1) प्रभु मूसा से बोला,
2) ''इस्राएलियों के सारे समुदाय से यह कहो - पवित्र बनो, क्योंकि मैं प्रभु, तुम्हारा ईश्वर, पवित्र हूँ।
17) अपने भाई के प्रति अपने हृदय में बैर मत रखो। यदि तुम्हारा पड़ोसी कोई अपराध करे, तो उसे डाँटो। नहीं तो तुम उसके पाप के भागी बनोगे।
18) तुम न तो बदला लो और न तो अपने देश-भाइयों से मनमुटाव रखो। तुम अपने पड़ोसी को अपने समान प्यार करो। मैं प्रभु हूँ।
16) क्या आप यह नहीं जानते कि आप ईश्वर के मन्दिर हैं और ईश्वर का आत्मा आप में निवास करता है?
17) यदि कोई ईश्वर का मन्दिर नष्ट करेगा, तो ईश्वर उसे नष्ट करेगा; क्योंकि ईश्वर का मन्दिर पवित्र है और वह मन्दिर आप लोग हैं।
18) कोई अपने को धोखा न दे। यदि आप लोगों में कोई अपने को संसार की दृष्टि से ज्ञानी समझता हो, तो वह सचमुच ज्ञानी बनने के लिए अपने को मूर्ख बना ले;
19) क्योंकि इस संसार का ज्ञान इ्रश्वर की दृष्टि में ’मूर्खता’ है। धर्मग्रन्थ में यह लिखा है- वह ज्ञानियों को उनकी चतुराई से ही फँसाता है
20) और प्रभु जानता है कि ज्ञानियों के तर्क-वितर्क निस्सार हैं।
21) इसलिए कोई मनुष्यों पर गर्व न करे सब कुछ आपका है।
22) चाहे वह पौलुस, अपोल्लोस अथवा कैफ़स हो, संसार हो, जीवन अथवा मरण हो, भूत अथवा भविष्य हो-वह सब आपका है।
23) परन्तु आप मसीह के और मसीह ईश्वर के हैं।
(38) तुम लोगों ने सुना है कि कहा गया है- आँख के बदले आँख, दाँत के बदले दाँत।
(39) परन्तु मैं तुम से कहता हूँ - दुष्ट का सामना नहीं करो। यदि कोई तुम्हारे दाहिने गाल पर थप्पड मारे, तो दूसरा भी उसके सामने कर दो।
(40) जो मुक़दमा लड़ कर तुम्हारा कुरता लेना चाहता है, उसे अपनी चादर भी ले लेने दो।
(41) और यदि कोई तुम्हें आधा कोस बेगार में ले जाये, तो उसके साथ कोस भर चले जाओ।
(42) जो तुम से माँगता है, उसे दे दो और जो तुम से उधार लेना चाहता है, उस से मुँह न मोड़ो।
(43) "तुम लोगों ने सुना है कि कहा गया है- अपने पड़ोसी से प्रेम करो और अपने बैरी से बैर।
(44) परन्तु मैं तुम से कहता हूँ - अपने शत्रुओं से प्रेम करो और जो तुम पर अत्याचार करते हैं, उनके लिए प्रार्थना करो।
(45) इस से तुम अपने स्वर्गिक पिता की संतान बन जाओगे; क्योंकि वह भले और बुरे, दोनों पर अपना सूर्य उगाता तथा धर्मी और अधर्मी, दोनों पर पानी बरसाता है।
(46) यदि तुम उन्हीं से प्रेम करत हो, जो तुम से प्रेम करते हैं, तो पुरस्कार का दावा कैसे कर सकते हो? क्या नाकेदार भी ऐसा नहीं करते ?
(47) और यदि तुम अपने भाइयों को ही नमस्कार करते हो, तो क्या बडा काम करते हो? क्या गै़र -यहूदी भी ऐसा नहीं करते?
(48) इसलिए तुम पूर्ण बनो, जैसे तुम्हारा स्वर्गिक पिता पूर्ण है।
आज के सुसमाचार में हम पाते हैं कि येसु अध्यात्मिकता को नई ऊंचाइयों पर ले जा रहे हैं। वे अपने शिष्यों को आह्वान करते हैं कि वे पुराने विधान में बदला लेने की सीमा निर्धारित करने की जो मानसिकता है, उसे पीछे छोड़ कर नये विधान की सब को क्षमा करने की मानसिकता को अपनायें। येसु के शिष्यों को बदला नहीं लेना चाहिए। वे अपने दुश्मनों से प्यार करते हैं और उन लोगों के लिए प्रार्थना करते हैं जो उन्हें सताते हैं। येसु ने एक सक्रिय और सकारात्मक प्रेम की वकालत की। कोई फर्क नहीं पड़ता कि लोग आपके साथ कैसा व्यवहार करते हैं, आप अपने प्यार में दृढ़ रहें। शोकगीत 3: 22-23 में हम पढ़ते हैं, “प्रभु की कृपा बनी हुई है, उसकी अनुकम्पा समाप्त नहीं हुई है। वह हर सबेरे नयी हो जाती है। उसकी सत्यप्रतिज्ञता अपूर्व है।” इसी प्रकार का प्यार येसु की पहचान थी और वे अपने शिष्यों से यही अपेक्षा करते हैं। यह स्वर्गिक पिता के प्यार की तरह है जो "भले और बुरे, दोनों पर अपना सूर्य उगाता तथा धर्मी और अधर्मी, दोनों पर पानी बरसाता है"। आइए हम इस स्तर तक उठना सीखें जो मसीह हम से अपेक्षा करते हैं।
✍ -फादर फ्रांसिस स्करिया
In today’s gospel we find Jesus taking the spirituality to greater heights. He invites his disciples to move beyond the old prescription of drawing boundaries for the revenge one can take. His disciples are not to take revenge at all. They are to love their enemies and pray for those who persecute them. Jesus advocated a proactive love. No matter how people treat you, you shall be steadfast in your love. In Lam 3:22-23 we read, “The steadfast love of the Lord never ceases, his mercies never come to an end; they are new every morning; great is your faithfulness”. It is this steadfast love that is shown by Jesus and this is what he expects from his disciples too. It is like the love of the Heavenly Father who “causes the sun to rise on the bad as well as the good, and sends down rain to fall upon the upright and the wicked alike”. Let us learn to rise up to this level Christian love that Jesus expects from each one of us.
✍ -Fr. Francis Scaria