that he sees us and companies us in our good and bad times.
✍ -Rev. Fr. Ronald Vaughan, Bhopal